बचपन में रंगों को याद रखना बड़ा मुश्किल काम होता थाशायद तब जाती धर्म से पाला नही पड़ा होगा ?इसीलिए तो लाल को गुलाबी औरहरे को नीला कहने पर टीचर्स से मार पड़ती थी।
तब लगता था रंगों से वाक़िफ़ होनामानो ख़ुद से वाक़िफ़ होने जैसा है।
लेकिन आज तो पाठशालाओ में ही पता चल जाता है कोनसा रंग किस जाती का, धर्म का है।
वैसे रंगों से मैं उस वक़्त वाक़िफ़ हुआजब मैंने किसान को काली मिट्टी मेंअपना भविष्य जोतकर हरे रंग की फ़सल उगाते देखा।
और रंगों की अहमियत को मैं तब समझ पाया जब नीले आकाश के नीचे बैठकरमजदूर ईंट की भट्टी से लाल ईंट निकालकर धनिकों के सफ़ेद महल बना रहा था।
बहुत डर लगता था तब रंगों को छूने सेलेकिन जबसे तेरे होंठों को छुआ हैलगता है हर रंग में ख़ुदको घोल दूँ।
लेकिन कमबख्त तेरे होंठों की लाली भी मुझे दर्शाती है संस्कृति के नाम पर निकले खून कोजी तो चाहता है सारी संस्कृति को ही लाल रंग में घोल दूँ।
अब रंगों से नहीप्यारमुहब्बतइश्कदर्द, इम्तहान से डर लगता है।
फिर भी वासना के लिए ही सही तेरे बदन को छूना चाहता हूँ।
लेकिन क्या करें?शांत सी तेरी सफ़ेद आँखेंउसमें पितृसत्ता का निषेध करता काला काजलतूने पहनी हुई नीले रंग की साड़ीहरे रंग की चूड़ियां और लाल रंग से भरे तेरे होंठ अब नही ललचाते मुझे
क्योंकि तेरा यह नया रूप अबन्यायस्वतंत्रसमता और बंधुता लाना चाहता है।