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यौन विज्ञान शिक्षा और यौनिकता

Sex education

यौन विज्ञान शिक्षा; छाया: बृजेश सुकुमारन

सिर्फ एलजीबीटीआई विषयों पर काम करना पर्याप्त नहीं होगा। एक समग्र दृष्टिकोण लेकर, यौन विज्ञान शिक्षा देना भी महत्त्वपूर्ण है।

प्रजनन या लैंगिक स्वास्थ्य पर अगर बात करें तो सबसे पहले ‘रा. धो. कर्वे’ जी का नाम लेना होगा। समाज से तगड़े विरोध के बावजूद उन्होंने इन विषयों पर अहोरात्र काम किया और ‘समाजस्वास्थ्य’ नामक मासिक अनेक वर्षों तक चलाया। पश्चात, दूसरी कई संस्थाओंने इस विषय पर काम शुरू किया। लेकिन मुख्यतः उनके काम का केंद्रबिंदु परिवार-नियोजन होने से ध्यान औरतों पर केंद्रित था। मासिक धर्म (पीरियड), गर्भवती होना, गर्भ-निरोध के साधन, भविष्य में बच्चा नहीं होने के लिए सर्जरी – इन मसलों पर औरतों को जानकारी दी जाने लगी। जब एचआईवी के फैलाव ने ज़ोर पकड़ा तब निरोध इस्तेमाल करने का महत्त्व बढ़ा। ‘एचआईवी कौनसे यौन कृत्यों से फैलता है?’ इत्यादि बातों पर चर्चा होने लगी। इस सब के चलते सामाजिक संस्थाओं को अहसास हुआ कि यौनिकता (सेक्शुअलिटी) और जेंडर पर किशोरों के साथ काम करना बहुत ज़रूरी है। क्यों? क्योंकि औरतों के साथ बराबरी का सुलूक करना, उन्हें इज्ज़त देना, अपनी यौनिक ज़रूरतों को समझते हुए औरतों का भी संवेदनशीलता से ख़याल करना ये सब बातें उनके काम से क़रीबी ताल्लुक़ रखतीं हैं। अतः इन मुद्दों पर लड़के-लड़कियों के साथ कार्यशालाओं का आयोजन पुणे में होने लगा।

इस क्षेत्र में मेरे पदार्पण की कहानी कुछ इस तरह है। मैंने समपथिक ट्रस्ट साल २००० में शुरू की। तब मैंने समलैंगिक लड़कों की ‘सपोर्ट ग्रुप मीटिंग’ का आयोजन किया. मीटिंग्स में हो रही चर्चा से स्पष्ट हुआ कि इन लड़कों को अपने जननेंद्रियों (सेक्शुअल ऑर्गन्स) और उनके कार्य के बारे में चौंका देने वाला अज्ञान है। और तो और उनके दिमाग़ों में बहुत सारी गलतफहमियाँ पहले से ही घर बसा गयीं हैं। परिणामतः ऐसे महसूस हुआ कि सिर्फ एलजीबीटीआई विषयों पर उनके साथ काम करना पर्याप्त नहीं होगा। एक समग्र दृष्टिकोण लेकर, यौन विज्ञान शिक्षा देना भी महत्त्वपूर्ण है। यौन विज्ञान शिक्षा शास्त्रोक्त पद्धति से कैसे प्रदान कि जाए, यह मैंने डा. अनत साठे और डा. शांता साठे (संस्थापक, भारतीय परिवार नियोजन एसोसिएशन, पुणे) से, और लैंगिकता-संबंधी शिक्षण प्रदान करना मैंने मानसोपचार तज्ञ डा. भूषण शुक्ल से सीखा। इसके अलावा ‘मास्टर्स और जॉनसन’ इन लेखकों की इस विषय पर जुड़ी किताबें भी पढ़ीं। (मास्टर्स और जॉनसन एक अग्रगणी अमरीकी रिसर्च टीम थी जिन्होंने मानव यौन प्रतिक्रिया के स्वरुप और यौन विकारों और रोग के निदान और उपचार पर १९५७ से १९९० तक विश्व-विख्यात अन्वेषण किया था।)

अब शेयर करता हूँ पिछले दस सालों में समाज के विविध गुटों को यौन विज्ञान और यौनिकता शिक्षण देने के मेरे कुछ अनुभव। सातवी से दसवी कक्षा के लड़के और लड़कियाँ, कॉलेज छात्र, एम्.एस.डब्ल्यू (मास्टर्स इन सोशल वर्क) के छात्र, नेत्रहीन बच्चों की शाला इत्यादि विविध गुटों के साथ काम किया। कार्यशाला में कौनसे विषय संबोधित किए जाएँगे या टाले जाएँगे, यह कार्यशाला का आयोजन करनेवाली स्कूल या संस्था खुद तय करती है। उदाहरण के तौर पर, कुछ कहते हैं ‘कंडोम डेमोंस्ट्रेशन’ (कृत्रिम लिंग के मॉडल पर कंडोम कैसे पहनाया जाता है इसका प्रात्यक्षिक) दिखाएँ, तो कुछ कहते हैं कि न दिखाएँ। कुछ कहते हैं ‘एलजीबीटीआई विषय पर बोलिए’, तो कुछ कहते हैं ‘अगर उस विषय पर सवाल आए तो ही बोलें, अन्यथा नहीं’। उनकी राय के अनुसार मैं अपनी कार्यशाला प्लैन करता हूँ।

शुरुआत में मुझे बुलाने के लिए कुछ संस्थाओं को डर महसूस हुआ था और उनके सामने कई सारे प्रश्न खड़े हुए। “मैं यह कार्यशाला किस तरह लूँगा? कोई विवाद या स्कैंडल तो खड़ा नहीं होगा ना? कोई शिकायतें तो नहीं आएँगी?” बताना योग्य होगा कि मैं खुद ‘ओपनली गे’ हूँ – मेरा समलैंगिक होना मैं छुपाता नहीं हूँ। परिणामस्वरूप बच्चों या किशोरों को सिखाने के लिए मुझे बुलाने को संस्थाएँ कतराती थीं। मुझे याद है, एक बार मेरी कार्यशाला स्पेशल बच्चों के लिए (जिनकी बुद्धिलब्धि या आई क्यू सामान्य से नीचे होती है) आयोजित की गई थी। उसके एक सप्ताह पहले मेरी टीवी पर बतौर ‘गे एक्टिविस्ट’ मुलाक़ात प्रसारित हुई। शायद स्कूल वालों ने उसे देखकर यह सोचा, क्या मेरी आइडेंटिटी जानकर बच्चों के माँ-बाप शिकायत करेंगे, की ऐसी व्यक्ति हमारे बच्चों को यौन शिक्षा कैसे दे सकती है? इसलिए उन्होंने मुझे मिलने के लिए बुलाया और मेरे साथ सलाह-मशवरा करके मेरे एक स्ट्रेट (विषमलैंगिक) सहकर्मी को वह वर्कशॉप लेने का अनुरोध किया।

ताहम, एक कालान्तर के बाद मेरे प्रोफेशनलिज्म और ज्ञान पर लोग विश्वास करने लगे। जब मानधन की बात आती है, मैं कहता हूँ, जो आप देना चाहें आप दें। अगर पैसे नहीं हैं तो कुछ न दें, परन्तु कार्यशाला ज़रूर आयोजित करें। यौन विज्ञान शिक्षा का काम निहायती ज़रूरी है क्योंकि लड़कों में अश्लील वांग्मय और ब्लू फिल्मों कि वजह से बहुत सारी पूर्वाग्रह और गलत धारणाएँ हैं। उन लड़कों की विवशता में इसलिए बढ़ौती होती है कि चाहने पर भी उन्हें शास्त्रीय जानकारी देनेवाला उनकी पहचान में कोई नहीं होता। उनके दोस्तों को भी उन्ही कि तरह आधी-अधूरी जानकारी होती है। कुछ अध्यात्मिक बाबा-महाराज भी गलत जानकारी देकर परिस्थिति को और खराब करते हैं। नतीजा यह, कि उनके पूछे गए प्रश्नों से लड़कों का अज्ञान साफ़ ज़ाहिर होता है।

ग़ौर करिए कार्यशाला में पूछे जाने वाले कुछ प्रश्नों पर: “वीर्य कहाँ तैयार होता है? सामान्यतः संभोग कितनी देर चलता है? औसतन पुरुष का स्टैमिना (कालावधि के नज़रिए से) कितना होता है? आई-पिल किसलिए इस्तेमाल करते हैं? मासिक धर्म के समय क्या सेक्स करना चाहिए? जुड़वाँ बच्चे कैसे और क्यों पैदा होते हैं? लड़का या लड़की पैदा होना किसपर निर्भर होता है – बच्चे की माँ पर या बाप पर?” कभी-कभार शिक्षा प्रदान करने वाले को पर्सनल या अश्लील सवाल भी पूछे जाते हैं। इस परिस्थिति को शांति से और बिना झुंझलाए हैंडल करना चाहिए। मिसाल के तौर पर, एचआईवी के बारे में बोलते समय मुझसे पूछा गया है “आपको एड्स हुआ है क्या?” या फिर “एक लड़की के साथ कितने लड़कों के सैक्स करने के बाद उसे एड्स होता है?” या फिर नपुंसकता (इम्पोटेंस) के बारे में बोलते हुए पूछते हैं “आप खुद सैक्स कर पाते हैं क्या?” अनेक बार ‘हिजड़ा कैसे बनता है?’, ‘छोरा गे कैसे बनता है?’ ऐसे प्रश्न भी आते हैं। इन प्रश्नों के आगे मेरे पास २ ऑप्शन होते हैं: मैं उन प्रश्नों का उत्तर उसी समय दे सकता हूँ या कार्यशाला के अंत में मेरी संस्था का हेल्पलाइन नंबर देकर ‘यहाँ कॉल करें’ ऐसे कह सकता हूँ – आयोजक संस्था कार्यशाला के पूर्व ही इन दो विकल्पों में से एक चुनती है, अपनी नियमावली के अनुसार।

आज भी मैं यौन विज्ञान शिक्षा के वर्कशॉप लेता हूँ लेकिन चूँकि मेरे एलजीबीटीआई काम की गति और व्याप्ति बढ़ गयी है, दिन-ब-दिन ऐसी कार्यशालाएं लेना मुश्किल होने लगा है। मुझे सदैव लगता है कि पुरुषोंको यौनिकता और जेंडर संवेदनशीलता की शिक्षा स्कूल में ही मिलनी चाहिए। अगर स्कूल यौन विज्ञानं शिक्षा देने में अक्षम हों, तो एम्.एस.डब्ल्यू और बी.ए./एम्.ए. साइकोलॉजी के छात्रों को इसका शास्त्र सीखकर कोशोरों को प्रदान करना चाहिए और इस कमी को भरने में योगदान देना चाहिए। लेकिन अफ़सोस की बात यह है की वे इस क्षेत्र में काम नहीं करना चाहते हैं। उन्हें संकोच लगता है, लज्जा आती है। अगर उनकी यह हालत है तो ज़रा सोचिए, आम आदमी की हालत क्या होगी?

समपथिक ट्रस्ट से संपर्क करें उनकी हेल्पलाइन (+919763640480, सोमवार शाम ७ से ८ बजे तक) या ईमेल (samapathik@hotmail.com) के ज़रिए।

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