ज़िंदगी से रुबरू होने की थी कोशिश मेरीरूह की गहराइयाँ फिर नापने मैं चल पड़ा
रंग कितने थे वो भीतर जानने मैं चल पड़ातन्हाईयों से गुफ़्तगू करने को मैं फिर चल पड़ा
जानने ये तब लगा, खुदसेही था अंजान मैंएक नये से खुदको ही पहचानने मैं चल पड़ा
हमकदम मेरी थी तब वो सहमी सी खामोशियाँउनसे ही गिर के संभल के होती थी सरगोशियाँ
वह सफर था खूबसुरत और ज़रा मुश्कील सा भीक्यूँ ना हो? आखिर थी मंझील सुनहरीसी रोशनी
अस्तित्व मेरा खिल गया पाकर वो सच की रोशनी“मैं” ना आखिर “मैं” रहा “मैं बन गया वह रोशनी”