‘राइट टू लव’ एक ऑनलाइन प्रोजेक्ट है। एक कोशिश जिसका मक़सद समाज को ये बताना है कि लोगों को अपनी मर्ज़ी से प्यार करने का अधिकार होना चाहिए। साथ ही इसके ज़रिये ये दिखाना कि समाज के एक बड़े वर्ग को अपने जेंडर और यौनिक अभिरुचि के चलते किन परेशानियों का सामना करना पड़ता है। ये तमाम कहानियां मानवीय कहानियां हैं। जिसमे लोग अपने अनुभव बांटते नज़र आते हैं।
इस प्रोजेक्ट की नींव जामिया मीलिया इस्लामिया से पत्रकारिता कर चुके तीन पूर्व छात्रों करण धर, ताहिर और करणदीप सिंह ने मिलकर रखी है। हमने बात की इसी प्रोजेक्ट से जुड़े एक सदस्य करण सिंह से। पेश है बातचीत के अंश:
करण के मुताबिक़ इस प्रोजेक्ट को शुरू करने का ख्याल उन्हें पहले से था लेकिन, ११ दिसम्बर २०१३ को समलैगिकता पर आये सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से उन्हें इस बात का यक़ीन हो गया कि यही सही वक़्त है इस प्रोजेक्ट के ज़रिये लोगों तक पहुंचने और इन कहानियों के ज़रिये उनकी सोच बदलने की कोशिश करने का। ताकि समाज में मौजूद लोगों की यौनिक विविधता को अपनाया जा सकें। जिसके चलते इन तीनो ने अपने कॉलेज प्रोजेक्ट के तौर पर इसी मुद्दे को शामिल करने का फैसला किया। करण कहते हैं “लोगों को अगर अपनी मर्ज़ी से प्यार करने का अधिकार नहीं है तो जीने का अधिकार एक तरह से बेमानी हो जाता है”। समलैंगिकता पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर करण बताते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले से लोगों को धक्का ज़रूर पहुंचा। एक उम्मीद टूटी जो उन्हें दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले के बाद जगी थी। जिसका कुछ असर उन्हें अपने इस प्रोजेक्ट पर भी दिखा। करण बताते हैं कि जब उन्होंने कुछ लोगों से संपर्क करना चाहा तो उनकी बातों में एक डर भी था कि कहीं इससे उनकी पहचान ज़ाहिर होने पर उन्हें किसी तरह की क़ानूनी परेशानी में न उलझना पड़े।
करण कहते हैं ये कहानियां काफ़ी संवेदनशील है और मुश्किल भी, इसलिए इस बात का ख्याल रखना काफी ज़रूरी था कि हम व्यक्ति की निजता का भी ख़याल रखें। उनके मुताबिक इन कहानियों के ज़रिये वो ये दिखाना चाहते थे कि यौनिक अल्पसंख्यक भी समाज का हिस्सा है। इस तबक़े को भी बराबरी के अधिकार मिलने चाहिए। साथ ही ये बताना कि इन लोगों को किन परेशानियों का सामना करना पड़ता है! क्योंकि जब तक वो इन्हें जानेंगे नहीं सोच नहीं बदलेगी।
प्रोजेक्ट से जुड़े अपने अनुभव पर करण बताते हैं कि उन्हें इसमें सलीम किदवई और शोहिनी घोष का काफ़ी साथ मिलता रहा। इसके अलावा रेफरेंस के तौर पर रुथ वनीता और सलीम किदवई की लिखी किताब ‘सेम सेक्स लव इन इंडिया’ से भी काफ़ी मदद मिली। करण से बातचीत के दौरान हम उनसे एक सवाल पूछने से खुद को रोक नहीं पाए। हमने उनसे पूछा कि अभी तक की तमाम वीडियो को देखने पर हमें सिर्फ धनाड्य /उच्च परिवार के लोग और साथ ही एक ही जेंडर और यौनिकता के लोग क्यों नज़र आते हैं। इनमें ट्रांसजेंडर ,लेस्बियन और बाक़ी लोग क्यों शामिल नहीं किये गये ?
करण कहते हैं कि क्योंकि ये एक कॉलेज प्रोजेक्ट के तौर पर शुरू किया गया कार्यक्रम था इसलिए इसमें समय सीमा निश्चित थी। जिसके भीतर हमें अपना काम करना था। उनके मुताबिक़ भारत में एल.जी.बी.टी.क्यू.आई. समूह काफ़ी विविध है। यहाँ कोथी/पंथी शिवशक्ति जैसा समूह भी है। असल में वो गे, लेस्बियन, ट्रांसजेंडर, एम.टी.एफ़ और दूसरी कहानियों और अनुभवों को शूटकर शामिल करने की कोशिश में थे। दूसरे छोटे बड़े शहरों से भी वो ऐसी कहानियां शामिल करना चाहते थे, लेकिन फ़िलहाल सीमित साधनों के चलते उनतक पहुंच पाना थोडा मुश्किल रहा। लेकिन वो सोशल मीडिया के ज़रिये उनके संपर्क में हैं और आगे के एपिसोड में दूसरे जेंडर को शामिल करने की पूरी कोशिश कर रहे हैं। अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए करण कहते हैं कि लोग चाहें तो आगे आकर अपनी कहानियां हमारे साथ बाँट संकते हैं क्योंकि ये वक़्त पीछे रहने का वक़्त नहीं है।
सोशल मीडिया के ज़रिये लोगों से जुड़ने के अलावा इन कहानियों को ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुंचाया जा सके इसके लिए वो इनकी पब्लिक स्क्रीनिंग करने पर भी विचार कर रहे हैं।
पेश है ‘राईट टू लव’ की पहली, दूसरी और तीसरी उपकथाएँ।
- “प्रतिनिधित्त्व या अभिव्यक्ति?” - September 30, 2014
- प्यार करना, एक हक़ – मुलाक़ात, ‘राईट टू लव’ प्रोजेक्ट - July 24, 2014
- जीने की राह, ‘जीना’ की - June 1, 2014