११.१२.१३ के सुप्रीम कोर्ट के भारतीय दंड संहिता की धारा ३७७ को बरक़रार रखने के अपने फेसले ने आपसी सहमती से हुए समलैंगिक संबंध अप्राकृतिक और गैरकानूनी ठहराए। यह मेरे और मेरे जेसे कई समलेंगिको एवं समान मानवाधिकारों में विशवास रखनेवाले व्यक्तिओ के लिए बड़े आश्चर्य की बात थी। बात केवल समलेंगिकता तक ही सीमित नहीं थी। यह निर्णय मानव प्रेम की अभिव्यक्ति पर रोक लगा रहा था। इसलिए यह केवल समलेंगिक हक़ों की ही नहीं बल्कि मानवाधिकारों की कसौटी है। विषय के इन पुर्ज़ों को मैंने और अन्य कई एल.जी.बी.टी.आई.क्यू. कार्यकर्ताओं ने मीडया के जरिये लेख, बहस और मुलाक़ातों द्वारा लोगों तक पहुचाने की कोशिश की।
पर इस विषय पर सामान्य जनता में जागरूकता लाने के लिए क्या इतना काफी है? इस दौरान मैंने वाकोला, मुंबई में स्थित हमसफ़र ट्रस्ट के संचालक, एच.आई.वी. प्रोग्राम, पल्लव पाटणकर से बात हुई। उन्होंने कहा, “यदि कुछ असरदार काम करना है तो लोगो के बीच जाकर इस मुद्दे को उठाना होगा। केवल मिडिया में बात करने से ज्यादा कुछ बदलाव की अपेक्षा करना अतिश्योक्ति होगी।” इस बात का मेरे मन पर गहरा प्रभाव पड़ा। वहाँ से लोकल ट्रेन से लौटते समय मेरे साथ कुछ मुंबई प्राइड-सम्बन्धी पत्रिकाएँ थीं, जो लोगो में बाँटी जाने वाली थीं. बस तो अब क्या था, मैंने उस सलाह का अनुकरण किया और ट्रेन में चढ़ गया। ज्यादा सोचे बिना ही लोकल ट्रेन में आने वाले सेल्समेन की तरह ट्रेन के डिब्बे के बीच मे खड़ा हो गया।
ट्रेन में ऐसे लोग अक्सर पेन, फोन कवर, इत्यादि रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में इस्तेमाल होनेवाली चीज़ें बेचते हैं। चलती ट्रेन में, दो स्टेशनों के बीच, ऊंची लेकिन विंनम्र आवाज़ में वे अपने उत्पादन के गुण गाते हैं और बैठे प्रवासियों को उन्हें खरीदने के लिए राज़ी करते हैं। लेकिन मेरे पास ऐसा कोई दैनिक जीवन में कान आनेवाला प्रोडक्ट नहीं था। मैं उन्हें ‘बेच’ रहा था सिद्धांत और कल्पनाएँ, जो बहुमूल्य हैं। वे “८ के दाम में १०” जैसी सौदेबाज़ी करके खरीदे नहीं जा सकते थे। उस ट्रेन के डिब्बे में उपस्थित लोगो से भारतीय संविधान, मानवाधिकार और समलेंगिकता के सबंध में बोलने लगा। उन्हें मुंबई क्वीयर प्राइड में आने के लिए आमंत्रण देने लगा। मेरे साथ मेरा एक मित्र भी था जो मेरी बातचीत खत्म होते ही उन पत्रिकाओ को लोगों को देने लगा।
मुम्बई उपनगरीय रेलवे विशालकाय है। ७५ लाख लोग रोज़ सुबह ४ से रात को १ बजे तक ४६५ किलोमीटर तक फैले इसके रोशन २३४२ ट्रेनों के नेटवर्क से सफ़र करते हैं। यक़ीनन, आम आदमी से संभाषण करने का मुंबई में इससे अच्छा कोई तरीक़ा नहीं है। मुझे आशा है कि जिन-जिन लोगों ने ट्रैन में मेरी बात सुनी होगी, उन सभी ने कही हुई बातों पर गौर किया जोगा, भले ही वे उससे सहमत हों न हों।
इस तरह हमने ठाणे से डोंबिवली तक ३ ट्रेन के डिब्बो में प्रचार किया। एक-आध नकारात्मक प्रतिक्रिया के आलावा ज़्यादातर लोगों ने इसमे उत्सुकता दिखाई। इस तरह मेरा ट्रेन में प्रचार अभियान शुरु हुआ। इस सकारात्मक अनुभव ने मुझे हिम्मत दी और फिर तो अकेले ही इस अभियान को करता गया। सुबह घर से निकलता और दोपहर के २ बजे तक और शाम को ५ से ७ बजे तक कैम्पेन करता। मुम्बई के मध्य रेल लाइन पर छत्रपति शिवाजी टर्मिनस से अंबरनाथ स्टेशन तक, पश्चिमी रेल लाइन पर चर्चगेट से बोरीवली स्थानकों तक यह प्रयोग किया। इस दोरान मुझे कई कड़वे-मीठे अनुभव हुए। पर एक बात मुझे पक्के तौर से पता चली की हमारे समाज में समलेंगिकता के प्रति बड़ा आज्ञान है। लेकिन वह अज्ञान हमारे प्रयत्नों से हम ज़रूर कम कर सकते है।
अब तक लोगों को ‘समलैंगिक’ और ‘ट्रेन’ इन दो शब्दों को एक वाक्य में लाने को कहें, तो वे ‘२ बाई २’ की बात करेंगे। यह ट्रेनों में एक पूर्वसूचित डिब्बा होता है, जिसमें कुछ समलैंगिक दफ्तर से आते या जाते समय एक दुसरे से मुलाक़ात कर, भीड़ का फायदा उठाकर एक दुसरे के साथ शारीरिक संपर्क बनाते हैं। इसलिए लोकल ट्रेनों में शायद ऐसे पहली बार हुआ होगा, कि कोई समलैंगिक अपनी पहचान ज़ाहिर तौर पर बताकर, भारतीय संविधान कि बात करके विषमलैंगिक बहुसंख्यकों का ध्यान आकर्षित कर रहा हो!
इस ट्रेन केम्पेन के साथ-साथ मैंने मुंबई रेलवे पोलोस को भी इस सबंध में जागृत करना उचित समझा। इसलिए मैं रेलवे पुलिस स्टेशन पर जाकर वहाँ के अधिकारियों से मुलाकात की। उन्हें समलेंगिकता, सर्वोच्च नायालय का अयोग्य फेसला वगैरह के बारे में अवगत किया। प्राइड में आने के लिए भी आमंत्रण दिया। इन दोनों अभियानो को मैंने अपने गुजरात में बिठाये समय के दोरान भी दोहराया। अहमदाबाद, राजकोट, गोंडल, जूनागढ़ इन शहरों की ट्रेन और बसों में लोगों को समलैंगिकता के प्रति जागृत करने का प्रयास किया।
इन यात्राओं के दोरान मुझे ऐसे व्यक्ति भी मिले जो मेरी बातो से सहमत नहीं थे। उनको मेरा यह कार्य अच्छा नहीं लगा। कई लोग तो ऐसे व्यवहार करते थे जैसे कि में जेसे कोइ अपराधी हूँ। कुछ गालिया भी सुनने को मिली। पर यह सारी बाते मेरे मनोबल को गिरा नहीं सकीं। में मानता हूँ कि नियति ने मेरा काम निश्चित करके रखा है। मेरा काम लोगों तक बात पहुँचाना है। उन्हें समझाना है, उनके प्रश्नों का संतोषकारक जवाब देना है और यदि इनमे से कोइ एक व्यक्ति में भी बदलाव आता है तो इस प्रयास को सफल मानूंगा।
कुछ अनुभव: मुंबई में एक ५० वर्षीय व्यक्ति ने मुझसे चर्चा करनी चाही। हमने कई देर तक इस विषय पर बात की। उनका मत था कि यह प्रकृति के खिलाफ है, क्योंकि समलैंगिक शारीरिक सबंध में हम मानवीय अवयवो का दुरूपयोग करते हैं। मैंने उन्हें कई तरह से समझाने की कोशिश की पर मैं असफल रहा। फिर एक बार दादर स्टेशन पर एक महिला मेरे पास आकर मुझसे बातें करने लगी। उसका बेटा एक समलैंगिक है, पर वह उसे सवीकार नहीं कर पाई क्योंकि उन्हें समलैंगिकता के बारे में कोइ विशेष जानकारी नहीं थी। उन्हें जो भी पता था वह फिल्में और टी.वी.पर दिखाए जाने वाले कार्यक्रमों के अनुसार था, जो सत्य के काफी दूर है। उन्होंने मुझे उनके घर आके उनके पति और दुसरे परिवार के सदस्यों से बात करने का आमंत्रण भी दिया और प्राइड के दोरान वह अपने बेटे के साथ आये थे!
गुजरात में यह काम करते समय मुझे जूनागढ़ स्टेशन पर पुलिस द्वारा गाड़ी से नीचे उतारा गया। और मुझे रेलवे पुलिस थाने में ले जाया गया। वहाँ के इंस्पेक्टर ने मेरे और मेरे इस प्रयोग में बारे में काफी देर तक पूछताछ की। फिर उन्होंने यह कहकर मुझे छोड दिया कि मुझे अगली बार इस प्रयोग को करने के लिए स्थानिक रेलवे प्रशासन की मंजूरी लेनी पड़ेगी। एक-आध बार तो कुछ लोगो ने मेरा पीछा भी किया था। कई लडको ने कुछ ताने कसें और मजाक उड़ाया। पर इन सारी बातो का मैंने अपने मन पर प्रभाव पड़ने नहीं दिया। यदि एक भी व्यक्ति के विचारो में परिवर्तन आया होगा तो यह सफलता होगी। वह एक टी.वी. विज्ञापन कहती है ना, ‘देश बदलेगा, जब हम बदलेंगे’!