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Hindi

गे होना या ना होना…

By शबाना (Shabana)

January 07, 2020

मेरे बॉय फ्रेंड्स थे। मैं एक दो के साथ रोमेंटिकली साथ भी थी। इन सब प्रयोगों के बाद मुझे विश्वास हो गया कि मेरा रुझान मर्दों में नहीं है। मेरे कुछ दोस्तों ने बातों-बातों में इस परिस्थिति को ऐसे समझने की भी कोशिश की, “क्योंकि दुनिया में मर्दानगी ने इतना गंद मचाया है कि कोई भी उनसे प्रेम नहीं कर सकता। पर ये सामाजिक परिस्थिति है ना कि जैविक, या प्राकृतिक।” ये इस तरफ इशारा था कि अच्छे मर्द भी होते हैं, जिन्हें ढूँढने में मेहनत लगती है और ये उससे बचना चाहती है। मैं काफी दिनों तक सोचती रही कि क्या ये समलैंगिकता प्राकृतिक है, या फिर मैंने अपने दिल-दिमाग- शरीर को इसके लिए ट्रेन कर लिया है? और क्या इसका मतलब ये हो सकता है कि मैं चाहूँ तो अनुभवों के ज़रिये खुद को किसी भी तरह ट्रेन कर सकती हूँ? समलैंगिकता की तरफ भी, और विषमलैंगिकता की तरफ भी?

उटाह युनिवेर्सिटी की प्रोफेसर लिसा डायमंड बताती हैं कि ये सवाल – ‘लैंगिकता जन्मजात है या सामाजिक अनुभवों से उपजी हमारे दीमाग की देन है?’- कई स्तर पर समस्यापद है: एक तो ये अवैज्ञानिक है – लैंगिकता जन्म के समय तय नहीं हो जाती। इसका कोई प्रमाण नहीं है कि एक व्यक्ति अपने पूरे जीवन में एक ही लैंगिकता की रहेगी। हालाँकि इसका मतलब कतई भी ये नहीं है कि लैगिकता को बदला जा सकता है (ये कोई बीमारी नहीं जिसका उपचार किया जाये)। बस ये कि लैंगिकता का ‘चुनाव’ फ्लूइड होता है, जिसमे उम्र और अनुभव के साथ बदलाव की पूरी गुंजाईश रहती है। दूसरा पहलु है कि ये सवाल संविधानिक रूप से गैर ज़रूरी है। डायमंड बताती हैं कि भले ही हम LGTB समुदाय के लोग चिल्ला रहें हों कि हम ऐसे ही जन्मे थे, इस चुनाव में हमारा कोई दोष नहीं – पर अदालतें हर फैसले में उनसे कहती हैं कि इस बात से हरगिज़ कोई फर्क नहीं पड़ता। किसी के भी साथ नाइन्साफ़ी नहीं होनी चाहिए चाहे वे अपने चुनाव से LGTB हों, चाहें कुदरत से। ये सवाल, और इसके विपरीत दलील – दोनों ही बुनियादी रूप से अन्यायपूर्ण है। असल में अगर हम कहें कि इसमें हमारा कोई दोष नहीं है कि हम ऐसे हैं- तो हम ऐसा होने को एक विकार, एक दोष मान रहें हैं। और कह रहे हैं कि हमारे बस में होता तो शायद हम इसे बदल देते!

मैंने खुद से ये सवाल पूछा – क्या मैं नैसर्गिक रूप से फीमेल की तरफ आकर्षित हुई, या मेरे अनुभवों के कारण? 16 साल की उम्र के आसपास जब मैं किताबें खरीदने जाती थी तो वो अंकल मुझे याद है – वो बहुत मोटे थे। और गर्दन उनके सीने में पूरी धसी हुई थी। ये भी याद है कि एक बहुत गोरी चिट्टी सजी धजी महिला वहीँ काउंटर पर बैठी रहती। सब शायद ये ही मानते थे कि वो उनकी पत्नी थी। दूकान में दो – तीन लड़के भी काम करते थे। चुस्त दुरुस्त पतले और लम्बे। उनकी दूकान पर साल भर बहुत भीड़ रहती। वो अंकल अक्सर महिला ग्राहकों व लड़कियों को अपने पास बुला कर खड़ा कर लेते थे। ऐसा नाटक करते कि वो उनकी बात जल्दी सुनना चाहते हैं जिससे कि उन्हें भीड़ में इंतज़ार ना करना पड़े। फिर पास बुलाकर वो उनके बदन पर हाथ लगाते। ये सब ऐसे जैसे उन्हें खबर ही नहीं। मुझे नहीं पता की इतना घिनोना बर्ताव हम क्यों सहते थे। दूकान के लड़के कभी इस तरह की बदतमीज़ी नहीं करते थे। मैं उन्हें ग़ोर से देखती, उनकी आँखें नीची होती। पता नहीं जैसे वहाँ कुछ बड़ी गड़बड़ थी जिसे वो जानते थे पर स्वीकार करना नहीं चाहते थे।

असल में अगर हम कहें कि इसमें हमारा कोई दोष नहीं है कि हम ऐसे हैं- तो हम ऐसा होने को एक विकार, एक दोष मान रहें हैं। और कह रहे हैं कि हमारे बस में होता तो शायद हम इसे बदल देते!

मुझे किताब पर वो १०% डिस्काउंट और भी देते। फिर मुझे पता लग गया कि मेरी पसंद की किताबें वो गोदाम से मँगवाते हैं। जो की चार पाँच दुकानें छोड़कर है। मुझे आता जाता देख वो रस्ते से ही आवाज़ देकर बुला लेते। फिर मैं उन्हें दूर से बोलती कि किताबे लेनी है, इसलिए भैया को गोदाम में भेज दो। वहाँ खरीददारी करके मैं चली आती। पर पूरा समय जैसे भयावह सपना होता। बस किसी तरह बिना दुर्घटना पूरा हो जाये यही कामना करती।

ये बस एक उदाहरण है। ऐसा अक्सर बसों में, बस स्टॉप पर इंतज़ार करते, गली मोहले में, ट्रेन में, मंडी में, कहीं भी हो जाता। यहाँ तक कि एक बार नाटक की तय्यारी करते वक़्त एक सहपाठी तो भीड़ के सीन की रिहर्सल करते वक़्त ही अपने विवश भावनाओं के लिए मुझसे चिपटने लगा। कहाँ मिलते हैं सही किस्म के मर्द? मैंने अगर आज तक घड़ी के समय को घर से निकलने या लौटने का इशारा नहीं माना और अगर मैं मेह्फूस लौट के आ जाती हूँ तो ये मेरी हिमाक़त है, अच्छे किस्म के मर्दों की मेहेरबानी नहीं। कहीं ये तीखा (पर अपरिपक्व) नारीवाद तो मेरी लैंगिक चुनाव की जड़ नहीं?

ये अनुभव बनाम जैविक की पहेली सिर्फ लैंगिकता ही नहीं, बल्कि हमारे विकास के हर आयाम में दिखती है- शारीरिक, संज्ञानात्मक (जिसमे नैतिक, और कलात्मक विकास भी शामिल है)। अगर हम कुछ लोकप्रिय वेब सीरीज पर नज़र डालें जिनमे लैंगिकता पर फोकस है तो ये गुत्थी रोचक मोड़ ले लेती है। जैसे कि एमाज़ौन प्राइम की “वन मिसिसिपी” में एक्टर टिग नटेरो की आप बीती पर आधारित लिखे गए गे करेक्टर की ही तरह जानी मानी कलाकार एलेन डे जेनेरस और “ननेट” नाम के एन्टी-कॉमेडी शो से चर्चा में आई कलाकार और कला की अध्येता हैना गेड्सबी दोनों ही अपने निजी जीवन में यौन उत्पीड़न का शिकार हुईं। वहीँ दूसरी तरफ, “ट्रांसपेरेंट” एक अमरीकी यहूदी परिवार की कहानी है जहाँ उनके परिवार के लगभग सभी सदस्य लैंगिक असंतोष से गुज़र रहें हैं, और साथ ही साथ बचपन में यौन उत्पीडन का भी शिकार हुए हैं। जिससे उनके बच्चे लैंगिक – मानसिक उथल पुथल के जैविक और साथ-साथ भौतिक उत्तराधिकारी होते हैं। ये लिस्ट कहीं से भी पूर्ण नहीं है- और बस इन्ही गिने चुने किरदारों के आधार पर कुछ कहना गलत होगा, और इसके विपरीत भी कई उदाहरण हमें हमारे आस-पास और साहित्य में मिलते हैं। पर इतना तो तय है कि ये कहानियाँ प्रोफेसर डायमंड के तर्क की जटिलता को बखूबी दिखाती हैं।

मेरे एक और बॉय फ्रेंड ने तो मेरे नखरे बहुत झेले (मसलन, वो मुझे गाड़ी से लाता व छोड़ता, हम शहर घुमते, दोस्तों के साथ घुलते-मिलते। पर सेक्स के एक दो मौकों में उसे यकीन हो गया कि मैं उसमे दिलचस्पी नहीं ले रही हूँ। उसने समझाने फुसलाने की कोशिश नहीं करी, ना ही मेरे व्यवहार को लेबल किया, जिसके लिए मैं उसकी इज्ज़त करती हूँ। इसी के साथ-साथ बचपन से ही महिलाओं के तरफ आकर्षण अब मुझे और साफ़ दिखने लगा। अभी तक मैंने जिसको भी अपने लेस्बियन होने के बारे में बताया है, कहीं से भी घृणा, तिरस्कार ऐसा भाव नहीं महसूस किया है। बल्कि नज़दीकियाँ बढ़ी ही हैं, मेरी विश्वास ना करने की प्रवृत्ति में बदलाव आया है। पुरुष मित्रों से दोस्ती और गहरी हुई है। पहले असहज होता था, अभी भी होता है महिला मित्रों के साथ सावधानी से दोस्ती बनाये रखना। पर दोनीं ही मामलों में ऐसा कुछ नहीं जिससे विषमलैंगिक लोगों को ना गुज़रना पड़ता हो। हर रिश्ते की अपनी सीमा और नैतिकता होती है। इतना भी मुश्किल नहीं है इसे समझना- दुसरे व्यक्ति पर अपना स्वामित्व कभी किसी हाल में ना समझना – ये लोकतांत्रिक मूल्य है- इसका प्रशिक्षण तो ज़रूरी है।

मुझे इन सब कहानियों और विचारों से सवाल का उत्तर तो नहीं मिला, पर ये ज़रूर पता चला कि किसी भी पहलू को दो ध्रुवों में ना देखा जाये। बाइनरी अंक से कंप्यूटर चल सकते हैं, इंसान नहीं। गे होने या न होने का सवाल न्याय से शुरू होकर लोकतांत्रिक मूल्यों तक पहुँचा है। ये ज़रूरी है क्योंकि इससे हम किसी भी लैंगिकता को सामान्य और आधुनिक परिप्रेक्ष का हिस्सा समझ कर अपनाएँगे।