मेरा नाम रेबीना सुब्बा है। मैं एक वकील और सामाजिक कार्यकर्ता हूँ। मेरे राज्य मेघालय की राजधानी शिलोंग में मैंने और बथशीबा पिंगरोपे, जो स्वयं शिलोंग की लीगल फ्रैटर्निटी का हिस्सा हैं, ने ‘शमकामी’ नामक संस्था स्थापन की है। हम दोनों शिलोंग बार एसोसिएशन के सदस्य हैं। ‘शमकामी’ इस शब्द का मतलब है वह जो अपने समान किसी को चाहता है। यह पुरुषों के साथ सैक्स करने वाले पुरुषों, और ट्रांसजेंडरों के लिए पहला रजिस्टर्ड सगठन है। २७ जनवरी २०१० को ‘मेघालय सोसाइटीज एक्ट’ (१९८३) के तहत हमारा रजिस्ट्रेशन हुआ। हम महिला सैक्स वर्करों और पुरुषों के साथ सेक्स करने वाले पुरुषों के लिए यहाँ का पहला ‘कोर कम्पोज़िट टार्गेटेड इंटरवेंशन (एक योजनापूर्ण लक्ष्य) के लिए कार्यक्रम’ चलाते हैं।
मेघालय के समलैंगिक और अन्य लैंगिक अल्पसंख्यक समुदाय के बारे में बात करूँ, तो यह समाज बहुत अदृश्य है क्योंकि इसके सदस्य छिपे हुए हैं। कुछ क्रॉस-ड्रेसर्स हैं लेकिन हिजड़ा समुदाय नहीं के बराबर है। क्रॉस-ड्रेस करने वालों में शहर में अपना चहेता पेहराव पहनकर घूमने की हिम्मत है। जब उनसे पुछा जाए तो वे अपनी पहचान सही-सही बताते हैं।
इस राज्य में क्रिस्टी धर्म का प्रभुत्व है। अतः हर गिरिजाघर और उनके धार्मिक गुरुओं की इस विषय पर राय भी अलग-अलग है। साधारणतः इनमें समलैंगिकता को मान्यता नहीं है। इसलिए मुझे वे क्वीयर लोग बहुत अच्छे लगते हैं, जो बाहर निकलकर, सामने आकर अपने बारे में बताने का सामर्थ्य रखते हैं। मेघालय का क्रिस्टी समुदाय कुछ मामलों में रूढ़िवादी है तो कुछ बातों में उदार। उदाहरणतः हमारे राज्य में हम एक मातृवंशीय (मैट्रिलिनेअल) समाज व्यवस्था में विश्वास रखते हैं। औरतें सक्षम हैं, लेकिन घरेलु हिंसा भी बढ़ रही है। हमारे यहाँ कन्या गर्भभ्रूण, शिशु हत्या या बाल-विवाह जैसी समस्याएँ नहीं हैं। महिलाएं हमारे समाज में सुरक्षित हैं। उनके खिलाफ भेदभाव नहीं होता और उन्हें कमज़ोर नहीं माना जाता। महिला सैक्स वर्करों, पुरुषों के साथ सेक्स करने वाले पुरुषों और ट्रांसजेंडरों के साथ काम करने से पहले मुझे चर्च लीडरों से धमकियों के अनेक फ़ोन आये। उन्होंने माँग की. कि मैं इस विषय पर काम नहीं करूँ। लेकिन वे मुझे रोक नहीं पाए।
कुछ लोगों पर कलंक लगाकर उनके विरुद्ध भेदभाव किया जाता है। मगर इसके बारे में ज़यादा बात नहीं होती और लोग अंदर ही अंदर मामले सँभाल लेते हैं। ज्यादातर ऐसी घटनाएँ तो रिपोर्ट भी नहीं होती हैं। हमारी संस्था शुरू करने का एक अहम् कारण था नशीली दवाओं के दुरूपयोग और एच.आई.वी./एड्स के क्षेत्रों में काम करना. इस प्रोजेक्ट को चलाते समय हमने काफी सारे ‘हाई रिस्क ग्रुप’ (वे लोगों के गुट जिन्हें जोखिम ज़यादा है) देखें। वह गुट उन पुरुषों का है जो दुसरे पुरुषों के साथ सेक्स करते हैं। वे इस प्रोजेक्ट या अन्य संस्थाओं के द्वारा चलाए जाने वाली परियोजनाओं के दायरे में नहीं आ रहे थे। लेकिन सच तो यह है, कि इस गुट को एच.आई.वी./एड्स का खतरा ज़यादा है, असुरक्षित यौन सम्बन्धों की वजह से। उन्हें कलंकित करके उनके साथ भेदभाव किया जाता है। वे हमेशा डरे हुए रहते हैं और अपने आप को खुली तरह व्यक्त नहीं कर पाते। भावनिक, सामाजिक और आर्थिक दृष्टी से भी वे सुरक्षित नहीं हैं। इसलिए वे छुपे रहते हैं। इलाज की सुविधाओं से वंचित रह जाते हैं या उनकी अनदेखी करते हैं। उनकी समस्याएँ और अन्य लैंगिकता अल्पसंख्यकों के मुद्दे समझना ज़रूरी था, इसलिए शमकामी ने उनके साथ काम करना शुरू किया।
हम चाहते हैं की लैंगिकता अल्पसंखयकों को समानता और इज़ज़त की ज़िन्दगी मिले. समाज उनकी कठिनाइयाँ समझे, खासकर नयी पीढ़ी के नौजवानों की। वे सुरक्षित ज़िन्दगी जियें और उनमें लैंगिकता के मसलों पर जागरूकता हो। मिसाल के तौर पर ज़रूरत होने पर उन्हें कंडोम मिलें। मानव अधिकारों का ज्ञान हो। उनके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए उन्हें काउंसेलिंग और चिकित्सा के लिए सहायता मिले।
कुछ कोतियों को उनके परिवार आसानी से स्वीकार करते हैं और उन्हें लड़कियों के कपडे पहनकर यहाँ-वहाँ उनकी मर्ज़ी के अनुसार जाने देते हैं। लेकिन कुछ कोतियां अपने पेहराव की बात घरवालों से छुपाते हैं और घर पर लड़कों या बेटों की तरह रहते हैं। कोती समुदाय के डिज़ाइनरों और ब्यूटीशियनों को समाज क़ुबूल करता है।
पिछले साल कोलकाता की प्राइड वाक में ‘शमकामी’ संस्था ने भाग लिया था। इस तरह का कुछ हम अपने राज्य में भी आयोजित करें, ऐसी तीव्र इच्छा हम में भी है। लेकिन समाज के सदस्यों को खुले-आम सड़कों पर चलने से डर था। उन्हें डर था कि उनके मोहल्ले के लड़के या रहनेवाले उन्हें पहचानेंगे और परिवार वालों के सामने बेनक़ाब करेंगे। शिलोंग एक छोटा शहर है। लोग आसानी से पहचाने जाते हैं। इसलिए हम चाहते थे कि भारत के सारे पूर्वोत्तर राज्यों की एक साथ प्राइड वाक हो ताकि हम सब उसमें सहभागी हो सकें।
गुवाहाटी के परेड में चलते हुए मुझे गर्व महसूस हुआ। दुनिया को बताने में अभिमान था कि हम भी मौजूद हैं। यह एक खूबसूरत अनुभव था जो उस वक़्त मेरी रगों में दौड़ रहा था। बड़े शहरों में जो क्वीयर लोगों के आंदोलन हो रहे हैं, वे बहुत अच्छे हैं। उनकी परेडों में बड़ी संख्या में लोग हिस्सा लेने के लिए आते हैं। लेकिन हमारी आवाज़ें भी सुनाई देनी चाहिए। क्या हम भारत के सभी शहरों से टास्क फ़ोर्स टीम बनाकर एक एडवोकेसी की दृष्टि से (हमारे पक्ष का समाज में समर्थन बढ़ाने के लिए) बातचीत कर सकते हैं? इससे शायद हम भविष्य में आने वाले बदलावों की दिशा में कुछ क़दम उठा सकते हैं। सबसे ज़रूरी है की हममें एक हो, हम एकजुट होकर आवाज़ उठाएँ।
मेरी अपनी निजी राय है कि भारतीय दंड संहिता की धारा ३७७, समलैंगिकों को भारतीय संविधान की प्रस्तावना में प्रतिष्ठापित न्याय, स्वतंत्रता और समानता के ध्येयों को नकारती है। अतः लैंगिकता अल्पसंख्यकों को समान संरक्षण नहीं मिल रहा है जो असमानता को बढ़ावा दे रहा है। ये ध्येय संविधान के बुनियादी वैशिष्ट्य हैं। धारा ३७७ द्वारा उनका स्पष्ट रूप से उल्लंघन होता है। इलसिए न्यायलय को इसमें हस्तक्षेप करना अनिवार्य और ज़रूरी है।
– रबीना सुब्बा वकील हैं और उन्होंने शिलोंग, मेघालय में ‘शमकामी’ संस्था स्थापित की है।