२४ मार्च २०१५ को भारत ने संयुक्त राष्ट्र (सं.रा.) में एक ऐसे प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया जो इस वैश्विक संस्था में कार्यरत समलैंगिक स्त्री, पुरुष, उभयलैंगिक और ट्रांसजेंडर कर्मचारियों के जीवनसाथियों को विषमलैंगिक जीवनसाथियों को मिलने वाली परिलब्धियों (जैसे भत्ता, रहन-सहन और अन्य सुविधाओं की प्राप्ति में आधार, इत्यादि) से वंचित रखता है। जुलाई २०१४ में सं.रा. के महासचिव श्री बन की-मून ने जीवनसथियों के लिए सामान परिलब्धियों का प्रस्ताव रखा था, भले ही वे परंपरागत रूप से दांपत्य समझे जाने वाले स्त्री-पुरुष नहीं हों। अनेक देशों में समलैंगिक विवाह और घरेलू साझीदारियाँ कानूनी हैं। ऐसे कर्मचारी जब सं.रा. में काम करते हैं, तो विषमलैंगिक जोड़ों की तुलना में परिलब्धियाँ नहीं मिलने से उनके विरुद्ध भेदभाव होता है। भारत ने जिन ४२ देशों से राज़ी होकर मतदान किया उनमें सऊदी अरब और ईरान हैं जो समलैंगिकता के लिए मृत्युदंड का प्रावधान रखते हैं; मिस्र और पाकिस्तान हैं जिनमें (भारत की तरह) समलैंगिकता दंडनीय हैं। इस प्रस्ताव के खिलाफ ८० देशों ने वोट किया, जिसमें श्रीलंका भी था. अतः वह ८०-४३ से प्रस्ताव असफल हुआ। जहाँ धर्म की बुनियाद पर संस्थागत समलैंगिक-विरोधी द्वेष आरूढ़ है, जहाँ समाज में उपहास की वजह से लैंगिक अल्पसंख्यक पहले से त्रस्त ही नहीं, अक्सर आत्म-ग्लानि से भी विवश हैं, वहाँ सं. रा. जैसी प्रतिष्ठित संस्था में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस द्वेष के संस्थापन का भारत द्वारा वोट के ज़रिए अनुमोदन होना निम्न कारणों से पूरी तरह से अस्वीकार्य है:
१. समलैंगिक कर्मचारी के जीवनसाथी को विषमलैंगिक दाम्पत्य जैसे समानाधिकार देना एक प्रशासनिक निर्णय है, जो महासचिव के कर्तव्यों के दायरे में आता है। उनके अधिकार को यूँ चुनौती देना संस्था में एक गलत मिसाल क़ायम करता है। भारतीय विदेश मंत्रालय ने भारत के वोट का यह कहते हुए समर्थन किया कि इस इरादे पर उनके साथ पहले विचार-विमर्श नहीं किया गया। भारत में समलैंगिकता अपराध होने की वजह से उनके पास और कोई चारा ही नहीं था। एक बार मान ले कि शायद इस विषय पर बातचीत होनी चाहिए थी। क्या बातचीत के बाद भारत अपनी राय बदलता? और अगर भारत में समलैंगिकता गुनाह होना, यही इस वोट की वजह है, तो भारी बहुमत से चुनी गई सरकार इसका निरपराधिकरण भी कर सकती है। आखिर उच्चतम न्यायलय के ११.१२.१३ के निर्णय का यही तो सार है, कि इस मुद्दे को सुलझाने की जिम्मेदारी संसद की है। भारत का संकटग्रस्त समलैंगिक समाज इसी दशचक्र में घूम रहा है। न्यायलय और संसद की चक्की में पिसा जा रहा है। इसके मूलभूत अधिकारों का कोई पालक नहीं है। हर कोई जिम्मेदार व्यक्ति उत्तरदायित्व मढ़ने में मशगूल है।
अभी तक सं.रा. में यह सिस्टम था कि जिस देश से कर्मचारी आते थे, उस देश के कानूनों के अनुसार यह निर्णय लिया जाता था कि उसे प्रलब्धियाँ दी जाएँ या नहीं। किसी भी देश के नागरिक उनके देश के कानूनों से बंधे हैं, यह सच है। परन्तु सं. रा. जैसी जागतिक संस्था में किसी के जीवनसाथी को थोड़ी-सी प्रलब्धियाँ बहाल होने से खतरा क्या है? इन ४३ देशों के समलैंगिकता-नकारात्मक मत की असली वजह यह है, कि वे समलैंगिकता की वैधता को मान्यता देने, या ऐसा करते हुए समर्थकों द्वारा देखे जाने से आक्षेप है। या कुछ देशों में बहुसंख्य जनता को पसंद नहीं आएगा। लेकिन लोकतंत्र का मूल ही सबके अधिकारों की संविधान के दायरे में रक्षा करना है। बहुसंख्यवाद का तर्क देकर हम लोकतंत्र के इस बुनियादी सिद्धांत की अवहेलना कर रहे हैं।
२. विभिन्न देशों के नागरिकत्व और अन्य कानूनों की वजह से यह मुद्दा जटिल है, यह स्वीकार है। अगर भारत ने इस प्रस्ताव के विरुद्ध (यानि समलैंगिकता के पक्ष में) वोट किया होता, तो कल अगर कोई भारतीय समलैंगिक राजदूत अपने जीवनसाथी के लिए अधिकार मांगे तो क्या उसे वह देना अनिवार्य होगा? मुमकिन है कि यह सवाल भी भारत (और भारत जैसे देश, जो पूरी तरह कट्टरवाद से समलैंगिकता के ख़िलाफ़ नहीं हों) के सामने आया हो। लेकिन फिर भारत अपने पडोसी राष्ट्र नेपाल, ब्रह्मदेश और भूटान की तरह ‘ऐब्सटेन’ (वोट करने से परहेज़) भी तो कर सकता था। सितम्बर २०१४ में भी भारत ने लैंगिकता और लैंगिक पहचान की बुनियाद पर होनेवाले भेदभाव के सिलसिले में आए प्रस्ताव पर वोटिंग से परहेज़ किया था।
भारत के लाखों प्रोफेशनल विदेश में काम करते हैं। उनमे से कई समलैंगिक हैं, और कई विदेशी कंपनियों में उन्हें (और उनके भारतीय या अन्य नागरिकत्व के जीवनसाथियों को) यह परिलब्धियाँ मिलती हैं। जब वे भारत आते हैं तो उनपर भारत के कानून लागू होते हैं – यह सरल है। तो सं. रा. के विषय में यह आक्षेप क्यों? क्या इसकी वजह यह है की संयुक्त राष्ट्र में एक दृष्टिकोण लेने, और देश के भीतर विपरीत दृष्टिकोण लेने से यह विरोधाभास उजागर हो जाता? आज भारत का समलैंगिक समाज गर्व से सर ऊँचा करके जीने की जी-तोड़ कोशिश कर रहा है। क्या भारत सरकार इनके संघर्ष को मद्दे-नज़र रखने में नाक़ाम हैं?
३. बहुत से लोग कहते हैं कि भले ही समलैंगिकता पर उनकी एकतरफा राय नहीं है, फिर भी भारत ने रूढ़िवादी देशों से हाथ मिलाकर, उनके द्वेषभाव के स्वर में स्वर मिलाकर अपनी छबि को नुक्सान पहुँचाया है। यद्यपि यह सच है, मुझे यह उपपत्ति पसंद नहीं है। क्या शोषित समाज के अधिकारों की रक्षा इसलिए करता है भारत, कि अन्य देशों के सामने उसकी प्रतिमा बेदाग़ रहे? या अपने संविधान में अनुच्छेद १९ (१) का पालन करने के लिए करता है, जिसके लिए वह प्रतिबद्ध है और जिसमें हर किसी को भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बहाल की गई है?
४. जब भारत सरकार सं.रा. पर बिना ऐब्सटेन किए ठोस समलैंगिक-विरोधी रवैय्या लेता है, देश में इस समाज के ख़िलाफ़ शत्रुता रखने और ज़हर फैलाने वालों की हौसला अफ़ज़ाई होती है। समलैंगिकों के ख़िलाफ़ गलत, अवैज्ञानिक और पक्षपातपूर्ण झूठ को अपने प्रभावशाली पदों से प्रसारित करने का उन्हें जैसे लाइसेंस मिल जाता है। और सबसे बड़ी ट्रैजडी यह है कि इस फैलाए जाने वाले विष के बहुतांश परिणाम बंद दरवाज़ों के पीछे, परिवारों के बीच, हिंसा, तिरस्कार, अस्वीकार, शोषण, जबरन शादियाँ इत्यादि का रूप लेंगे, और बाहरी समाज को इसकी खबर भी नहीं पड़ेगी।
५. आर्थिक विकास बहुत ज़रूरी है। जिस तरह सरकार ने जन धन योजना से देश के करोड़ों गरीबों, और समाज के हाशिए पर जी रहे लोगों को वित्त प्रणाली में शामिल किया है, उन्हें बीमा द्वारा सुरक्षित किया, वह प्रशंसनीय है। लेकिन आर्थिक विकास वह हाथ है, जो सामाजिक न्याय के बगैर ताली नहीं बजा सकता। अगर कोई अन्याय की मार खाकर गिर जाए तो क्या उसे आर्थिक विकास का शादी का जोड़ा पहनाकर सबल या खुश किया जा सकता है? नहीं न? वैसे ही अपनी गरिमा, पहचान और इज़्ज़त के बिना समलैंगिक समाज उदासीन है। जब कोई निर्दोष अपने कुदरती रुझान की वजह से अपने ही देश में अपराधी करार कर दिया जाए, जब कोई समुदाय १६० सालों से गुनहगारी का लांछन अपने माथे पर लगाए या उसे छुपाए घुट-घुटकर ज़िन्दगी गुज़ारता है, तो देश के विकास के आंकड़े उसके लिए निरर्थक-से हैं।
समलैंगिक अधिकारों के लिए लड़ने वालों के लिए भी आज परिस्थिति का जायज़ा लेने का दिन है। सांसदों से संवाद साधने के शुरू हो रहे प्रयास ज़रूरी हैं। आखिर कब तक कोई सैद्धांतिक विसंवाद को लेकर वास्तव से मुँह फेरकर बैठ सकता है? गुज़रता हुआ वक़्त वापस नहीं आएगा। उपचारात्मक याचिका पर निर्भर रहना, आखरी गेंद पर छक्का लगाकर मैच जीतने की आशा रखने जैसा है। हमें भी आईने में देखकर अपने आप से कुछ कठिन सवाल पूछने होंगे। क्या संवाद करने के व्यापक प्रयास हुए हैं? अगर मौजूदा सरकार (और जैसे हमने देखा, हमें ‘मिनिस्क्यूल माइनॉरिटी’ कहने वाली न्याय व्यवस्था भी) हमारे वास्तव से अनजान हैं, तो बतौर ऐक्टिविस्ट क्या हमें उनसे संवाद करने का कमसकम प्रयास भी नहीं करना चाहिए? मौजूदा सरकार ने जून २०१४ में भारत ने समलैंगिक दाम्पत्यों के परिवारों को ‘परिवार’ की व्याख्या से बाहर रखने पर वोट द्वारा समर्थन जताया था। यह महज़ व्यवहारवाद या सिद्धांतों के साथ समझौता नहीं है। सरकार के घटकों की निंदा भले ही वाज़े हो, उसे करके भले ही किसी को आत्म संतुष्टि प्राप्त हो। लेकिन क्या १ करोड़ से अधिक समलैंगिक समाज उस आत्मसंतुष्टि को बरक़रार रखने के लिए ऐसे ही अपने मूलभूत अधिकारों के इंतज़ार में हाथ पर हाथ धरे बैठा रहे? मसला हमारे निजी राजनैतिक दृष्टिकोणों से बड़ा हो गया है. अब यह उत्तरजीविता (सरवाइवल) का विषय बन गया है। राजनैतिक मान्यताएँ जो भी हों, क्या मौजूदा डिस्पेंसेशन (व्यवस्था) से बातचीत के अलावा कोई चारा है? अगर यह सरकार २०१९ में फिरसे चुनकर आती है, तो क्या देश के १ करोड़ से ज्यादा समलैंगिक २०२४ तक अपने अधिकारों को भूल जाएँ?
अतः सरकार से अनुरोध है कि आइन्दा सं. रा. में आप समलैंगिक अधिकारों के पक्ष में वोट करें। ‘या कमसकम ऐब्सटेन करें’, यह वाक्य यहाँ लिखने का मध्यमार्ग लेने का इच्छुक हो रहा हूँ । लेकिन ऐसा करूँगा नहीं। भारत देश की सरकार से इससे कम उम्मीद नहीं रखेंगे। प्रधान मंत्री, गृह, कानून, स्वास्थ्य, विदेश और अन्य मंत्रियों से अनुरोध है कि वे समलैंगिक समाज से विचार-विमर्श करें। ‘सबका साथ, सबका विकास’ में शामिल करें। इस अपराधीकरण के तमस को ज्ञान की ज्योति से दूर करें, और समान अधिकारों की दिशा में व्यापक क़दम उठाएँ। २ दिन पहले ही उच्चतम न्यायलय ने सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धरा ६६ (ए) को रद्द किया। अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य के लिए भारत के इतिहास में यह एक मील का पत्थर था। भारतीय दंड संहिता की धरा ३७७ को इसी तरह रद्द या ‘रीड डाउन’ करें, जिससे स्व- और परस्पर अनुमति से समलैंगिक वयस्क अपने प्यार और अपनी ज़िन्दगी को पूरी तरह से जी सकें।