मेरा नाम जवारे टेंगरा है। मैं कराची, पाकिस्तान में जन्मा, पला और बढ़ा समलैंगिक हूँ। यह मेरी कहानी का पहला भाग है।
१९६२ में मेरा जन्म पाकिस्तान के कराची शहर के जहाँगीर बाग़ इलाक़े के ‘बाई गुलबाई मैटरनिटी होम’ में हुआ। मेरे जन्म के २ महीने पहले तक, १९४८ से १९६२ तक मेरे माँ-बाप श्रीलंका में रहते थे। वे दोनों पाकिस्तान से थे, लेकिन कलम्बो में मेरे पिताजी का कारोबार था, इसलिए वे वहाँ रहने चले गए थे। मेरे भाई-बहन श्रीलंका में बड़े हुए। मेरी माँ मुझे लेकर ७ महीने पेट से थी, जब वे कलम्बो छोड़ कराची आए। मेरी दो बहनों की उम्र ६ और ८ साल थी, मेरे भाई की १० साल। उन तीनों के बीच २-२ सालों का फासला, अने पछी हूँ आवी गयो सात वर्ष बाद! मुझे कहा भी गया, ‘हाँ, मिस्टेक आवी गयी, मगर हवे आवी गयी तो बस”! तो मैंने जवाब दिया, “अरे, अगर ऐसी ‘मिस्टेक’ की तो २ महीने कलम्बो में और ठहर जाते, मुझे वहाँ जन्म दिया होता, ताकि मेरे पासपोर्ट पर होता ‘बोर्न इन कलम्बो’ बजाय ‘बोर्न इन कराची’ के। इंडिया आने का वीज़ा मुझे कितनी ज़्यादा आसानी से मिलता यहाँ से! लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
हम कराची के ‘सिंधी मुस्लिम कोआपरेटिव हाउसिंग सोसाइटी’ में रहते थे। हमारा एक बड़ा पारसी परिवार था। मेरे १०-१२ ममेरे भाई-बहन, और ९ मामू-मासीयाँ थे। पिताजी के परिवार की तरफ से ६-७ चाचा-फूफियाँ थे और ७-८ चचेरे भाई-बहन। हाला कि परिवार रिवायती पारसी परिवार था, मेरा बचपन किसी पारसी कॉलोनी में नहीं गुज़रा। इस बात के लिए मैं शुक्रगुज़ार हूँ। मैं बड़ा हुआ कराची में, पारसी लोगों के बीच लेकिन हम रहते थे कॉस्मोपोलिटन सोसाइटी में। हमारे पड़ोसियों में सिंधी, शिया, इस्फ़हानी, बांग्लादेशी, शिराज़ी इत्यादि थे। यह बहुत अच्छी बात थी। क्योंकि मुझे दीगर तहज़ीबों के बारे में जानने को मिला। अगर मैं कॉलोनी में होता तो मैं ‘पूरा पारसी’ ही बन जाता!
जब आपकी परवरिश किसी विशेष समुदाय के भीतर होती है तो वह समुदाय आपकी दुनिया बन जाता है। मेरे स्कूल, क़रीबी दोस्त, डाक्टर, हस्पताल सब पारसी थे। हम पारसी लगन में शरीक होते थे, और सालगिरह कि पार्टियों में भी बहुतांश बच्चे पारसी हुआ करते थे, यहाँ तक कि जब न्योता आता तो आपस में हम पूछते, “पारसी पार्टी छे कि मुस्लिम पार्टी छे?‘। मेरी मातृभाषा गुजराती है, और घर पर हम वही बोलते थे। मैं अंग्रेजी माध्यम की स्कूल में था। हम बड़े होते हुए गुजराती और इंग्लिश का मिश्रण बोलते थे, और इस मिश्रित भाषा को हमने ‘गुजाइश’ नाम दे दिया।
शनिवार रात को हम भाई-बहन कराची के सदर इलाक़े में ‘मेहता बिल्डिंग’ में रहने वाली मेरी दादी के यहाँ जाते थे। हर हफ्ते डिनर में धनसक हुआ करता था। खाना खाने के बाद हम ब्लैक एंड वाइट टी.वी देखने एक कमरे में बैठ जाते थे। यह अनुभव हमारे लिए पूरे सप्ताह के पश्चात एक पुरस्कार की तरह था, क्योंकि उस समय शनिवार को रात को उर्दू फिल्म दिखाई जाती थी। बच्चे ज़मीन पर, बड़े पीछे कुर्सियों पर। रविवार को कभी-कभार हम समुन्दर के किनारे जाते थे। कराची में कुछ ऐसी जगहे हैं जहां पर आप समुन्दर के क़रीब बने छोटे ‘शैक्स’ या झोपड़ियां भाड़े पर ले सकते हैं। कराची की कोई बात अगर मैं सबसे ज़्यादा याद करता हूँ, वह है बीच पर जाना, अरबी सागर को निहारना। अच्छी, आरामजनक ज़िन्दगी थी।
१९७५ में, तरह साल कि उम्र में, भारत-पाकिस्तान कि दूसरी जंग के आस-पास, मुझे बम्बई आने का मौक़ा मिला। मेरी फुई वहाँ रहती थी। यह मेरी पहली विशेष यात्रा थी। मैं एक फैमिली फ्रेंड के साथ आया, जिसके कुछ रिश्तेदार बम्बई में रहते थे। उसकी माँ अहमदाबाद में जन्मी थी, उसकी मासी कुलाबा में रहती थी। उस समय मैं समझता था कि वह स्ट्रेट था, हालांकि अब जानता हूँ कि वह भी गे है। मेरी ही उम्र का था, और वह पहले अलग-अलग जगहों पर यात्रा कर चूका था। तो मेरे माँ-बाप ने कहा, ‘ज़ुबिन जाई रह्योछ बॉम्बे तो तूने भी एनी साथ आपलोको मोकलविए’. मैं इतना उत्सुक और उत्तेजित था! पहली बार प्लेन में बैठना! मैं बम्बईवाले परिवार वालों से परिचित था, क्योंकि वे वहाँ से कराची आया करते थे। तब ऐसा सफर कोई मामूली चीज़ नहीं थी। मैं पाकिस्तान के अंदर सिंध, बलोचिस्तान और पंजाब सूबों में क्वेटा, हैदराबाद, लाहौर वगैरह जा चूका था। लेकिन एक नए देश इंडिया में, बॉम्बे शहर में जाना? प्लेन में जाने कि उत्कंठा ज़बरदस्त थी। ‘प्लेनमा केवू लागसे, उलटी लागसे, एयरबैग थसे, ने पॉकेट थसे’ सोच-सोचकर मुझे पिछली रात नींद ही नहीं आई।
बम्बई में लैंड करने के बाद, देखा कि फुई, फूफा, मेरे फूफीज़ाद भाई और बहन फ्रेनी आये थे हवाई अड्डे पर हमारा स्वागत करने। जब हम एयरपोर्ट से निकले, मुझे याद है बम्बई की बू, या खुशबू। वह अब भी मैं अपने मुह में महसूस कर सकता हूँ। अर्धु पेट्रोल अने डीजल अने अर्धु कचरो अने कुछ और! जब गाड़ी चौपाटी और मरीन ड्राइव पहुंची, मैंने नज़ारा देखा और मुझे बम्बई से प्यार हो गया। मैं सिर्फ एक महीने की लिए रहने वाला था, गर्मियों कि छुट्टी में, लेकिन मैंने अपने वीज़ा की अवधि बढ़ाकर ढाई महीने बिताए!
गर्मियां ख़त्म होकर बारिश शुरू हुई थी। रोज़ सुबह मैं उठता, बारिश देखता। मुझे कुलाबा में अकेले टहलने की अनुमति थी। मैं गेटवे ऑफ़ इंडिया जाता, वहाँ खड़ा रहता, वहाँ से बस लेकर मैं फ़्लोरा फाउंटेन जाता। मेरे पिछले जनम में १००% या तो मैं मुंबई में था, या ज़रूर मेरा मुंबई का साथ कोई नाता रहा होगा। फिर मैं ताज महल होटल जाता। अपने ख़राब चप्पल, रेनकोट, छाता, गम्बूट्स पहनकर, जो मुझे उस वक़्त बड़े ‘कूल’ लगते। उस वक़्त यह बात मैं समझता नहीं था, लेकिन शायद गे लड़कों को इस तरह विशेष पोशाख चढ़ाकर बाहर जाना अच्छा लगता था। मेरे कज़िन शर्मिंदा होते, लेकिन मैं रिसेप्शन तक चलकर जाता और वहां एक सुन्दर लम्बे बालों वाली लड़की साड़ी पहने हुए होती। रोज़ फुई मुझे ३ रूपए देती थी, ताज की ‘ला पातिसेरी’ बेकरी से ‘लेमन टार्ट’ खरीदने की लिए।
फ्रेनी ने मुझे पूछा, क्या तुमने इंडियन मूवी देखी है? उस समय जब हम कराची में जिस माहौल में बड़े हो रहे थे, भारतीय फिल्में कोई बड़ी बात नहीं थी। हम प्रायः अंग्रेजी फिल्में देखा करते थे। ‘इंडियन मूवी गरीबो जोए’, ऐसे हम कहते थे! फ्रेनी ने कहा, “ऐयाँ तो बद्धा इंडियन मूवी जोए, गरीब अने अमीर नु फरक नथी.”। तो मैंने कहा, ‘चलो चालो जइए’। और पहली भारतीय फिल्म जो मैंने देखी वह थी १९७६ में प्रदर्शित हुई ‘भँवर’, जिसमें रणधीर कपूर, परवीन बाबी और अशोक कुमार ने किरदार निभाये। मुझे भी बॉलीवुड से, और ख़ास कर अभिनेत्री परवीन बाबी से प्यार हो गया। मैंने अपने आप से कहा ‘खोदा, जब मैं बड़ा हो जाऊँगा तब मुझे बिलकुल इन कि तरह बनना है!’
जवारे की जीवन कहानी का दूसरा भाग (२/७) पढ़ें नवम्बर २०१४ के अंक में।