जलते कोयले पर जमी राख की परत को मिली है तुम्हारे स्पर्श से हवा अब इस सुलगी आग का क्या करूँ मैं?
छोड़ दूँ गर इसे अपने नतीजे पे तो प्रश्न अस्तित्त्व का है बुझा भी दूँ किसी की मदद से तो सवाल है नीती-अनीती का…
इस दुविधा में मुझे फँसाकर यूँ मुँह मोड़ लेना कहीं यह तुम्हारा नया खेल तो नहीं?