कभी-कभी लगता हैं, बस हम एक साथ चलें
न कुछ बातें हों,न कुछ इशारें।
न एक दूसरे पर हक़ हो,न कुछ पाने की आस
बस एक उम्मीद हो
अगर कभी ठेस लगी तो संभालने के लिए होगा एक हाथ
पर
न कुछ बातें हो, न कुछ इशारें।
तनहाई अकेली आई थी
या अकेला था इसलिए तनहाई आई थी?
हाँ, थक गया हूँ, शब्दों के खेल से
कितने सावन बीत गए थे, दर्जनों यादें बनायीं थीं
तरस जाता था छूने को, अब डर जाता हूँ याद करने को
फिर भी चलते रहता हूँ शायद, बिना ज़िक्र किए कि तुम हो संग
आज, अभी, इसी पल
कभी नहीं मिलेंगी हमारी राहें, पर मिलकर भी हम क्या करेंगे
क्योंकि कभी भी , कुछ भी हो सकता है इसलिए
न कुछ बातें हों, न कुछ इशारें।
कुछ पढ़ते हैं, कुछ सुनते हैं
मनाते हैं आँसुओं का त्यौहार
कभी ट्रेन की पटरी तो कभी इन्द्रधनु की छबि
छोटी-छोटी चीज़ों में ही ढूँढ़ते हैं भगवान्
अलग हैं शब्द, न मिटने वाले दर्रे और कुछ बेनाम विचारों के धागे
फिर भी चलो संग, जितना हो सके उतना ही
और मुड जाना ‘ऐसे ऐसे करके’ कभी मन करें तो
होठों पर मासूम-सी हँसी उतरेगी, पर तुम आश्वस्त से जाना
क्योंकि,
तब तक शायद मिट गए होंगे एक साथ छोड़े हुए कदमोंके निशान।
और ऐसा लगेगा तुम थे ही नहीं,
क्योंकि,
न कुछ बातें हों, न कुछ इशारें।
- ‘बारिश’ – एक कविता - September 30, 2014
- न कुछ बातें हों, न कुछ इशारें – एक कविता - August 31, 2014