पिछले दिनों एक म्युज़िक वीडियो रिलीज़ हुआ जो समलैंगिकता को मानवाधिकारों के दायरे में पेश करता है। बात कर रहा हूँ “स्वागत” (‘द वेलकम’) की। संयुक्त राष्ट्र के ‘आज़ाद और सामान’ कैम्पेन के अंतर्गत बनाया गया यह वीडियो समलैंगिक अधिकारों के लिए बना पहला बॉलीवुड विडिओ माना जा रहा है। ‘मिस इंडिया’ ख़िताब की गत-विजेता और अभिनेत्री सेलीना जेटली पर फिल्माए गए इस वीडियो के संगीत और बोल “बातों बातों में” इस १९७९ की फिल्म के ‘उठे सबके क़दम’ इस गीत सेहैं। संगीत राजेश रोशन का और बोल अमित खन्ना के हैं। इसे ‘बॉम्बे वाइकिंग्ज़’ ने रीमिक्स किया है। उस फिल्म में भी एक दादी थी, जिसका किरदार दीना पाठक ने बख़ूबी निभाया था। ‘बातों बातों में’ इस फिल्म में उन्हें इस बात से ऐतराज़ था, की उनकी पोती नैन्सी से मिलने और उसे घुमाने टोनी नाम का लड़का आता था। वह भी उन्ही की बिरादरी से था, लेकिन उस समय और सन्दर्भ के अनुसार उसका और नैन्सी का बर्ताव निर्धारित नियमों के बाहर था। इसलिए दादी की स्वीकृति में थोडी सी अनिच्छा मौजूद थी। इससे प्रतीत यह होता है की भले ही प्रेम विषमलैंगिक हो, और मज़हब की सीमाओं के अंदर हो, अगर उसपर काबू, उस पर परम्परागत नैतिक मूल्यों का नियंत्रण डामाडोल होता है, तो यह बात आसानी से हज़म नहीं होती! मगर उस वक़्त पर्ल पदमसी का किरदार ‘रोज़ी’ इन दो पीढ़ियों के बीच का फैसला मिटाते हुए, उनका ध्यान अपेक्षाओं और सपनों की तरफ लाकर उनको रिझाती हैं।
जब दादी कहती हैं, “रूप है रंग नया है, रंग नया है, जीने का तो जाने कहाँ ढ़ंग गया है”, ऐसा लगता है की आज की तारीख़ २०१४ में समलैंगिकता के विरुद्ध पेश की जानेवाली बातों को वे ३५ साल पहले कह रहीं थीं! उन दोनों के आत्मविश्वास और एक दुसरे के साथ के बेझिझक बर्ताव से उन्हें आपके स्थापित मानदंडों को हानि पहुँचती है। लेकिन टोनी और नैन्सी का जवाब भी वह है, जो आज का एल.जी.बी.टी. समुदाय, समाज को देता है अपनी स्वायत्तता और प्यार करने के अधिकार के बारे में। “किसे है फ़िक्र, किसे क्या पसंद, प्यार के जहां में रज़ामंद जब हम तुम!” और प्राइड मार्च में बिना नक़ाब के चलने वालों के निडर रवैय्ये के साथ: “तुम-हम बन गए हैं सनम बेधड़क मेरे घर आया करो, कभी ख़ुशी कभी गम तारा-रम-पम-पम हँसो और हँसाया करो!” इस तरह इन दो लोगों का प्यार परिवार के दायरे के भीतर आ जाता है, और उसे स्वीकृति मिलती है, और यह ‘तद्दन’ भारतीय सकारात्मक तरीका है, समलैंगिकता को स्वीकार करने का।
संयुक्त राष्ट्र का ‘द वेलकम’ वीडियो शुरू होता है, एक आलीशान घर में हो रही शादी की तैयारियों से। एक नौकर फोन पर बताता है, “आज बिटिया आनेवाली है, अपने उनको लेकर’। यशराज फिल्मों में दिखाई जानेवाली शादियों की तरह यहां भी विषमलैंगिकता और पारम्पारिक विधि-रस्मों के दृश्यों से हमारी अवचेतन रूप से अपेक्षा बनती है दूल्हा-दुल्हन की। एक तम्बू के अंदर एक दादाजी छुपकर लड्डू खा रहे होते हैं। जब एक बच्चा उन्हें देखता है तो वे उसे इशारे से चुप होने को कहते हैं और वह मान जाता है। भारतीय दंड संहिता की धरा ३७७ विषमलैंगिकों को भी लागू होती है, लेकिन छुपकर लड्डू खाने वाले दादा की तरह उनके ‘अप्राकृतिक’ संबंधों को दंडनीय नहीं समझा जाता, उनके पीछे सरकार और पुलिस नहीं पड़ती। एक दुसरे को आँख मारकर वे अपराध में सहभागिता का तो जश्न मनाते हैं। जब दूल्हे की गाडी मंडप में आ पहुँचती है, सारे परिवार वाले उनका स्वागत करने इकठ्ठे खड़े हो जाते हैं। मगर उसके साथ दुल्हन नहीं, एक दूसरा दूल्हा खड़ा हो जाता है। सारे अचंबित हो जाते हैं। जब २ लड़के एक दुसरे का हाथ थामते हैं तो दादी की आँखें टमाटर की तरह बड़ी हो जाती हैं। पर्ल पदमसी के ‘रोज़ी’ किरदार की तरह सेलीना का किरदार भी सख्त-दिल दादी को मनाने में लग जाता है। दादी, जो घर के कुत्ते को भी अपनी नज़रों की तीक्ष्णता से काबू में रखतीं हैं, पिघल जाती हैं, उन्हें आशीर्वाद देतीं हैं और गले मिलतीं हैं। और दूल्हे-दूल्हे का स्वागत करती है। आज्ञाधारक परिवार भी अनुकरण करता है और सब लोग एक साथ फ़िल्मी ढ़ंग से नाचना शुरू करते हैं। चतुराई से “जीने का तो जाने कहाँ ढ़ंग गया है”, इन शब्दों को “जीने का तो देखो यहां ढ़ंग नया है” में तब्दील किया गया है।
वीडियो की बहुत प्रशंसा हुई है। संयुक्त राष्ट्र की तरफ से जब सामान अधिकारों का, और समलैंगिक अधिकार मानवीय अधिकार होने का सन्देश जानता है, तो सरकार पर और आम लोगों पर उसका निश्चित सकारात्मक परिणाम होगा, क्योंकि संयुक्त राष्ट्र कि लिए लोगों में बड़ी इज़्ज़त है। गाने का चयन भी उचित है, उसके बोल प्रासंगिक हैं। इस वीडियो की कुछ वजहों से आलोचना की गई है। पहली वजह है वर्ग की। क्या समलैंगिक अधिकार उन्हीं सामाजिक वर्गों के लिए है, जो ताक़तवर हैं और अपनी प्रतिष्ठा के बल पर औरों से इज़्ज़त हासिल कर सकते हैं? कइयों को लगता है की यह तथाकथित ‘करण जौहर छाप’ दुनिया नक़ली है, और उसका इस्तेमाल संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्था द्वारा वाज़े नहीं। सब लोग धनवान, सब लोग गोरे। क्या यह वीडियो, एक प्रकार के पूर्वग्रह को दूसरे प्रकार के पूर्वग्रह से लड़ने की कोशिश कर रहा है? क्या यह महज़ सामाजिक विशेषाधिकारों के पुनर्वितरण का संकेत है, अमीर विषमलैंगिकों से अमीर समलैंगिकों तक? लेकिन औरों का कहना है कि ‘के-जो स्टाइल’ सिर्फ एक ऐसी पृष्ठभूमि है, जिससे भारतीय दर्शक वाक़िफ़ हैं, और इस वजह से उन्हें यह सन्देश समझने में आसानी होगी।
दूसरी आलोचना है पुरुष प्रधानता और पितृसत्ता के विरुद्ध। क्या दुनिया सिर्फ मर्दों, और उनकी ज़िन्दगियों के मुद्दों के लिए बनी है? क्या औरतों का काम सिर्फ मर्दों की ज़िन्दगियों को उलझाना या सुलझाना है? और तीसरी आलोचना है पुरुष समलैंगिकों के प्राधान्य की। लेस्बियन, ट्रांस स्त्रियां, ट्रांस पुरुषों, उभयलैंगिकों को भी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में गेज़ की तरह, शायद उनसे ज़्यादा भेदभाव का सामना करना पड़ता है। क्या यह वीडियो उनका प्रतिनिधित्व नहीं करता? लेकिन इसका जवाब यह भी हो सकता है की एक म्युज़िक वीडियो का ३ मिनट का ढाँचा है, और उसके अंदर आप हर चीज़ को शामिल नहीं कर सकते। बहरहाल, १६४ सेकंडों में यह वीडियो निश्चित रूप से अपना समलैंगिक-सकारात्मक संदेश संचारित करता है।
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