तस्वीर: ग्लेन हेडन

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सेनगुप्ता अंकल (एक श्रद्धांजलि)

By Sachin Jain

October 02, 2016

आज सेनगुप्ता अंकल गुज़र गए। सेनगुप्ता अंकल मेरे पड़ोसी हैं। १९७२ में जब हमारी बिल्डिंग बनी थी, मेरे माता-पिता और सेनगुप्ता अंकल ने ९वी मंजिल पर फ्लैट लिए थे। हम थे लिफ्ट के एक तरफ “९ई” में, तो वे दूसरी तरफ “९सी” में। जबसे मुझे याद है, तबसे मैं सेनगुप्ता अंकल को जानता हूँ।

बचपन में हमेशा हम लोगों को सेनगुप्ता अंकल (या, जैसे हम उन्हें आपस में बुलाते थे, “सेंगी”) से, बड़ा लगाव था, और उनके बारे में कुतूहल भी। बाकी सारे अंकलों की तरह वे शादीशुदा नहीं थे। उनकी कभी शादी नहीं हुई थी। उनका जन्म १९३२ में हुआ था। जब वे इस बिल्डिंग में आए तो उनकी उम्र तकरीबन ४० थी, जैसे मेरी आज है। उन्होंने अपनी आधी ज़िन्दगी से ज्यादा, ४६ वर्ष, हमारे बिल्डिंग में बिताए थे।

प्रणब कुमार सेनगुप्ता का जन्म नागपूर में हुआ। वे राष्ट्रिय स्तर के हॉकी खिलाड़ी थे। वे टाटा स्टील में नौकरी करते थे, अनेकांश भारतीय खिलाडियों की तरह। उनकी हॉकी कि कृष्णधवल तस्वीरें दीवारों पर थी। कितने हैंडसम और स्मार्ट लगते थे उनमें। कितना डौल, कितना रुबाब। जैसे मानो वे दुनिया पर राज करते हों। उनके घर में स्वामी विवेकानंद की प्लास्टर ऑफ़ पेरिस कि मूर्ति थी। मूर्ति के वस्त्रों का रंग नारंगी था। श्री रामकृष्ण परमहंस, और देवी की मूर्तियाँ और फोटो एक कोने में थीं।

उन्हें यात्रा करने का ज्यादा शौक़ नहीं था, लेकिन उन्होंने बताया कि एक बार, वे काम से छुट्टी मिलने पर अंदमान द्वीप समूह गए, और वहाँ पर उनका कोई होटल नहीं था। तो एक सरकारी कर्मचारी ने उन्हें सेल्युलर जेल में उनके साथ रहने का न्योता दिया। उस समय अंदमान के प्रसिद्द सेल्युलर जेल में सरकारी कर्मचारी रहा करते थे!

अंकल बंगाली थे। अतः उनके घर से मच्छी पकाने की गंध कभी-कभार, और रविवार को ज़रूर, आती थी। हम जैनी होने की वजह से कभी नहीं खाते, और उस तीव्र गंध से पैसेज में आते-जाते नाक मरोड़ देते थे। लेकिन जन्म से ही तली हुई मछली की इस गंध की आदत होने से, यह एक घर वापसी की निशानी-सी हो गई, और उसकी शनासाई में ही आराम महसूस हुआ।

उनके घर में फर्नीचर लकड़ी का था, सारा का सारा। गहरे भूरे रंग की लकड़ी। काफी बार बचपन में हम उनके घर जाते, और हम बच्चे कार्टर रोड के समुन्दर में मैंनग्रोव के पेड़ों में बैठे हुए प्रेमी युगुलों की हरकतों को दूरबीन पास कर-करके देखते रहते। हमें कभी डर नहीं लगता, कि अंकल हमारे माँ-बाप को जाकर इस गुस्ताखी के बारे में बताएंगे। इस तरह अंकल उन सख्त पारिवारिक नियमों से तनिक बच निकलने का ज़रिया बनते। जब हमने बिल्डिंग में बच्चों का क्लब बनाया गरमी की छुट्टियों में, तो वे हमें फुटबोल सिखाते।

अंकल को मालुम था कि हम शाकाहारी हैं। इसलिए वह मुझे कभी अंडा, तो कभी मछली ऑफर करके चिढाते थे। उन्हें मालुम था की मैं कभी हाँ नहीं कहूँगा, इसलिए वे सेहत का बहाना बनाकर मुझे खाने को कहते। एक मराठी परिवार था, जिनकी सदस्या ‘अक्का’ उनके यहाँ ३ दशकों से ज्यादा घर का कम करती थी। उसकी बेटी वगैरह भी आते थे, लेकिन अक्का के बूढ़े हो जाने के बाद उनका आना भी बंद हो गया।

अंकल पढने की चीजों का भण्डार थे। उनके यहाँ “रीडर्स डाइजेस्ट” का सब्सक्रिप्शन था, और कुछ सालो पहले तक “इण्डिया टुडे” और “नैशनल जियोग्राफिक” का भी। अतः उनके यहाँ से अनगिनत रीडर्स डाइजेस्ट मैंने पढ़ीं हैं, जिसके लेखांक जैसे ‘हँसी सबसे अच्छी दवा है” वगैरह मुझे ज़बानी याद थे। नैशनल जियोग्राफिक की तस्वीरों को घंटों तक निहारना (और उसके रेशमी कागज़ के कोनों को दाँतों के बीच दबाना और फिर मासिक को ‘थैंक यू अंकल’ कहकर वापस करना, मेरे बचपन की आदत थी।

काफी वर्षों तक मैं क्रिकेट मैच के आखरी ओवर्स देखने उनके यहाँ जाता था। वे आखरी ओवर्स में टी-वी की तरफ चिल्लाते और कैच छोड़ने पर खिलाड़ियों को गालियाँ देते, या फिर चौका या चक्का लगने पर बेहद आनंदित होते। इस वर्ष भी मैंने मैच का रोमांच, उनके, और उनके मित्र और ड्रिंकिंग-पार्टनर रैल्फ के साथ अनुभव किया। वे हमेशा खुशमिजाज़ रहते थे, बिना कोई जोक सुने उनसे संभाषण करना असंभव था। भले ही उनकी कोई समस्या चल रही हो, वे तुमसे हमेशा सकारात्मक, प्रसन्न लहजे में ही बात करते।

जब मैं बड़ा हुआ, और मुझे समलैंगिक होने का अहसास हुआ, तो मैंने सोचा, क्या अंकल समलैंगिक होंगे? उनकी कभी शादी नहीं हुई, वे हमेशा सिंगल हैं, उनका किसी औरत के साथ कोई अफेयर नहीं चल रहा। लेकिन कोई पुरुष साथी भी नहीं था। वे परिपूर्ण रूप से ‘बैचलर बॉय’ थे। १९९७ में मैंने ‘बॉम्बे दोस्त’ नाम की मैगज़ीन में ‘खुश ख़त’ के अंतर्गत मैंने अपनी छोटी सी क्लासिफाइड ऐड दी थी। बॉम्बे दोस्त भारत का पहला समलैंगिक मासिक था, और उसका खुश ख़त अनुभाग बेहद लोकप्रिय। इसमें समलैंगिक दोस्तों, रिश्तों, साथियों, पार्टनरों के लिए विज्ञापन देते थे। कुछ चंद अंकों की खुश लिस्ट हमसफ़र ट्रस्ट के दफ्तर में पढ़कर, मैंने भी अपनी ऐड देने की ठान ली।

सिस्टम यह था, की ऐड में आपका पोस्ट बॉक्स नंबर लिखा जाता था, जिसका जवाब में ज़िक्र करके प्रत्यर्थी अपनी चिट्ठियाँ भेजते थे। हर जवाब एक सफ़ेद लिफ़ाफ़े में आता था। फिर ‘बी.डी.’ उन सारे जवाबों के लिफाफों को एक साथ एक बड़े लिफ़ाफ़े में डालता था। और वह बड़ा लिफाफा आपके निर्देश अनुसार किसी पते पर समय-समय पर भेजा जाता था।

मैं २१ साल का, इंजीनियरिंग की पढ़ाई ख़त्म करके एक सॉफ्टवेर कंपनी में जॉब लेने को था। मैं अपने माँ-बाप के साथ घर पर रहता था। सवाल यह था, इन चिट्ठियों को मैं मंगाऊँ कहाँ पर? अगर वे घर पर आती तो मुमकिन था कि कोई उन्हें देखता, खोलता, और नहीं भी तो उन्हें सवाल पड़ता,एकदम से सचिन को इतनी चिट्ठियाँ लिख कौन रहा है, और क्यों?

अतः मैंने बेझिझक सेनगुप्ता अंकल का दरवाज़ा खटखटाया। उनसे पूछा, “अंकल, मुझे कुछ टॉप सीक्रेट चिट्ठियाँ रिसीव करनी हैं। क्या मैं उन्हें आपके पते पर रिसीव कर सकता हूँ?” उन्होंने बिना एक क्षण का विलम्ब किए कहा, ‘हाँ, हाँ ज़रूर!”. मैं खुश हुआ और ‘खुश ख़त’ में अपना विज्ञापन डाला। उसमें मैंने अपना नाम ‘सुजॉय’ डाला। ख़त आते रहते। मैं हर महीने अंकल से पूछता, और वे मुझे बिना एक शब्द कहे बड़ा लिफाफा देते रहते। उन्हें लग रहा था कि मेरा किसी लड़की के साथ अफेयर चल रहा था। उन्होंने एक-आध बार चिट्ठियों की संख्या से इम्प्रेस होकर मुझे कुछ कहा, पर यह बहुत ज़रूरी काम उन्होंने मेरे लिए बिना विलम्ब किये किया।

गे दुनिया के मेरे पहले दोस्त कुछ इस तरह से हुए। सेनगुप्ता अंकल और बॉम्बे दोस्त की वजह से। उस समय न इन्टरनेट था, न मोबाइल। केबल टीवी हाल ही २ साल पहले शुरू हुआ था। अतः एक दूसरे से मिलने के लिए खुश ख़त बहुमूल्य था। चिट्ठियों में ६ अंकों के लैंडलाइन फोन नंबर हुआ करते। और हम लोगों को उनक घरों पर फोन करते। लेकिन एक मासूमियत का ऐसा माहौल था, कि हमें घर का नंबर देने में डर नहीं लगता। कभी कभार परिवार वाले फोन उठाते, हम रख देते, कभी बात करते। चिट्ठियाँ हाथ से लिखी हुई, टाइप राइटर पर टाइप की हुई, या हाल ही आए कम्पूटरों के प्रिंट आउट के रूप में आती। चिट्ठियों के साथ लोग अपना, तो कभी अपने पालतू कुत्तों का फोटो भी भेजते! जब चिट्ठी में कुछ सख्त-सा, भारी, महसूस होता, तो मालूम पड़ता कि इसमें फोटो है, और खोलने की उत्सुकता और भी बढ़ जाती। हर चिट्ठी जैसे एक मिठाई थी, तोहफा था। आज ग्राइंडर मोबाइल एप के दौर में, जहाँ जी.पी.एस द्वारा ४ किलोमीटर के दायरे में सारे समलैंगिकों की पहचान की जा सकती है, यह समझना नामुमकिन है, कि किसी एक समलैंगिक व्यक्ति को मिलने के लिए कितनी महनत करनी पड़ती।

चिट्ठियों की बदौलत मेरे पहले चार दोस्त थे: बकुल, सुनील मेंडिस, आशुतोष बर्वे, और दिनेश जेठरा। आज भी, २० साल बाद, मैं उनमें से कईयों के संपर्क में हूँ। उसके बाद कई दोस्त हुए, दक्षिण मुंबई के आलिशान बंगले में लौंडों का शौकीन कावस, जिसके घर से मैंने थोड़ी ही देर में बाय-बाय किया, और बहुत सारे लोग। हमसफ़र में कभी-उल्लासित, कभी-ज़हरीली क्वीन थी, रमा देवी, जिसका असली नाम रमेश मेनन था। मुझे शक है कि वह खुश ख़त की सारी चिट्ठियां खोलकर पढती थी, क्योंकि जब मैं हमसफ़र के शुक्रवार के वर्कशॉप में जाता, तो वह अभिप्राय र्वक ऎसी चीजें कहती, जो सिर्फ उन चिट्ठियों में लिखी हुई होती। लेकिन उस समय हम संपर्क होने के लिए इतने ऋणी थे, उसपर ऐतराज़ जतानेका ख़याल भी नहीं आया। मज़े की बात यह है, कि जब मैंने हमसफ़र में अपना सही नाम बताया, ‘सचिन’, तो रमा देवी ने नुकीले कटाक्ष के साथ कहकर संप्रेषित किया कि वह मेरा ‘असली’ नाम जानती है – ‘सुजॉय’! मैंने उस वक़्त कुछ नहीं कहा, और उसके ड्रामा का ही एक हिस्सा समझकर उसका ताना एन्जॉय किया।

तो इस तरह अंकल के यहाँ मेरी चिट्ठियाँ तकरीबन एक साल के लिए आती रहती, और मैं उनसे उन्हें लेता रहता। जब मैं उनको शुक्रिया कहता तो वे हमेशा मुझे सलाह देते, कि ज़िन्दगी बहुत कीमती और छोटी है, खुश होने के लिए जो भी ज़रूरी है, उसे करना चाहिए।

तस्वीर: क्लेसटिन डीकॉस्टा; सौजन्य: QGraphy

उसके बाद वर्षों तक जब भी मैंने ‘गे बोम्बे’ की मीटिंग मेरे घर पर आयोजित करी, चाहे आर्ट मीट हो या सन्डे मीट, मैंने घर के सोफे और एक सिंगल बेड उनके यहाँ रखा, ताकि लोगों को मेरे हॉल में बैठने में जगह की दिक्कत न हो। उन्होंने कभी भी ना नहीं कहा, तब भी नहीं जब रविवार को उनके घर पर महमान थे। एक बारी उन्होंने मुझसे शादी की बात की। शाम ढलकर रात होने का समय था, और हम बिल्डिंग के बाहर क़दम रख रहे थे। जब मैंने उनको अंग्रेज़ी में बताया कि मैं समलैंगिक हूँ, मैं लड़की से शादी नहीं करना चाहता, उन्होंने सिर्फ इतना कहा: क्या तुम मेरी तरह अपना जीवन व्यर्थ गंवाना चाहते हो? और वे आगे चलकर चले गए। उसके बाद हमने इस विषय पर कभी बात नहीं की। मुझे नहीं मालुम उनका अभिप्राय क्या था – समलैंगिक होने को, या फिर शादी नहीं करने को वे ज़िंदगी को व्यर्थ जाना कह रहे थे? लेकिन मेरे दिल पर बोझ कम हुआ, क्योंकि मैंने अपने अंकल को अपने बारे में बता दिया। इस सत्य के कथन ने फिरसे अंकल को बचपन के दोस्त की तरह स्थापित किया।

१४ महीनों पहले मुझे ज्ञात हुआ कि उन्हें कैंसर हुआ है। कीमोथेरपी की काफी राउंड्स हुईं। मैं अमरीका गया था, और वहाँ से मैं पड़ोसियों को व्होट्स एप पर फोन करता, उनकी खबर जानने। तब उनकी हालत नाज़ुक थी, लेकिन कीमो के बाद वे फिरसे कुछ अच्छे हुए। लेकिन कैंसर फिर आया, और आखिर के कुछ दिन उनके लिए बहुत मुश्किल थे। वे होली फैमिली असपताल में थे। कई महीनों से प्रेम सिंह नाम का आदमी उनका बहुत अच्छे से ख्याल रखता। कुछ रिश्तेदार आते और जाते, लेकिन प्रेम सिंह ने आखरी महीनों में उनकी दिन-रात सेवा की।

और आखिर आज सुबह फोन आया, कि वे चल बसे। मैं उनकी शव वाहिनी को बिल्डिंग में आने का इंतज़ार कर रहा था। शव आने के बाद उसे बिल्डिंग की लिफ्ट कि लोबी में रखा गया। मैंने उनके चहरे पर हाथ फहराया। उनका चहरा ठंडा पड़ चुका था। औरों की तरह मैंने उनके चरणों में फूल डाले, और उनको शव वाहिनी तक कन्धा दिया। जाते समय वे हमेशा कहते प्रसन्नता से, “ऑलराइट, सी यू!” आज मैं अंकल को अलविदा कह रहा हूँ: “ऑलराइट, सी यू सेनगुप्ता अंकल। आई लव यू।”