“शादी” या फिर “विवाह” एक ऐसा शब्द है जिसका दुनिया के हर एक समाज में अपना महत्वपूर्ण स्थान है। जब दो इंसान एक दूसरे को दिल से पसंद करते हैं, अपनी ज़िन्दगी के अहम पल एक दूसरे के साथ पूरी ज़िन्दगी आपस में बाटना चाहते हैं, एक दूसरे के साथ रहकर पूरी ज़िन्दगी गुज़ारना चाहते हैं, अगर इसे आसान भाषा में कहा जाए तो… उन दो व्यक्तियों के इस ज़िन्दगीभर एक दूसरे के साथ रहने के निर्णय को समाज में शादी, विवाह, या फिर मैरिज कहते है।
जब मैने ये कहा की, दो इंसान एक दूसरे को दिल से पसंद करते है, तो आप में से ज़्यादातर लोगो ने अपने दिमाग में ये सोच लिया होगा की वो दोनों कोई हमारे रोमांटिक फिल्मो के किरदारों की तरह राज और सिमरन होंगे… या फिर किसी मशहूर कहानी की तरह हिर-रांझा, लैला-मजनू होंगे। सरल सी भाषा में कहा जाए तो आप ने इस रिश्ते को इक स्री और पुरुष के बीच होने वाले विवाह के संबंध से जोड़कर देखा होगा। आपका ऐसा सोचना बड़ा ही सामान्य है क्योंकि हमारे समाज में जो विवाह को लेकर एक मर्यादित संकल्पना बनी है उसके आधार पर हमने इस रिश्ते को एक स्री और पुरुष के संबंध में सोचा है।
पर, मैं यहा पर बात कर रहा हूँ राज और आर्यन के बीच के रिश्ते की, सिमरन और कविता के बीच के रिश्ते की, विवाह रिश्ते की… जी हाँ एक विवाह रिश्ते की।
कुछ दिन पहले भारत के दिल्ली हाईकोर्ट में तीन LGBT (समलैंगिक) जोड़ो की ओर से अपने शादी को सपेशल मैरिज एक्ट के तहत क़ानूनी मान्यता देने की याचिका दायर की गई है। इन याचिकाकर्ताओं की ये मांग है की भारतीय स्पेशल मैरिज एक्ट के अंदर समलैंगिक (LGBTQ+) विवाहों को क़ानूनी मान्यता दी जानी चाहिए। जब दो या ढाई साल पहले अंग्रेजों के बनाए हुए पुराने कानून ३७७ को भारत के सुप्रीमकोर्ट ने ख़त्म किया था, तो उसके साथ साथ ये भी कहा था की सिर्फ कानून ख़त्म करने से ही LGBT समुदाय को इस देश में उसके निजी अधिकार नहीं मिल पाएंगे। उसके लिए इस देश में आने वाले दौर में सरकारों को LGBT समुदाय के अधिकारों की रक्षा करने के लीये ठोस कानून बनाने होंगे। शिक्षा, रोज़गार, स्वास्थ, संरक्षण कायदा इस तरह के कानून बनाकर उन्हें समाज के मुख्याधारा के साथ जोड़ने का काम करना चाहिए।
आखिर क्यों भारत में LGBT (समलैंगिक) कम्युनिटी के शादियों को भारतीय स्पेशल मैरिज एक्ट के ज़रिये क़ानूनी मान्यता की ज़रुरत है? इस सवाल का जवाब जानने के लिए हमे कई सारी चीज़ों को विस्तार से समझना होगा।
जैसे आपको एक भारतीय होने के नाते जो संविधान के अनुसार हर भारतीय को अपनी पसंद से शादी करने का व्यक्तिगत नागरिक अधिकार है, वही सांविधानिक नागरिक अधिकार हर भारतीय LGBT समाज के व्यक्ति को चाहिए। जैसे इस देश में हर एक भारतीय शादी शुदा जोड़े को जो सरकारी, क़ानूनी मान्यताये है – जैसे पासपोर्ट, मतदान पत्र, स्वास्थ, चाइल्ड एडॉप्शन, प्रॉपर्टी रजिस्ट्री, इस तरह के अन्य सरकारी काम में लगने वाली प्रक्रिया में उनके दोनों के रिश्ते को कानूनी वैध माना जाये। एक उदाहरण के तौर पर यह देखा जाए तो दिल्ली हाईकोर्ट की इस केस में एक याचिका करता ऐसे भी है, जिनकी शादी अमरीका में हुई है पर, वापिस भारत अपने देश आने पर उनकी इस शादी को भारत के विवाह कानून द्वारा मान्यता नहीं दी जा रही है। उन्हें एक शादीशुदा जोड़े के तौर पर भारत में आने से अयोग्य ठहराहया जा रहा है और कई सारी क़ानूनी दिक्कते आ रही है।
NDTV India के न्यूज़ के मुताबिक, जब २५ फरवरी को दिल्ली हाईकोर्ट ने इस केस पर मौजूदा केंद्र सरकार से जवाब मांगा तो केंद्र सरकार ने कोर्ट को कहा की, “भारत में शादी एक सामाजिक पवित्र संस्कार है, इस तरह के शादी को सामाजिक विवाह सस्थाए स्वीकृत नहीं करती।”
ठीक है पर यहाँ पर दिल्ली हाई कोर्ट में सवाल भारत सरकार से पूछा गया है… ना की किसी पवित्र, संस्कारी सामाजिक विवाह परम्परा से।
सरकारी पक्ष : “हमारे देश में एक पुरुष और एक महिला के बीच विवाह के संबंध की वैधानिक मान्यता पुराने रीति-रिवाजों, प्रथाओं, सांस्कृतिक लोकाचार और सामाजिक मूल्यों पर निर्भर करती है।”
पुराने रीति-रिवाजों, प्रथाओं, सांस्कृतिक लोकाचार के बारे में सोचना और उनके हिसाब से देश के प्रशाशन को चलना, सरकारों का काम नहीं होता है। बल्कि किसी भी संविधान प्रणीत लोकतंत्र में सरकार का काम होता है देश के संविधान के बारे में सोचना और उसके बताये गए रास्ते पर चलकर देश को आगे बढ़ाने वाला प्रशाशन देना।
सरकारी पक्ष : “एक ही लिंग के दो व्यक्तियों के बीच विवाह की संस्था की स्वीकृति को न तो मान्यता प्राप्त है और न ही किसी भी पर्सनल लॉ या किसी भी सांविधिक कानूनों में इसे स्वीकार किया गया है”
अब यहाँ पर फिर… सरकार संस्कृति, विवाह सस्था, पर्सनल लॉ बोर्ड के बारे में बात कर रही है। पर संविधान में हर भारतीय को दिए गए निजी मौलिक अधिकार को… ध्यान में रखकर सरकार स्पेशल मैरिज एक्ट में lgbt विवाह (same-sex marriage) को लेकर सांविधानिक नागरिक अधिकारों के अनुसार क्या बदलाव कर सकती है? इसका कोई जवाब सरकार ने नहीं दिया।
सरकारी पक्ष : “केंद्र ने कहा है कि एक पति, एक पत्नी और बच्चे के रूप में परिवार, एक इकाई अवधारणा है जो कि एक पुरुष को ‘पति’ के रूप में, एक महिला को ‘पत्नी’ के रूप में और उनसे पैदा हुए बच्चों के रूप जाना जाता है”
शादी दो भिन्न लिंग के व्यक्तिओ के बिछ होती है, और उनसे पैदा होने वाले बच्चे को मिलाकर एक परिवार बनता है, इसी विचार की छाप सरकार के जवाब में दिखती है। जब की आज भी हमारे समाज में विवाह के ज़रिये अपने वंश परपरा को आगे जारी रखना, यही मुख्य उद्देश्य माना जाता है। जब की सांविधानिक पद पर बैठी सरकार ही विवाह की संकल्पना को सिर्फ दो भिन्न लीग के संबंध और प्रजनन के द्वारा वंश आगे बढ़ाने का मुख्य उद्देश्य मानती है तो देश के समाज में सरकार एक तरह से इस विचार को मज़बूत कर रही है।
सरकारी पक्ष : “केंद्र की ओर से यह भी तर्क दिया गया है कि समलैंगिक विवाह को वैध बनाना अदालत का काम नहीं है, उस पर निर्णय विधायिका को लेना होता है”
यही तो इस केस में इन याचिकाकर्ताओं का दिल्ली हाई कोर्ट में कहना है की भारतीय संविधान में हर नागरिक को दिए गए निजी मौलिक अधिकारों को ध्यान में रखकर, इस विषय में कानून बनाने का काम संसदीय प्रक्रिया के ज़रिये देश में आनेवाली तमाम सरकारों को पहले ही कर देना चाहिए था। जो की अब तक देश में जो भी सरकारे आई उन्होंने इसे नहीं किया। इसीलिए तो ३७७ को रद्द करने का काम आखिर में सुप्रीम कोर्ट को ही करना पड़ा। इस बात को सुप्रीम कोर्ट ने ३७७ का फैसला देते समय कहकर सरकारों के संज्ञान में भी लेकर दिया था।
आर्टिकल 21 : भारतीय संविधान का आर्टिकल 21 ये भी कहता है की : “किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा।”
भारत का संविधान एक व्यक्ति के मानवीय अधिकारों, मूल्यों पर आधारित है। इसके साथ साथ भारतीय संविधान इस बात को भी अधोरेखित करता है की संविधान के पद पर बैठे हर व्यक्ति के साथ साथ देश के हर एक नागरिक को भी वैज्ञानिक सोच विचार का प्रचार प्रसार करना एक ज़िम्मेदारी है।
संविधान में दिए गए नागरिक के निजी मौलिक अधिकार के आधार पर LGBT समुदाय के विवाह को भारतीय स्पेशल मैरिज एक्ट में मान्यता देनी चाहिए। माना की इससे मैरिज से जुड़े जो दूसरे कानून भी है, उन सभी में भारी बदलाव करने पड़ेंगे। संस्कृति, परंपराए और कानून में भारी बदलाव की बात का बहाना बनाकर आने वाली हर सरकारे इसे ज़्यादा दिन तक टाल नहीं सकती। क्योंकि ३७७ जैसे अमानवीय कानून को निरस्त करते समय भारत के सर्वोच्च न्यायलय ने इस बात को ज़ोर देकर कहा था की, इसके बाद भारत में LGBT समुदाय के अधिकारों से जुड़े कानूनों को बनाने का काम इससे आगे आने वाली हर सरकारों को करना होगा।
उम्मीद है इस मामले में दिल्ली हाई कोर्ट का अंतिम फैसला इस केस के याचिकाकर्ताओं के साथ साथ भारतीय LGBTQ+ समुदाय के लिए एक सतरंगी खुशियाँ लेकर आए।