हमारे ‘इस रात की सुबह है’ इस मज़मून के अंतर्गत, लेखिका अपूर्वा कटपटल ने नागपूर के २३ वर्षीय अविनाश की आपबीती को अनुलेखित किया है:
कहते है हर इंन्सान में कुछ ऩ कुछ अलग होता है। किसी को खुबसुरत चेहरा, तो किसी को आकर्षक शरीर इत्यादि कुदरत देती है। हम उस विशेषता को कुदरत की देन समझकर अपना भी लेते हैं। हम जैसे हैं, वैसे खुद को सही, ठीक, अच्छा मानने लगते हैं। परन्तु शरीर के साथ एहसास भी हमें कोई और नहीं, कुदरत ही देती है।
किसी लड़के को लड़की से प्यार होना, आकर्षण होना, यह भी कुदरत का नियम कहा जाता है। लेकिन बात एहसास की है तो मैं अपने बारे में बताना चाहूँगा। क्योंकि मुझे लगता है कि मैं इन सब बातों के मामले में थोडा अलग हूँ।
मैं अविनाश हूँ। भारत के नागपुर शहर से २३ साल का लड़का हूँ। मै भी सभी लड़को की तरह बड़ा हो रहा था, शायद मैं तब १४ साल का था जब मुझे खुद में कुछ अलग होने का एहसास हुआ। वह ठीक-ठीक क्या बात थी मैं समझ न सका। वैसे देखा जाए तो मुझे मेरे दोस्तो के साथ खेलना-कुदना,पढ़ाई करना अच्छा लगता था।
समय के साथ बड़े होते हुए मैं १६ साल का हुआ। एक ओर सबकुछ बदलने लगा था। स्कूल में लड़के-लड़कियों में बाते करने के अंदाज बदलने लगे थे। कुछ लड़को की लड़कियों के साथ पनप रही दोस्ती प्यार में तबदील होने लगी थी। उस समय मैं जब ख़ुद को इन सब मामलो में जांचता तो अपने आप को सबसे भिन्न ही पाता। सोचता था कि मेरे मन में लड़कियो को लेकर वे खयाल क्यों नहीं आते? अब मन में उलझनें बढने लगी। जो एहसास मैंने अपने आप में आयु के चौदहवे साल में महसुस किया था वह आखिरकार उभर कर सामने आने ही लगा था।
मैं लड़कियो के बजाय लड़को की और आकर्षित होने लगा था। मन में डर-सा लगने लगा: अगर किसी को मेरे बारे में कुछ पता चला तो? लोग क्या कहेंगे? मेरे घरवाले क्या कहेंगे? कभी लगता था कि शायद यह चन्द्रमा की कला की तरह एक अस्थायी चरण हो, जो भविष्य में बदल जाए। इन सब बातो की वजह से मैं बेचैन-सा रहने लगा। जब अपने दोस्तों को, भाईयों को देखता, तो मन ही मन घुटन होती। मन ही मन रोता था कि आखिर ऐसा मेरे साथ ही क्यों? क्यों मुझे भगवान ने ऐसा बनाया? रात को सोते-सोते रो देता था।
अब मैं १८ साल का हो चुका था। जो वहम थे वे टूटने लगे थे। जो एहसास १४ वे साल में जगा था आज भी वह वैसा ही था। आज भी याद है मुझे। मैं इतना खिन्नचित्त था, किसी से भी बात न करता था। अकेले रहने लगा था। बस यही विचार आता, कि क्या होगा मेरा? कहीं मैं जीवन-भर अकेला तो नहीं रह जाउंगा?
एक दिन कॉलेज से घर आया। मन में वही खयाल, वही बेचैनी, कुछ समझ नही आ रहा था कि क्या करूँ? उस समय मैं घर पर अकेला था। माँ की साड़ी ली, टेबल पर चढ़कर छत पर कंटिये से बाँधी और गले में लटकाई। मेरे पैर थरथराने लगे। पसीने से लथपथ हुआ। बस पैरों के नीचे से टेबल सरकाने की देरी थी कि मन मे खयाल आया: अगर मैं मर गया तो मेरी माँ का क्या होगा, जो मुझे इतना प्यार करती है?
आज मुझे मेरी जिंदगी वापस मिली है। मैं जैसा हूँ उसमें मेरा क्या कुसूर है? मुझे मेरे एहसास कुदरत ने ही तो दिए हैं न? उस समय पहली बार मैंने खुद के बारे में सोचा। मानो उस दिन मेरी जिंदगी मुझे वापस मिली गई। उस दिन मैंने खुद को अपनाया, स्वीकार किया था। अब खुद को संभालना शुरू किया। जानता भी न था कि मेरे जैसे दुनिया में और भी लोग होंगे। बाद मे इन्टरनेट पर सोशल मीडिया के ज़रिए मेरे जैसे और भी लोगों से मिला।
जी हाँ। मैं समलैंगिक हूँ और अपनी लैंगिकता से खुश हूँ।
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