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दूसरा और आखरी भाग:
अपना दूसरा हाथ, सागर ने रिक्शावाले के कंधे पर रखा । रिक्शावाले के कंधे भालू जैसे बड़े और बोझल थे । सागर की छुअन पर वह कंधा स्पर्श की उमँग में तना और थोडा उभियाया । कुछ ही पलों में कंधे की उमेठन सुस्ताई । सागर की उँगलियों ने अल्पतम दबाव डाला, मानो कोई प्राणियों का डाक्टर किसी घायल पंछी के पाँव में हुए फ्रैक्चर का निरूपण कर रहा हो । सागर ने सामने टंगे आईने में देखा । इस बार उसकी दीदारी ने रिक्शावाले की नज़रें पकड़ लीं । रिक्शावाला मुस्कुराया । उसकी आँखें करुणामय थीं । आईने पर शीरीं, रसीले होठों की आकृति का लाल रंग का स्टिकर चिपका हुआ था । उन होठों ने सागर के गाल के प्रतिबिम्ब पर बेइरादा ही सही, चुम्मा रखा ।
“जहाँ तुम ले चलो”, सागर ने सरलता से जवाब में कहा । रिक्शावाले ने रिक्शा स्टार्ट किया । शहर उनके इर्द-गिर्द घूम रहा था । अब वे लिंकिंग रोड पर पहुंचे थे । नैशनल कोलेज के समीपवाले गेट से कॉलेज छात्रों के गिरूह बाहर निकल रहे थे । सुरमा लगाए जूते बेचनेवाले फुटपाथ पर अपनी ठकुरायत जता, माल बेच रहे थे । लगभग लड़ाकू स्वर में वे गुज़रती हुई हर फैशनी कॉलेज-कन्या को ऊंची हील वाले जूतों को हाथों में सहलाकर झांसते । टपोरी बच्चे जूँ-भरी, बेधुली खोपड़ियों को लगातार खरोंचते और नवीनतम फिल्मी गाने गाते हुए, गाड़ियों और खरीदारों के बीच यहाँ-वहां बेवजह दौड़ रहे थे ।
रिक्शा खार टेलेफोन एक्सचेंज के सिग्नल पर आ रुकी । एक भिकारी आया और सागर से पैसे मांगे । बाहर नमी से लदी हुई तेज़ हवा के झोंके चलने शुरू हो रहे थे । बारिश होने के अचूक लक्षण थे । भिखारी ने रिक्शा के अन्दर टेंककर सागर की आँखों में देखा । उन आँखों की तन्हाई उसे छू गई और उसने सागर को अकेला छोड़ दिया । आसमान में काले घने बादलों का जैसे विस्फोट ही होने वाला था । सिग्नल की बत्ती लाल से हरी हुई, रिशावाला बाएँ तरफ झुका, और उसने स्टार्टर का डंडा खींचा । रिक्शा ट्रैफिक में बेरोक घुसी । सागर की उँगलियों ने रिक्शावाले के कंधे पर अपनी ढीठ मगर सभ्य मौजूदगी बनाए रखी । ऊंगली दर ऊंगली उसका हाथ रिक्शावाले की बखोटी, और फिर उसके कॉलर तक खिसका । रास्ते पर नजदीकी गाड़ियां और रिक्शाएं सड़क की हर इंच पर अपना दाब जमाने के लिए हॉर्न का कोलाहल मचा रहीं थीं ।
रिक्शावाले के पक्ष में यह कहना होगा कि उसने मीटर चालू नहीं किया था । मीटर अब भी शोक-काल में फहराए जानेवाले झंडे की तरह आधा-मस्तूल था, रिक्शावाले की मैली, सफेद पेंट में लिपटी जाँघों की ठांठी टोकरी में तने उसके पौरुष की तरह । जूता बाज़ार से आगे, यातायात कुछ कम हुई । रिक्शावाले ने राईट मारा और चंद मिनटों में वे खार की एक शांत, सब्ज़ गली में पहुँचे । सड़क की दोनों तरफ समानांतर दूरी पर लगे पेड़ों की पंक्तियाँ थी और उनकी विशालतम शाखाएं शामियाने की तरह पूरे रास्ते को छाँव दे रही थीं ।
एक बंगले की ऊंची, बेलाओं से छादित दीवार के करीब ध्यानपूर्वक पार्क करके रिक्शावाले ने गहरी सांस ली, और पीछे मुड़ा । बाहर बूंदाबांदी शुरू हुई । रिक्शा के आच्छादन पर पहले हलकी थपकी से, फिर आक्रामक ठेके से वर्षा टिप-टिप बजने लगी । दो मिनटों के अन्दर, रास्ते के बचे-खुचे लोग भी घरों के भीतर भाग गए और रास्ता निर्मनुष्य हो गया । आवारा कुत्ते भी उन दुकानों के छज्जों के नीचे झपटे, जहाँ से वे जानते थे कि मालिक या उसका परिवार उन्हें नहीं भगाएगा ।
“तुम्हारा नाम?”
– राजेश ।
“आपका?”
– सागर ।
भले ही उसकी उम्र रिक्शावाले से आधी हो, सागर पैसिंजर था, आय का निमित्त, अतः आदरार्थी बहुवचन ‘आप’ द्वारा संबोधित करने लायक, यद्यपि सागर ने खुद उसे ‘तुम’ कहकर पुकारा हो । राजेश की हलकी दाढ़ी थी । उसकी भौहें उसके गरुड़ की चोंच जैसी लम्बी और सीधी नाक के ऊपर सीधी रेखा में मिली हुई थी । उसकी आँखें खूबसूरत और तुरकानी थीं । उसकी मुस्कान कठोर दिल को मोमी पिघलाव में तब्दील करने की क्षमता रखतीं थी । सागर ने २ शब्दों के संभाषण से ही ताड़ लिया था कि राजेश एक ‘भैया’ था – मुंबई में उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों को दिया जानेवाला नाम । रिक्शावालों से दीदारबाज़ी का पुख्ता अनुभव रखनेवाले सागर को मालूम था, कि यू.पी. वाले प्रायः मेहनती और सरल स्वभावी होते थे । ऐसे इत्तफाकी वारदातों की तरफ उनका रवैय्या आवेगहीन और शांतचित्त हुआ करता था । सागर की धारणा थी, कि अपने गाँव, परिवार और प्रियजनों से दूर, वारे-न्यारे होने की फ़िराक में वे नाईट शिफ्ट में मुंबई में रिक्शा चलाते हैं । इस प्रकार की जिस्मानी ज़रूरतों के निपटाव को वे अनिवार्य और साधारण समझते थे ।
सागर राजेश की छाती के घने, पलंगपोश बालों को चाहत की नज़रों से देख रहा था । उसने आगे झुककर राजेश की कमीज़ का पहला बटन खोला । बनियान पहना हुआ नहीं था । सागर ने खुद का उपरी बटन खोला, और हाथ को शर्ट के अन्दर डाल वह जनेऊ को तर्जनी पर लिपटाने लगा । राजेश ने सर झुकाया और आँखें बंद कर लीं । दोनों कुछ देर के लिए वैसे ही बैठे रहे । वर्षा ने जोर पकड़ लिया था – बारिश अब मानो पानी के बम-गोले गिरा रही थी । रिक्शा के कनवास पर बारिश दौड़ते घोड़े की टापों की भांति टगडग- टगडग का पार्श्वसंगीत दे रही थी । धीरे-धीरे मगर निरंतरता से तिपहिया रिक्शे के खुले दरवाजों से पानी की छीटें अन्दर आ रहीं थी । हाय, बारिश के पानी की वे बेबाक बूँदें । पीछे की सीट के रेक्जीन पर पहले तो आपस में जुत्तम-जुत्ती करके, फिर षड्यंत्र रचाकर, सम्मिलित हो, वे छोटी नदिकाओं में परिवर्तित हो गईं। रंगरेलियां मनाने हेतु, उन्होंने सागर के जींस-पेंट की सीट की तरफ रुख किया । राजेश ने दोनों दरवाजों के ऊपर बंधे रेक्जीन को फहराया, और उनपर बंधी छोटी-सी गीली रस्सी द्वारा ढाँचे के सलिए पर बाँधा । यह आड़ नामुनासिब ही सही, मगर कमसकम बारिश का पानी उनपर गिरने से रोकने में सफल हो गईं । अब उनके पास एकांत था । एकांत! उनका अपना ‘रेक्जीन महल’ । प्रकृति और रेक्जीन ने रचाई साज़िश की बदौलत, इस कुलबुलाते, जांगलू, एकांत की एक बूंद के प्यासे शहर में उन्हें एक बेशकीमती तोहफा मिला था ।
मूसलाधार बारिश के बावजूद राजेश ने आगे की सीट छोड़ी और एक बार फिर गाँठ को खोलकर सागर के साथ पीछे की सीट पर आ बैठा । अब एक दूसरे के बिलकुल करीब, वे एक दूसरे को देखते रहे । सागर ने राजेश की बाँह सहलाई । सफ़ेद बहोली से निकलती हुई, उसकी बलवान, सक्षम, झबरी बाँह । बाँह, ठंडी और गीली । सागर के गर्मीले, दिली और सूखे हाथों का स्पर्श राजेश को अच्छा लगा । राजेश ने एक और लम्बी सांस ली, और पीठ टेंककर बैठ गया । उसकी लम्बी पलकों के किनारों पर छोटी, जगजगाती, सिहरती बूँदें थीं ।
“ऑटो, ऑटो!” – दो बच्चों की चिल्लाती, खुशनुमा आवाजें सुनाई दीं । आगे की कांच पर बहते पानी में से वे पास आते दिखाई दिए । बारिश में घर से बाहर होने का उनका उल्हास वे रास्तों के खड्डों में कूदकर पानी उड़ाकर व्यक्त कर रहे थे । लड़का और लड़की हर गड्डे में कूदकर आखिरकार रिक्शा तक आ पहुंचे । दो बच्चे – दिखने में दो रंगीन धब्बे, कांच पर चलते वाइपर की बदौलत कभी धुंधले, तो कभी स्पष्ट । उनकी माँ उनके पीछे से आ रहीं थी । अपने हाथों में हाल ही में की गई खरीदारी, पर्स, चुन्नी और छाते को मुश्किल से संभालती हुई । गाड़ियों की आवाजाही को नज़रंदाज़ करने के लिए उसने बच्चों को टोका ज़रूर, पर उस झिडकी में भी उनकी जिंदा-दिली पर महसूस किए गए अभिमान का स्वर था ।
सागर ने राजेश की तरफ देखा, और मुस्कुराया । वे एक दूसरे को ताकते रहे, आँखों द्वारा एक दूसरे को, इस दुर्लभ क्षण को पीते रहे । बिना एक शब्द कहे, सागर ने रेक्जीन की रस्सी की गाँठ खोली । रिक्शा से निकलकर, वह बाहर बारिश में आ खडा हुआ । उसके पीछे राजेश भी बारिश में उतरा, और ड्राइवर की सीट में बैठ गया । उसने मीटर को ऊपर किया। ‘टिंग!’ राजेश के गाल पर एक मात्र बूंद गिरी । जुत्तम-जुत्ती करने, षड्यंत्र रचाने, रंगरेलियां मनाने के लिए उसकी कोई साथी बूंद नहीं थी । उस दहकती बूंद का मनोगत, कोई नहीं जानेगा ।