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कविता: मेट्रो में

Delhi Metro

कहते हैं हम सब
भारत स्वतंत्र है
पर क्या यह सत्य है ?

मुझे नहीं लगता
भेदभावी स्वभाव के हैं सब
सिर्फ भेदभाव और कुछ नहीं…
ना जाने क्यों !

कहते हैं हम
15 अगस्त को बहुत साल हो गए हैं
अब तो सब आज़ाद हैं
पर नहीं
आजादी अभी भी कैद है घुटनों में
क्योंकि घुटनों में दिमाग है
किसका ?

लगभग सबका..

मौन, चुप्पी और कनखियां
और क्या !
कुछ नहीं, भारत के लोग हैं
तथाकथित शिक्षित !
तथाकथित !!!
कुछ नहीं, भेदभाव अभी भी जारी है

कभी मेरी, तो कभी तुम्हारी बारी है
कहें किससे ?
किसी से नहीं
सब चुप हैं,
मुंह पर अंगुलियां और
गालों पर पड़ते हाथ हैं उर्फ़ चांटे !
कभी बाप का हाथ
तो कभी मां भी सवार

मेट्रो में बैठा मैं
बगल में प्रेरणा
शांत, हंसमुख, स्वतंत्र और
हौसला देने वाली
खुद भले ही टूट जाए
पर दूसरों को टूटने नहीं देगी

मेट्रो में 100 में से 99 घूर रहे हैं
जैसे भारत से चांद पर चंद्रयान गया है
और वहां से एक एलियन आकर
यहां मेट्रो में बैठा है

स्टेशनों, सीटों और सबसे बड़ी बात
अपने ऊपर किसी का ध्यान नहीं
लेकिन सबका ध्यान बराबर
एक जगह अड़ा हुआ है

सब घूर रहे हैं अब भी
क्यों, क्योंकि
मेरे बगल में एक ट्रांस जो बैठी है।

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