मुंबई के बांद्रा इलाके में थडोमल शहाणी अभियन्त्रिक महाविद्यालय में २१ जनवरी २०१८ को शाम ४ से ७ बजे तक एक अनोखा कार्यक्रम हुआ। “सीनेजर्स” (अंग्रेजी शब्द ‘टीनेजर्स’ से उपांतरित, ‘ज़माना देखे हुए लोग’; ईमेल: mumbai.seenagers@gmail.com, फेसबुक) संगठन २०१७ में ५० वर्षों से अधिक आयु के समलैंगिक और विषमलैंगिक पुरुषों के लिए समलैंगिक अधिकारों के एक्टिविस्ट अशोक राव कवि और डॉक्टर प्रसाद राज दांडेकर द्वारा स्थापन हुआ। १५ जुलाई, ९ सितम्बर, २९ ओक्टोबर और २६ नवम्बर २०१७ में हुई निजी सभाओं में औसतन १२ हिस्सा लेनेवालों की उपस्थिति में यह ग्रूप वयस्क गे, एसेक्शुअल और बाय्सेक्शुअल पुरुषों के जीवनों की समस्याओं के अनेक पहलुओं पर चर्चा करता है।
पाया गया कि स्वास्थ्य सेवाएं, कानून से सम्बंधित मामलें, पर-निर्भरता, मैत्री, पैसे, अकेलापन, सामुदायिक जीवन, कामकाज, शादी-ब्याह में अनबन और प्रेमी, ऐसे विषय इस वयोवर्ग के लोगों के लिए प्राधान्य रखते हैं। विशेषज्ञ जैसे डॉ. अरमान देशपांडे (मानसिक स्वास्थ्य), देवेन्द्र अन्देवार, डॉ. रूप गुरसहानी (विरासत, इत्यादि क़ानूनी मामले), अंकित (हमसफ़र ट्रस्ट, सायबर सेक्युरिटी) इन मीटिंग्स में आकर इन मसलों पर जानकारी देते हैं। आज पहली बार यह मीटिंग समस्त एल.जी.बी.टी. समाज के लिए खुली थी। आयोजक डॉ. प्रसाद दांडेकर के अनुसार, “हमने यह ग्रूप ज़्यादा से ज़्यादा वयस्क समलैंगिकों तक पहुँचने के लिए शुरू किया था। लेकिन यह बहुत कठिन था क्योंकि वे या तो शादी-शुदा थे या छुपे हुए। उन तक पहुंचना नामुमकिन के बराबर था। फेसबुक, ग्राइंडर, प्लेनेट रोमियो पर हम उन तक पहुँचने की कोशिश करते हैं। हमारी आशा है इससे भविष्य में और लोग आएँगे। अतः हम और लोगों की मदद कर सके और एक समुदाय का गठन हो, जो धारणीय और आपस में मददगार हो।”
भारत में समलैंगिक समुदाय में हाल ही में काफी सकारात्मक पहल हुई है। उच्चतम न्यायलय का भारतीय दंड संहिता की धरा ३७७ के द्वारा समलैंगिकता के अपराधीकरण की पुनः जांच करने के सन्दर्भ में ५ न्यायाधीशों के संवैधानिक खंडपीठ के चयन करने के निर्णय ने यह आशा दिलाई है कि न्यायिक व्यवस्था अपने २०१३ के निर्णय को बदलने में पहल करेगी। मगर ऐसे अनेक समलैंगिक हैं जिन्होंने अपनी सारी ज़िंदगी बतौर गुनाहगार बिताई है इस कानून की वजह से। अतः उनको समझना और उनके अनुभव से सीखना आगे की पीढ़ियों के लिए निहायती ज़रूरी है, ऐसा इस मीटिंग से ज़ाहिर हुआ।
महाविद्यालय की एक क्लास में विद्यार्थियों की बेंचों पर बैठे १८ से ८० की उम्र के १५० सहभागियों से खचाखच भरी थी। उनमें ९५% पुरुष थे। ३७ साल रिश्ते में एक साथ रहे समलैंगिक जोड़े, बोर्ड के सामने कुर्सियों पर बैठे थे और अपनी जीवन कहानी बयान कर रहे थे सुधांशु को। उपस्थित लोग स्तब्ध होकर सुन रहे थे। उनसे किए गए सवालों में उनमें उम्र में २० सालों का अंतर, यौनिकता, अन्य पुरुषों के साथ सेक्स का विषय, झगडे-रुसवाइयों से निपटने के तरीके, गे रिश्तों में स्थैर्य, ब्रेक-उप, मरणोपरांत पार्टनर का ख़याल रखना, इत्यादि अनेक विषयों के प्रश्नों से लग रहा था कि दो समलैंगिक पुरुषों में इतना लम्बा रिश्ता होना आज की तारीख में बम्बई जैसे शहर में भी कितनी अचम्बे की बात है। क्या माज़ी में १९८० के दशकों में आसान था गे होना, जब लोगों को इस विषय में इतनी जानकारी नहीं थी? रोल मॉडल का होना या नहीं कितना मायने रखता है? काफी बदलाव आया है पर ज़बरन शादियों और अज्ञान का दौर अभी भी ख़त्म नहीं हुआ।
फेसबुक लाइव पर अशोक राव कवि ने अपनी दास्ताँ बयाँ की। भारत में पूंजीवाद के आगमन से पहले समाजवादी ढाँचे में गे समुदाय में किस तरह मेल-जोल होता था, और किस तरह वे कम्युनिटी में स्वयं शरीक हुए यह बताया। उस समय ग़ैर कानूनी बार में गे लोगों का मिलना, अमीर गे पुरुषों के घरों में हुई पार्टियां, इन पार्टियों में टिकट मिलने के लिए २ और गे लोगों का रिफरेन्स होने की ज़रूरत, पुलिस से ज़्यादा गुंडों का डर, इनके बारे में उन्होंने अपनी यादें ताज़ा की।
आज के दौर में डेटिंग एप पर आसानी से मिलने वाले, पार्टियों में खुले-आम जाने वाले इस पीढ़ी के लोग यह कहानियां सुनने में दंग थे। इस अदृश्य इतिहास को सुनकर लड़के प्रसन्न हो रहे थे। अनकही इस विरासत को जानना बड़ा रोचक था। हर पार्टी में पुलिस के साथ गड़बड़ होने पर अशोक पुलिस स्टेशन जाकर उन्हें छुडाते थे, और मुश्किलों के दौरान भी कितने मज़ेदार किस्से हुआ करते। प्रचलित गे संस्कृति का इस अमीरों के गिरोह से निकलकर सर्वसाधारण लोगों के लिए उपलब्ध होना यह २० वर्षों में फर्क पड़ा है। मुंबई में गे उपसंस्कृति में इस्तेमाल शब्द और गुप्तता बनाए रखने की ज़रूरत उस पीढ़ी ने अनुभव की। कठिनाइयों के बावजूद जिस पिछली पीढ़ी ने आज के लोगों के लिए अधिकारों का रास्ता सहज किया, उनको याद करना चाहिए और उनके योगदान को सराहना ज़रूरी है। अशोक राव कवि ने कहा: “उस वक़्त बोम्बे दोस्त मासिक में खुश ख़त नाम की मेल-मिलाप सेवा में लोगों को पोस्ट ऑफिस बोक्स नंबर बनाना यहाँ से शुरू करना चाहता था। स्टेशन के इंडिकेटर के नीचे लोगों से मिलकर उनका उपबोधन करना, इस दौर से हम गुजरें हैं। उस वक़्त खतरा ज्यादा था लेकिन मासूमियत भी थी। शादी नहीं होने की वजह से अकेला होना समाज में कलंक का विषय है। वह उस वक़्त भी सच था और आज भी है। बालाखिर हमें अपने क़दमों पर खड़े होना पड़ेगा। विभिन्न भाषाओँ की मिडिया में संवेदनाशील वार्तालाप होने की आवश्यकता है।” डॉक्टर दांडेकर कहते हैं, “हम संजीदा मसलों के साथ कुछ हलके-फुलके अनुभव भी रखना चाहते हैं, और एक दिन वृद्धाश्रम भी बने यह हमारा सपना है। यह भी ज़रूरी है कि ५० की उम्र से कम समलैंगिकों का इस समुदाय से संपर्क हो, हम एक दूसरे से सीखें। सीनेजर्स के पास अनुभव और बुधिमत्ता की खासी पूंजी है, और जवान और मध्यमवयीन समलैंगिक इस गुट के साथ कल्पनाएँ, रचनात्मकता साझा कर सकते हैं।”
फ़िर प्रश्नोत्तरी के विचार विमर्श में कही गई निम्न बातें: “समाज के आर्थिक वर्गों से अलग गे पुरुषों के रिश्ते क्या केवल प्रेम पर निर्भर करते हैं? पहली बात तो उनके अलग रहन-सहन के तरीकों को स्वीकार करना मुश्किल है। लेकिन यह एक मौक़ा है एक अलग भारत, एक अलग नज़रिए को समझने का।“ “ऐसा भी नहीं है कि वयस्क लोगों के पास सारे उत्तर हैं।“ “एच-आई-वी और एड्स की महामारी के पहले १० या १५ सालों में हमने बहुत करीबी मित्रों की मौतें देखी। आज स्थिति सुधर गई है लेकिन असुरक्षित यौन सम्बन्ध और ड्रग्स की वजह से पुनः मुश्किलें आ सकती हैं।“ “यह ख़ुशी की बात है कि इतने गे लोग अपना चहरा दिखाकर सामने आ रहे हैं। हम एक बड़ा परिवार हैं और हम लड़ते भी हैं लेकिन एक दूसरे के अलावा हमारे पास कोई नहीं हैं।“
“बहुसंख्यक विषमलैंगिक लोगों के साथ संवाद शुरू करना निहायती ज़रूरी है। उनको दिखाना ज़रूरी है की हम आपके बीच हैं, हम सशक्त हैं लेकिन हमें आपके समर्थन की ज़रूरत है।” सीनेजर्स गुट इस साल पहली बार गौरव यात्रा में सहभागी होगा, इसके उपलक्ष्य में एक बैनर का विमोचन किया गया।