– अक़ीला ख़ान
तुम्हारी नज़र मुझमे ऐसी गड़ी ठिटक कर मैं साकित-सी रह गई खड़ी कोई नश्तर-सा पेवस्त बदन में हुआ निगले जाने का अहसास तन में हुआ
वार तूने हवस का किया तीर से मैंने तोडा वह हिम्मत की शमशीर से तुमने सोचा कि शायद मैं डर जाऊँगी होकर दोहरी शर्म से मर जाऊँगी
तेरी गलती भुला दूँ ये ठाना मैंने चाहा कुव्वत को अपनी आजमाना मैंने अपनी नफरत नज़र से बयाँ कर गई तीखे तेवर में बढ़कर अयाँ कर गई
मेरी हिम्मत पर तू जो खटक-सा गया बोझ तेरी नज़र का झटक-सा गया
शब्दार्थ: साकित: बुत (मूर्ति) बन जाना नश्तर: तीर पेवस्त: चुभना शमशीर: तलवार दोहरी: बेहाल अयाँ: ज़ाहिर
-यह कविता आवाज़-ए-निसवां संस्था द्वारा प्रकाशित ‘बे-बाक क़लम’ कविता संग्रह में प्रकाशित हुई।