“आप कुछ लड़कियों जैसी हरकतें करते हैं, वो क्या कहते हैं उनको? हाँ! गे जैसे हैं आपके हावभाव। मैं मिंटू को यहां नहीं पढ़ा सकती। ये बच्चा है अभी, और थर्ड क्लास में ही है, फिर इसपर भी असर पड़ सकता है ऐसी बातों का।”
ऐसे कई उदाहरण से हम ज़िंदगी भर ओतप्रोत होते आए हैं। समाज में फैला एक नासूर जो एक विशेष समुदाय को अंदर ही अंदर खोखला करता जा रहा है। बात कर रहे हैं समलैंगिक समुदाय की। बात केवल समलैंगिक समुदाय की नहीं है बात यहां मानवाधिकार के छिन्न भिन्न होने की है। लोगों ने एक रूढ़िवादी सोच को बरकरार रखने के लिए न जाने कितने ही समुदायों को अपने दिखावटी परिवेश और दिखावटी नैतिकता के तले कुचल डाला है। चाहे यहां बात करें महिलाओं की, दलितों की या फिर समलैंगिक समुदाय की ये सभी हाशिये पर आंके जाने वाले समुदाय हैं जिनमें समलैंगिक समुदाय सबसे निचले स्तर पर आता है।
ऐसे में सवाल यही उठता है कि आख़िर लोग समलैंगिक समुदाय के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ को इतना बुलन्द कैसे रख लेते हैं? कैसे वे समुदाय के लोगों को दरकिनार करते हैं, डरते हैं! उनको डर सताता है कि कहीं हमारी छवि गंदी न हो जाए, कहीं हमारे चरित्र पर दाग न लग जाए। उनकी ऐसी सोच के पीछे घिसीपिटी पुरानी, रद्दी की हुई विचारधारा है जो आज समाज को इस समुदाय से बिल्कुल अलग कर देती है।
पश्चिमी देशों में इसके लिए एक टर्म इस्तेमाल होती है उसे कहते हैं LGBTQAI+ कम्युनिटी। वहीं हमारे भारत में सिर्फ़ समलैंगिक समुदाय कह कर इस समुदाय को और संकुचित कर दिया जाता है। यहां सिर्फ समान लिंग की तरफ आकर्षण होने को ही इस समुदाय का मुख्य मुद्दा माना जाता है। मगर बात सिर्फ यहीं तक महदूद नहीं है। इसका दायरा और भी बड़ा है और भी फैला हुआ है। जैसे
L – लेस्बियन : ये टर्म उन लड़कियों/महिलाओं के लिए इस्तेमाल होती है जहां लड़की अपने समान लिंग की तरफ आकर्षित होती हैं। यहां आकर्षण महज शारीरिक नहीं होता बल्कि भावनात्मक रूप से भी जुड़ने की भावना होती है।
G- गे: ये भाव उन लड़कों/ पुरुषों के लिए आता है जो अपने समान लिंग की तरफ आकर्षित होते हैं। ये शारीरिक और मानसिक दोनों हो सकता है।
B- बाइसेक्सुअल : ये वो टर्म है जहां इंसान विषमलिंगी और समलिंगी दोनों तरफ आकर्षित होता है। अर्थात एक पुरुष , महिला और पुरुष दोनों की तरफ शारीरिक और मानसिक तौर पर आकर्षित होता है। ये टर्म एक शादीशुदा पुरुष या महिला दोनों के साथ हो सकती है।
T- ट्रांसजेंडर : इस टर्म को लोग किन्नर समाज से जोड़कर देखते हैं, मगर ये सिर्फ उनके लिए ही इस्तेमाल नहीं होता। ट्रांसजेंडर उन लोगों को भी कहा जाता है जिनका जन्म उनके अपनाए हुए शरीर से अलग हो। जैसे किसी पुरुष के अंदर एक स्त्री की भावना है और वो अपना जननांग बदलवाना चाहता है। उस बदलाव के बाद उसके जननांग एक पुरूष वाले न रहकर एक महिला में तब्दील हो गए हैं तो ऐसी स्तिथि में वो इंसान ट्रांसजेंडर कहलायेगा।
Q- क्वीर : क्वीर मतलब ये एक अम्ब्रेला टर्म है। इसका मतलब समलैंगिक समुदाय से आने वाले लोग चाहे वो किसी भी समुदाय या टर्म से सम्बंधित हों वो खुद को न तो गे, लेस्बियन, ट्रांसजेंडर कहलाना पसंद करते हों, पर वास्तव में वो समलैंगिक ही होते हैं और खुद को एक स्वतंत्र नाम के समक्ष खुद को प्रदर्शित करते हैं और कहलाते हैं ‘क्वीर’।
A- असेक्सुअल: जिन लोगों में रोमांस की कोई भावना नहीं होती, जैसे न तो उनको किसिंग से मतलब और न सेक्स की कोई भावना। ऐसे लोग असेक्सयूअल कहलाते हैं। वहीं इन लोगों को हग करना, आलिंगन, प्यार की भावना अत्यंत आकर्षित करती है।
I- इंटरसेक्स: इन लोगों के जन्म के समय यह बात सामने नहीं आ पाती की वो किस लिंग के हैं। ऐसा कई बार होता है कि बिना अंडाशय के लिंग का शरीर के साथ जुड़ा होना, या फिर वेजाइना के साथ एक अंडकोष की थैली का होना। या कभी कभी कुछ भी मालूम न पड़ना। ऐसी स्तिथि में अमेरिका में हुए शोध में पाया गया कि 1000 लोगों में से केवल 1,2 लोग अभी भी इस टर्म का शिकार हो जाते हैं। जिनके जननांग ये बताने में सक्षम नहीं होते की वे इंसान जन्म से किस लिंग का है।
उपरोक्त सारी टर्म आजकल हाशिये पर आंकी जा रही हैं और कहीं न कहीं ये शोषण का शिकार होते ही हैं। समाज में फैला एक शब्द और हो जो समलैंगिक समुदाय के शोषण के लिए चलन में है “होमोफोबिया”।
समलैंगिक लोगों के लिए समाज का नकारात्मक दृष्टिकोण होमोफोबिया कहलाता है। इसके अंतर्गत समलैंगिक समुदाय को भावनात्मक, शारिरिक, मानसिक हर तरह से चोट पहुंचाई जाती है। ये एक प्रचलित चलन चल गया है। भारत जैसे देश में भी यही चलन एक विषैला स्वरूप लिए हुए अपने पांव पसार रहा है। इस प्रख्यात विधि ने नागरिकता के मूल अधिकारों की धज्जियां उड़ा रखी हैं। धार्मिक और सांस्कृतिक मान्यताओं का दुखड़ा रो कर समाज आज इसको गंदा और नकारात्मक ऊर्जा से परिपूर्ण एक पश्चिमी देश का चलन मानता है।
भारत में सेम सेक्स मैरिज से भागने वाले लोग इसी कुप्रथा होमोफोबिया के शिकार हैं। उनको डर है कि इस तरह के रिश्तों से उनके समाज की नैतिकता को आग लग जाएगी और उनकी नैतिकता की राख बन जाएगी। हमारा समाज अक्सर ये सोचता आया है- जिसमें मैं भी शामिल हूं – कि अक्सर शिक्षा इंसान के दिमाग को शुद्ध करती है, अनुभव मिलते हैं, लोगों की सोच बदल जाती है। मगर यहां तो कुछ और ही देखने को मिलता है, बड़े से बड़े पढ़े लिखे लोग भी इस होमोफोबिया के शिकार हैं। जज, पुलिस, नेता यहां तक कि केंद्र सरकार भी आज इसी डर और भय से जूझ रही है। जो कि वास्तव में एक शोषण है खुद के लिए।
सबसे बड़ा रोग, क्या कहेंगे लोग
आज कल हमारे समाज इकाईयां इस बात से अधिक प्रभावित नज़र आती है कि समाज के लोग क्या सोचते हैं उनके लिए? आज हम अपनी चॉइस से कपड़े नहीं पहनते बल्कि ये देखते हैं कि सामने वाला क्या कहेगा? उसको हम एट्रेक्ट कर पाएंगे या नहीं? क्या हमने बिल्कुल अलग ऑउटफिट कैरी किए हैं? अब उनके इस परिधान में वो कम्फर्ट हों या न हों ये उनके बस की बात नहीं, लोग डिसाइड करेंगे कि हमको क्या खाना है, क्या पहनना है, क्या करना है। ऐसे में यहां भी यही बात सामने आती है कि अगर हमारा दोस्त, भाई, बहन, बेटा, बेटी इस समुदाय से सम्बंधित हैं तो यक़ीनन वो कतराते होंगे साथ चलने में, उनको किसी दूसरे इंसान से इंट्रोड्यूस करवाने में झिझक ज़रूर होती होगी, ये झिझक होमोफोबिक होने की सबसे बड़ी पहचान है।
लास्ट बट नॉट लीस्ट, मेरा यही कहना है और लोगों को सन्देश देना है कि ईश्वर ने आपको आज़ाद पैदा किया है आप आज़ाद रहिए, हर डर से, हर नकरात्मक पहलू से और किसी को नुकसान पहुंचाने से। हम सब इंसान है हिन्दू मुस्लिम ईसाई सिख ये सभी धर्म बाद कि बात हैं पहले हमको इंसान बनना है। इंसान बनने के बाद हमारा दूसरा धर्म होना चाहिए व्यवहार में मानवता का समावेश, और फिर इसके बाद बारी आती है प्यार की, इज़्ज़त की और ढेर सारी खुशियों की जो हम दूसरों को अपने व्यवहार से दे सकते हैं। जिसमें कोई छल कपट बईमानी नहीं होनी चाहिए। प्यार और सिर्फ प्यार।
समलैंगिक समुदाय के लिए भागीदारी और उनकी सहायता के लिए हमेशा तैयार रहें और बस प्यार बांटते चले।