एक युवक की सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के पश्चात विडियो द्वारा व्यथित प्रतिक्रिया
लैंगिकता को समझने के लिए संसाधन इंटरनेट पर प्रायः अंग्रेजी भाषा में पाये जाते हैं। इसलिए आदित्य शंकर का “कोलाहल” नामक विडियो उल्लेखनीय है, क्योंकि वह समलैंगिकता और सुप्रीम कोर्ट के ११ दिसंबर २०१३ के भारतीय दंड संहिता की धारा ३७७ सम्बन्धी निर्णय के बारे में हिंदी में एक संभाषण की शुरुआत करता है। ऐसे बहुत सारे एल.जी.बी.टी.आई. युवा हैं, जो अपने माँ-बाप को अपने बारे में खुलके बताना तो चाहते हैं, पर उनके माता-पिता अंग्रेजी नहीं समझते।
“मैं गे/लेस्बियन/बाइसेक्शुअल/ट्रांसजेंडर हूँ!” ये बताने के पश्चात समलैंगिकता के बारे में तर्क से और सहिष्णुता-पूर्वक जानकारी की निहायत कमी है। मीडिया में देखी जानेवाली सकारात्मक बहस अक्सर अंग्रेजी में होती है। प्रादेशिक चैनलों पर धार्मिक या रूढ़िवादी आवाज़ों का मुक़ाबला प्रोग्रेसिव आवाज़ों से जमके होता है, पर इस टक्कर में कभी-कभी तथ्य की जगह भावनाएँ ले लेती हैं और फिर वास्तव से पूर्वाग्रहों को अलग करना मुश्किल हो जाता है। अतः यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि आदित्य जैसे युवक सामने आयें और अपने विचार व्यक्त करके एक सम्भाषण को प्रारम्भ करें। निर्णय के बाद उनकी निराशा और चिढ उनके शब्दों में साफ़ ज़ाहिर हैं लेकिन अपने अधिकारों के लिए लड़ने कि दृढ़ता भी मालूम होती है। आइये आदित्य के बारे में कुछ जानते हैं, और इस विडियो के कुछ पहलुओं के बारे में उनसे चर्चा करते हैं।
१) अपने बारे में कुछ बताएं। आप एल.जी.बी.टी.आई.अधिकारों की लड़ाई में कबसे सक्रिय हैं?
जैसा कि मेरे लघु चलचित्र में स्पष्ट है कि मै भारतीय प्रोद्योगिकी संस्थान मुम्बई में विद्युत् अभियांत्रिकी का तृतीय बर्ष का छात्र हूँ। मेरा जन्म बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में सन १९९३ के जेष्ठ में हुआ था, और मै एक स्वतंत्र विचार वाले शिक्षाविद परिवार में जन्मा था। २००४ में जब मेरी उम्र करीबन ११ कि थी, तब मै शिक्षा हेतु दिल्ली गया और इसी दौरान मुझे मेरी समलैंगिकता स्पष्ट हो गयी। २००४ से २०११ तक की खुद से की गयी लड़ाई मेरे भीतर केवल एक द्वन्द ही नहीं परन्तुं एक पहचान की स्वीकृति की लड़ाई बन गयी थी। मै अपने आप को तो कवि नहीं कहता किंतु अपने जीवन को अवश्य कविता कहता हूँ।
२०१० के सावन में मुझे पहली बार प्यार हुआ और , सहसा यह अहसास हुआ कि यह पहचान मै खुद में न रख पाउँगा। कविता के दूसरे छंद की शुरुआत हो गयी। कुछ दिनों में मेरी पहली संस्वीकृति (कमिंग आउट), और पहले टूटे दिल की प्राप्ति हुई। वर्ष था आई. आई. टी. की प्रवेश परिक्षा का, दिल सँभालते हुए मै पढाई में लग गया| तदुपरांत मै कॉलेज में आया, वर्ष २०११ था, भादो माह! बाहर चलती आँधियों में कहीं मेरा ह्रदय डोल रहा था। मुझे “साथी” नामक एक समूह का ज्ञान हुआ, जो “क्वीयर अधिकारों” की वकालत के लिए बना था। हरिश्चंद्र नाम के एक अग्रज ने मंच पे आके समूह का परिचय दिया और इस दौरान मै स्तब्ध सा गुमसुम, अपनी कुर्सी को थामे बैठा रहा।
तृतीय छंद की शुरुआत। फिर २०११ से २०१३ तक मैंने साथी के साथ, संस्थान के भीतर एवं बाहर समलैंगिक अधिकारों के लिए काम किया है। इसी वर्ष अक्टूबर में मैंने साथी का “संयुक्त राष्ट्र” के पैनल चर्चा में प्रतिनिधित्व किया है।
२) कोलाहल का मतलब है शोर-गुल, उपद्रव, खलबली, हड़बड़ी. विडियो को “कोलाहल” शीर्षक देकर आप क्या सूचित करना चाहते हैं?
देखिये, भारतियों की एक गम्भीर समस्या है। हम सब को बहुत बोलने की आदत है, और हो भी क्यों न, हम एक लोकतंत्र जो हैं। लेकिन मै इस वाचाल प्रवृत्ति से नाखुश नहीं हूँ, मै बोले गए अधपके या पूर्णतः कच्चे विचारों से बौखलाया हुआ हूँ। सर्वोच्च न्यायलय का निर्णय इसी वजह से अधिक उल्लेखनीय है। निर्णय में दिए गए बिंदु मानव अधिकारों को बहुमत के अधीन करते हैं और एक पक्षपात-पूर्ण सामाजिक क्लेश को जन्म देते हैं। यह क्लेश निरंतर कुछ सामाजिक प्रवक्ताओं के “बिन सर पैर के” वक्तव्यों से , समाज में जहाँ शांति होनी चाहिए, वहाँ कोलाहल फैला देता है। तर्क, तर्कसंगतता व चेतना कहीं गायब से हो जाते हैं। (उदहारण के लिए रामदेवजी का बयान, श्रीमती मिनाक्षी लेखी की “व्यक्तिगत राय” को ही ले लीजिये।) सहसा भारत एक धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र न रहके रूढ़िवादी धार्मिक राष्ट्र बन जाता है। इस समय मै यह भी स्पष्ट करना चाहूंगा कि मज़हब और संस्कृति दो अलग अलग चीज़ें हैं। अगर हम सतीप्रथा, जातिवाद, राजनीती एवं विज्ञान के क्षेत्रों में धार्मिक नहीं हैं, “पश्चिमी” हैं, तो यह “पश्चिम का आयात” हमें कब से परेशान करने लगा?
३) आपके अनुसार सुप्रीम कोर्ट के समलैंगिकता के पुनः अपराधीकरण करने वाले निर्णय की वजह से से आप जैसे युवा समलैंगिकों के जीवन पर क्या असर पड़ेगा?
जब एक व्यक्ति १२ की उम्र के आस-पास अपनी इस प्रवृत्ति को समझने की कोशिश करता है तो उसका सहारा सामाजिक प्रवचन नहीं, किन्तु न्यायिक एवं क़ानूनी ढांचा बनते हैं। कोर्ट के इस निर्णय से हम, अपने-आप-से-डरे-हुए उन सब लोगों को, निराशापूर्ण एक कालकोठरी में धकेल रहे हैं, जहाँ से निकलना बेहद मुश्किल है। लेकिन, शक्ति के केन्द्रों को यह ज्ञात होना चाहिए कि प्रदमन तथा उत्पीड़न क्रांति के अग्रज रहे हैं। इसका उदहारण हमे ३७७ के विरुद्ध उठी तेज आवाज़ से में सुनाने को मिलता है।
४) अपने परिवार और मित्रजनों से समलैंगिकता के बारे में आपको कौनसी गलतफहमियां देखने को मिली?
मै अपने आप को बेहद सोभाग्यशाली मानता हूँ कि मेरे मित्रमंडली में एवं परिवार में अज्ञान कम था, इसलिए मुझे कभी “होमोफोबिया” को झेलना नहीं पड़ा। बस कुछ थोड़े कार्टूनी सवाल थे, जिनका मुझे उत्तर देना पड़ा। सबसे उल्लेखनीय प्रश्न था, समलैंगिकता के वैकल्पिक या स्वैच्छिक होने का।
५) बड़े शहरों से बाहर, भारत के ग्रामीण हिस्सों में एल.जी.बी.टी.आई. अधिकारों के बारे में सामाजिक जागरूकता को कैसे बढ़ावा मिल सकता है?
अधिक से अधिक संसाधानो का अनुवाद हो। भारतीय संस्कृति में जहाँ जहाँ समलैंगिकता का चित्रण है उसका उल्लेख हो। ज़यादा से ज़यादा लोग अपनी पहचान को स्वीकारें। कम से कम अपने प्रिय मित्रों और परिवारजनों को बताएं, उनके संदेह स्पष्ट करें। स्कूलों में सेक्स एजुकेशन (यौन शिक्षा) को अनिवार्य किया जाए, और धीरे धीरे सामाजिक रूढ़िवाद का विनाश हो।
अजीबो गरीब तर्कों का नाश वैसे ही वितर्कों से किया जाए। रामदेव का विरोध अगर कोई धर्मगुरु करे तो आंदोलन अधिक प्रभावशाली बनता है। जैसे कि आस्तिकों के समूह में नास्तिक विचार धारा को कोई श्रेय नहीं मिलता, वैसे ही इन सांस्कृतिक अविभावकों की श्रंखला में “लिबेरलिस्म” और मानवाधिकारों के रक्षकों को कोई श्रेय नहीं मिलता। संस्कृति का उत्तर संस्कृति से ही मिलेगा। प्रभाव उसी में है। सामाजिक, आर्थिक एवं दार्शनिक विकास का विकेंद्रीकरण (डी-सेंट्रलाइज़ेशन) होना अनिवार्य है। स्थानीय संस्कृतियों के साथ सहयोग, परिवर्तन के इस चक्र को बल देता है। इसके अलावा, यह आंदोलन, एक बड़े आंदोलन का छोटा भाग है। सेक्षुअल रेवोलुशन (यौन क्रांति) एवं स्त्री अधिकारवाद उसी बड़े आंदोलन का हिस्सा हैं। २१वी सदी का यह आत्यावश्यक परिवर्तन है जिसे हमे अपने समाज में लाना है।
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