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Hindi

कविता : सुलगते जिस्मों को हवा ना दो

By Rishabh Tyagi

October 03, 2018

सुलगते जिस्मों को हवा ना दो

खाख़ हो जायेगीं कोशिशें

न वो हमें देखते हैं, न हम उन्हें

नज़र वो अपनी थामे हैं, हम इन्हें

कुछ कहने की चाहत न उन्हें हैं, न हमें

वो बहाने ढूढ़तें हैं नज़दीक रहने के

हम दूर जाने से कतराते हैं

नज़र बचाकर जो देखा उन्हें

तो कमबख्त़ पकड़े गये

मानों टुक-टुकी लगाए बैठे थे

वो सज़ाए-इश्क देने को

बेचैनियों की लहरें हैं, के छौर नहीं

बदन को थामें हैं, पर दिल पर कोई जो़र नहीं

वो कुछ इस हरकत़ में है

के आशिकी उनकी फ़िदरत में है

रोकलो यहीं इन तुफ़ानों को

यें हवाओं के रुख़ से अलग हैं

दिवारें चिनवा दो, गैर हैं एहसास

पास होकर भी दूर कितनें

और दूर होकर भी पास|

सुलगते जिस्म़ों को न हवा दो

खाख़ हो जायेगा ज़माने का कानून

राख़ हो जायेगें नियम सभी

ढेर हो जायेगीं आबूरू उनकी

फ़ना आशिकी को कर दो

ब़हतर होगा जो जिस्म न मिलें,

यें एक जैसे हैं।