'नया शहर' - एक कहानी। तस्वीर: सचिन जैन।

Hindi

‘नया शहर’ – एक कहानी

By कपिल कुमार (Kapil Kumar)

March 28, 2015

नया शहरथा, उसकी नींद आज फिर टूट गयी। वो सकपका कर जगा; कुछ वक़्त तक वो समझने की कोशिश करता रहा ,कहाँ है वो? बचपन में भी वो यूँ ही जग जाया करता था। दादी उस पर खीजती थी। कहती थी, “बाहर सुलाया कर इसे नींद ख़राब.. ..।” उन रातो को माँ उसके पास चली आया करती थी… उसकी उलझन भरी आँखों को बंद करते हुए कहती थी …. “सो जा अपने ही घर है तू।”

दादी कहती थी इसके पाँवों में फेर है; ये कही टिक नहीं पाता है। जब वो पहली बार घर से बाहर निकला था तो वो बीस का भी नहीं था; वो हल्की-हल्की मूछें रखने लगा था; शायद उसकी शादी की बात भी चल रही थी; पर उसके पाँवों में फेर था । तब से उसने कई शहरो में डेरा डाला ,पर बसने से पहले फिर चल पड़ा। इन सालो में वो गिनी चुनी बार ही घर लौटा। इन सालो में शहरो के अलावा भी काफी कुछ बदला; वो अब बस नीचे देखकर चलने लगा था; कुछ-कुछ नास्तिक हो गया था; कम बोलने लगा था; वो फसा-फसा लगता था। धीरे-धीरे शादियों होने लगी। भाइयों की…….. बहनों की … पड़ोसियों की… . दोस्तों की; कई बार वो जाता, कई बार नहीं भी।

उसे याद है एक बार वो बड़े दिनों बाद घर लौटा था; उलझा-सा था। माँ ने चौके के पास ही थाली लगायी थी; घी डालते हुए माँ ने उसका हाथ पकड़ कर पूछा था “बता क्या छुपा रहा है?” वो कुछ बोल नहीं पाया; और नीचे देखने लगा; शायद आँसू ही छुपा रहा था। वो कुछ बोल नहीं पाया।

रात खत्म हो चुकी थी ; सकपका के जग ये शहर अब सुस्ताने लगा था। दिन चढ़ने लगा था; रोशनदान से होकर एक धूप का टुकड़ा सरकते-सरकते उसके पास तक आ पहुँचा था ,और वहीँ ठिठक गया था। उसे ऐसी ही कुछ दोपहर याद है; और रोशनदानों से सरककर धूप भी; कुछ कहकहे भी; कुछ चैन से भरे पल, किसी के साथ बिताये पल। पर कितनी ही दोपहरों से वो अकेला ही है। अब वो धूप का टुकड़ा भी दूर खिसकने लगा है।

उसका रोने का मन कर रहा है, वो चाहता है की बेतहाशा रोए टूटकर। पर वो रोएगा नहीं । वो तब भी नहीं रोया था जब दादी नहीं रही थी ; उसे घुटा-घुटा लगता था पर वो रोया नहीं था। दो दिन लगातार ट्रैन में सफर कर पहुँचा था। उसका दिमाग साये बाये कर रहा था। हर चीज रुक कर चल रही थी। लोग उसके पास आते। क़हते थे दादी की यही आख़री इच्छा थी कि तेरा घर बसा देखे। वो बस सर हिलाता रहा। माँ ने कुछ नहीं कहा। बहुत सी बाते की। जैसी माएँ अक्सर करतीं हैं: कि “क्या खाता है? पतला हो गया है … मन लग गया नए शहर में? खुश है न?” पर दादी और उनकी आख़री इच्छा के बारे में कुछ नहीं कहा।

लौटते वक़्त माँ ने जल्दी लौट आने को कहा।

और वो आया भी। । माँ मर रही थी, बिना किसी आख़री इच्छा के, उसका हाथ पकडे हुए जैसे उस दिन चौक पर पकड़ा था और पूछा था “क्या छुपा रहा है?” उससे आज भी जवाब देते नहीं बन रहा था। वो नीचे देख रहा था।

सबने पूछा भी: “कोई आख़री इच्छा? छोटे की शादी करा दे?” माँ चुप ही रही, उसका हाथ कसकर पकडे रही। जब भी लम्बी बेहोशी के बाद माँ को होश आता था, वो उलझन-भरी निगाहों से चारों ओर देखती रहती। वो माँ का हाथ थामते हुए कहता “सो जा माँ अपने ही घर हैं हम।”

माँ चली गयी बिना कुछ माँगे।

वो किसी को कुछ दे पाया, अपने आप को भी नहीं।

उसे भूख लगी थी। बगल-वाली खोली वाली से आया समोसा खाने लगा। वो जानता था ये गँवार औरत दो दिन समोसा देगी; पाँच दिन यूँ बालकनी में बाल बनाएगी, घंटे भर, सजा करेगी ; बात बेबात पर बात करेगी, मुस्कुराया करेगी। उसके बाद हफ्ते दो हफ्ते बाद उसकी शिकायते शुरु हो जाएगी “हम गृहस्ती वालो के बीच में इस बेचलर …. ।” समोसा बेस्वाद था।

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वो बस लेटा रहा। शाम को धीरे से उठा। उसका नया कमरा बिखरा सा था। नहा-धोकर जींस टी शर्ट डालकर वो निकल पड़ा। उसे महसूस हुआ कि अब उसकी तोंद निकलने लगी है।

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अँधेरा घिरने लगा था । एक बार फिर वो किसी नए शहर के नए रेलवे स्टेशन पर था। गंदगी पसरी पड़ी थी; लोग बिछे पड़े थे। लोगो की भीड़ आ रही थी, लोगो की भीड़ जा रही थी। पर वो वहीं था और न उसे कहीं जाना था । कई लोग उसे घूर कर देखते जैसे कह रहे हों कि “हम जानते हैं”। शायद वो भी उससे सालो पहले यहाँ यूँ ही खड़े रहते हों; जब उन्हें ये शहर ठीक से पहचानता नहीं था। उन धिक्खार-भरी नज़रो में असल में जलन और मजबूरी थी।

खड़े खड़े उसके पाँव दुखने लगे थे; वो अब बाद लेटना चाहता था।

पीछे से लड़खड़ाता हुआ आदमी आया; वो उससे टकराता हुआ गया; फिर उसी को देखते हुए आगे बढ़ गया।

वो इस छुअन और निगाहों को पहचानता था । कितना कुछ छीन लिया है इस स्पर्श और नज़रो ने उससे। पर फिर भी वो वही खड़ा है, हर बार की तरह; नए पर जाने पहचाने स्पर्श और नज़रो के लिए, तड़प रहा है, फिर निचोड़े जाने के लिए। वो तेज़ कदमो के साथ उसी और गया जहाँ वो शराबी गया था। शराबी जो आगे वाले मोड़ पर खड़ा था, मुस्कुरा दिया। अब हल्के-हल्के क़दमों से चलने लगा, पीछे देखते हुए। पीछे वो न जाने क्या सोचते हुए पाँव घसीटते हुए बढ़ा आ रहा था; लगातार और अँधेरी, और बदबूदार, और सकरी होती गली में। वो हज़ारो बार ऐसी ऐसी गलियो में आया है; और हर बार कुछ खोकर ही आया है। कितनी बार वो चिल्लाया है; कितनी बार वो चिल्ला भी नहीं पाया है।

कई बार वो चुप रह कर बड़बड़ाया है “ये बस सपना हो, मेरे बुरे सपनो जैसा। …. मै सकपका कर जगूँ। … दादी खीच खीच करे । माँ दुबका कर सुला दे। ……….. सो जा अपने ही घर है तू।”