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कविता- रंगों की अहमियत

Picture credit: Raj Pandey / QGraphy

बचपन में रंगों को याद रखना बड़ा मुश्किल काम होता था
शायद तब जाती धर्म से पाला नही पड़ा होगा ?
इसीलिए तो लाल को गुलाबी और
हरे को नीला कहने पर टीचर्स से मार पड़ती थी।

तब लगता था रंगों से वाक़िफ़ होना
मानो ख़ुद से वाक़िफ़ होने जैसा है।

लेकिन आज तो पाठशालाओ में ही पता चल जाता है कोनसा रंग किस जाती का, धर्म का है।

वैसे रंगों से मैं उस वक़्त वाक़िफ़ हुआ
जब मैंने किसान को काली मिट्टी में
अपना भविष्य जोतकर हरे रंग की फ़सल उगाते देखा।

और रंगों की अहमियत को मैं तब समझ पाया जब नीले आकाश के नीचे बैठकर
मजदूर ईंट की भट्टी से लाल ईंट निकालकर धनिकों के सफ़ेद महल बना रहा था।

बहुत डर लगता था तब रंगों को छूने से
लेकिन जबसे तेरे होंठों को छुआ है
लगता है हर रंग में ख़ुदको घोल दूँ।

लेकिन कमबख्त तेरे होंठों की लाली भी मुझे दर्शाती है संस्कृति के नाम पर निकले खून को
जी तो चाहता है सारी संस्कृति को ही लाल रंग में घोल दूँ।

अब रंगों से नही
प्यार
मुहब्बत
इश्क
दर्द, इम्तहान से डर लगता है।

फिर भी वासना के लिए ही सही तेरे बदन को छूना चाहता हूँ।

लेकिन क्या करें?
शांत सी तेरी सफ़ेद आँखें
उसमें पितृसत्ता का निषेध करता काला काजल
तूने पहनी हुई नीले रंग की साड़ी
हरे रंग की चूड़ियां और लाल रंग से भरे तेरे होंठ अब नही ललचाते मुझे

क्योंकि तेरा यह नया रूप अब
न्याय
स्वतंत्र
समता और बंधुता लाना चाहता है।

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