सोचता हूँ एक रात तुम्हें छू कर देखूँदेखूँ की कितनी गर्मी है मेरी छुअन मेंतुम पिघलते हो मेरे एक स्पर्श सेया मैं ही पत्थर सा ठोस हो जाऊँगा?क्या ज़माना पूछेगा उस रात का एहसासया मैं ही सवालों में घिर जाऊँगा?क्या मैं मर्द से अपने अस्तित्व की ओर बढूँगाया कालिख से हर रोज़ नवाज़ा जाऊँगा?क्या तुम मेरी पहचान बनोगे या मुझपे भी सवाल उठेंगेक्या समाज में सम्मान मिलेगा?या समाज की उंगलियां ही उठेंगी बसक्या मेरे अपना भी एक परिवार होगाया मैं भी समाज के डर में दब जाऊँगा?क्या मेरा कुछ अपने ख़्वाबों के पर लगेंगेया मैं भी समाज के द्वारा नामर्द कहा जाऊँगा?क्या घर बनाने पर मैं बाप बनूँगाया मैं भी पापी हो जाऊँगा?
ये सारे सवाल घेरे रखते हैं…अस्तित्व की बात कहाँ से गलत है?
ख़ैर…