पॉल एक गाथा (२/८) | तस्वीर: फेबियन हार्टवेल |

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“पॉल – एक गाथा” – श्रृंखलाबद्ध कहानी (भाग २/८)

By Mahesh Nebhwani

April 16, 2017

कहानी ‘पॉल एक गाथा’ की पहली किश्त यहाँ पढ़ें। प्रस्तुत है भाग २:

डॉक्टर के आने के बाद मैं उनके पीछे-पीछे राउंड पर था। वो हर एक मरीज़ के पास रुककर उससे बात करते थे। अपने साथ आये रेसिडन्स डॉक्टरों के साथ उस मरीज़ और उसके इलाज और बीमारी के बारे में चर्चा करते। जैसे ही हम लोग ४ नं वाले मरीज के पास पहुँचे तो डॉक्टर ने अपने साथ आये डॉक्टरों को बतया कि यह हाई डिप्प्रेशन का केस था। उसने आत्महत्या करने की कोशिश की थी। इसी डिप्रेशन के कारण उसकी बोलने और समझने की शक्ति भी चली गयी थी। उसे हाल-फिलहाल भारी नशे की दवाई दी जा रही थी ताकि वो ज्यादा से ज्यादा वक्त सोया रहे और उसका दिमाग शांत रहे।

डॉक्टर ने बात करते-करते यह भी बतया की यह फ़्रांसिसी नागरिक है जो यंहा पिछले २ सालो से मेयो कॉलेज में पढ़ रहा है। लेकिन पिछले दिनों अपने एक दोस्त की आत्महत्या के बाद वो डिप्रेशन का शिकार हो गया था। और उसने पिछले दिनों खुद भी आत्महत्या करने की कोशिश की थी। इसी कारण उसे पुलिस कस्टडी मे रखकर हॉस्पिटल लाया गया है। उसे इस हालत मे वापिस फ्रांस भी भेजा नहीं जा सकता।

मुझे अब पॉल (४ नं पेशंट से) थोड़ी-थोड़ी सहानुभूति होने लगी थी। दिन के २ बजने को आये थे। मुझे भूख भी लगी थी सो मैंने कैंटीन से खाना मंगवाने के लिए अपने असिस्टेंट को कैंटीन से खाना लाने के लिए भेजने लगा। तभी मेरी नजर फिर से ४ नं वाले पेशेंट पर पड़ी। वो अभी भी सो रहा था। दवा का असर था। तभी मैंने अस्सिटेंट को रोककर कहा, “दो प्लेट ले आएँ।” थोड़ी देर में खाना भी आ गया। मैं खाना लेकर ४ नं वाले बेड पर चला आया। पॉल अभी भी सो रहा था। उसकी ड्रिप को मैंने जाकर बंद किया, और उसे उठाया।

वो बहुत कमजोर था। खुद उठकर बैठ भी नहीं सकता था। मैंने उसे बिठाया। वो अभी भी नींद में था। मैंने मुस्कराते हुए हाथ के इशारे से खाने के लिए बोला। वो सिर्फ हल्का-सा मुस्कराया। मैंने वेजीटेरियन बिरयानी और रगडा पेटिस मंगवाई थी। सो प्लेट आगे करते हुए, उसको चमच देने की कोशिश की। लेकिन वो उसे नहीं पकड़ पाया, वो बहुत ही कमजोर हो गया था। मैंने चमच अपने हाथ में ले लिया और उसे अपने हाथ से खिलाने लगा। धीरे-धीरे वो खा रहा था। लेकिन उसकी आँखे मेरे उपर से हटती ही नहीं थी। न जाने क्यों पर ऐसा लगता था, वो बहुत कुछ कहना चाहता है।

उसने आधी प्लेट ख़तम करने के बाद हाथ उठाया और अपना सिर हलके से हिला दिया, मानो कह रहा हो ‘बस’। मैंने उसे पानी दिया। थोडा-सा पानी पीकर वो वैसे ही बैठा रहा। मैंने प्लेट उठाई और धोने के लिए पेंट्री की तरफ चला गया। वापस लौटकर आया तो देखा वो बैठे-बैठे ही सो गया था। मैंने उसे लिटाते हुए फिर से उसकी ड्रिप लगा दी। न जाने क्यों मुझे पॉल बहुत प्यारा-सा लगने लगा था। वैसे तो मुझे हॉस्पिटल में काम करते हुए काफी वक़त हो गया है। और काफी सारे मरीज मेरे सामने आये और चले गए। लेकिन किसी के साथ भी वो फीलिंग नहीं आई थी जैसी पॉल के लिए थी।

शाम को ४ बजे एक पुलिस वाला उसे देखने आया तो मैंने उससे गुस्से में कहा कि उसे सम्भालना उसकी ड्यूटी है। तो उसने बहाने मारते हुए कहा, “मैं कहाँ-कहाँ ड्यूटी दूँ, थाने भी जाना पड़ता है!”, इत्यादि इत्यादि…। मैंने अपना लास्ट राउंड लिया। दवाएँ और इंजेक्शन वगैरह मरीज़ों को दीं। मेरी ड्यूटी ५ बजे ख़त्म होने वाली थी। मैं अगली पाली में आनेवाले कम्पाउंडर का इंतजार कर रहा था। जैसे ही वो आया, मैंने उसे चेकलिस्ट संभलाई और निकलने लगा।

अचानक ही मुझे पॉल का ख्याल आ गया। रात को उसे खाना कौन खिलायेगा? वो खुद तो नहीं खा पायेगा। तो मैंने सुनील (कम्पाउंडर जो मेरी जगह रात को बैठनेवाला था) को जेब से १०० रूपये निकाल कर देते हुए कहा, “यार रात को ४ नं वाले मरीज के लिए कुछ खाना मंगवा लेना और उससे खिला भी देना। वो बहुत कमजोर है और उसके परिवार या जान-पहचान वाला कोई भी नहीं है।” सुनील ने पैसे लेते हुए पुछा, “कोई जान-पहचान वाला नहीं है?

मुझे समझ नहीं आ रहा था कि क्या कहूँ। मैंने हलके से हा कहते हुय सिर हिला दिया, और मैं वहाँ से निकल गया। बाइक पर घर लौटते हुए मैं सोच रहा था कि मैंने ऐसा क्यों किया। घर पहुँचकर अपने नित्यकर्म निपटाते हुए जब शाम को टी.वी देख रहा था, तभी मम्मी को मैंने कहा: “मम्मी, सुबह थोडा दूध गर्म कर के फ्लास्क में दे देना।” और मम्मी को पॉल के बारे में बताया।

रात को जब सोने गया तो न जाने क्यों दिमाग में पॉल ही था। क्या हुआ होगा उसके साथ? उस दोस्त से उसका इतना गहरा रिश्ता था कि उसके आत्महत्या करने से वो इतना डिप्रेस हो गया था? उसके परिवार वाले या उसके कॉलेज वाले कोई भी उससे मिलने क्यों नहीं आते? ये सब सोचते-सोचते कब आँख लग गयी पता ही नहीं चला।

आज ड्यूटी सुबह ७ बजे से थी सो ६ बजे उठ के फटाफट तयार होकर घर से निकल रहा था। तभी मम्मी मेरा नाश्ता और साथ में पॉल के लिए फ्लास्क में दूध और दूसरे फ्लास्क में कॉर्नफ्लेक्स ला कर दिया। मम्मी ऐसी ही थी, बहुत बड़े दिल वाली। अगर किसी की भी मदद करनी हो तो जितना माँगा गया हो, वो उससे ज्यादा ही करती। मैं फटाफट हॉस्पिटल के लिए निकल पड़ा पहुँचकर यूनिफार्म पहनकर वार्ड में पंहुचा और सुनील से चार्ज लेने लगा। आज सुबह की ड्यूटी थी सो ४ मरीजो को स्पंज और उनके कपडे भी बदलवाने थे। दुसरे मरीजो को नर्स और असिस्टेंट्स करवाएँगे।

मैंने जल्दी-जल्दी चार्ज लेते हुए सुनील से पुछा, “रात को सब ठीक था न?” उसने कहा, “हाँ सब ठीक था। तुम्हारे पहचानवाले को खाना भी खिला दिया। मैंने उसे धन्यवाद कहा, और वो चला गया। २ मरीज़ों को अभी दवाई और इंजेक्शन देने थे। सो उन्हें देकर मैं पॉल के बेड के पास पहुँचा। वो अभी सो ही रहा था, एकदम किसी अबोध बच्चे की तरह। दोनों हाथ अपने घुटनों में दबा कर, न जाने क्यों वो बहुत प्यारा लग रहा था। मेरे हाथ अचानक ही उसके सिर पर उसके बालो में हाथ फेरने लगे। और तभी उसकी आँख खुल गयी। मैं थोडा झेप-सा गया।

कहानी ‘पॉल एक गाथा’ की तीसरी किश्त यहाँ पढ़ें।