दिल्ली की मशहूर जामा मस्जिद के निचे एक लाल रंग की मज़ार है।वह मज़ार है सूफी संत सरमद शहीद कशानि की। जब आप इनकी कहानी सुनेंगे तो आप अपने दोस्तों में, जानने वालों में, इनके बारे में बात ज़रूर करेंगे। आपका ज़्यादा वक़्त न लेते हुए मैं सीधी इनकी कहानी पर आता हूँ।
1590 में ईरान के कशन नाम के शहर में एक यहूदी परिवार में एक लड़के का जन्म हुआ, नाम पड़ा शहीद। बचपन में ही माँ बाप का साया सर से उठ गया। बड़े हुए तो शहीद महँगी पुराणी चीज़ों और कला-संबंधी कारोबार करने लगे। एक दिन शहीद को किसी ने कहा, “शहीद तुम्हारे कारोबार के लिए सबसे अच्छी जगह हिंदुस्तान है। वहाँ के लोगों को कला और महँगी पुराणी चीज़ों की बहुत कद्र है और वहाँ की हुकूमत ईरान के सूफी विचारों से बहुत प्रभावित होती है।”
शहीद के दिमाग में ये बात घर कर गयी और एक अच्छे व्यापारी होने के नाते उन्होंने हिंदुस्तान के बारे में जानना शुरू कर दिया, की वहाँ के लोगों की सोच क्या है। ये शाहजहाँ का शाशनकाल था, जिसने ताजमहल बनवाया था, और जो औरंगज़ेब और दारा शिकोह के पीता थे। तो शहीद को पता लगा की वहाँ के लोगों को ज्ञान, अध्यात्म और सूफी संतो की भी बहुत कद्र है। सूफी विचारों को जानने के लिए शहीद ने ख़ानक़ाहों (सूफी फ़क़ीरों के रहने की जगह) में जाना शुरू कर दिया और धीरे-धीरे सुफिओं के विचार उन्हें बहुत प्रभावित करने लगे। और एक धन दौलत को एहमियत देने वाला इंसान सूफीवाद की ओर झुकने लगा। एक दिन वो ख़ानक़ाह से वापिस घर जा रहे थे तो उनपर एक फ़क़ीर की निगाह पड़ी। फ़क़ीर ने उन्हें देख कर कहा:
तुम जैसे परिंदे क़ैदों के पिंजरे तोड़ देते हैं, जब उड़ते हैं तो हवाओं का रुख मोड़ देते हैं, दो मक़बूल आँखों पे क़ुर्बान ऐसे होते हैं, के इस जग की बनाई हर रिवायत छोड़ देते हैं।
उनके कहने का अर्थ था : तुम वो आशिक़ रूपी परिंदे हो जो समाज के बनाए क़ानूनों वाले पिंजरों को भी तोड़ देते हैं। जब तुम जैसे लोग मोहब्बत की उड़ान उड़ने लगते हैं तो वो ये नहीं देखते की समाज ने हमारे लिए ये ही राह तय की है, हमें इसी ओर उड़ना है। हवा इस ओर की है तो उड़ना आसान होगा। तुम अपने मन मर्ज़ी की राह चुनते हो, चाहे वो मुश्किल ही क्यों ना हो, और तुम जैसे लोग हवाओं की दिशा तक मोड़ देते हैं। जब तुम जैसे लोग किसी को दिल देते हो तो समाज के नियमों को नहीं देखते, जिसमें कहा गया है की मर्द और औरत ही इश्क़ कर सकते हैं।
उस समय तो शहीद को ये बात समझ नहीं आयी पर जब आप ये पूरी कहानी पढ़ लेंगे तो आप लोगों को समझ आएगा की उस फ़क़ीर ने यह क्यों कहा। शहीद ने कुछ समय बाद कारोबार के लिए महँगी पुरानी चीज़ें ली और हिंदुस्तान के लिए निकल पड़ा। उसने रास्ते में थट्टा (सिंध, पाकिस्तान, जो पहले हिंदुस्तान का ही हिस्सा था) नाम के शहर में एक महँगी सी सराय (उस समय के होटल) में रहना शुरू किया। वो रोज़ उस शहर के बड़े बड़े मेह्खानो और दावतों में जाकर अपने सामान के लिए ग्राहक ढूंढ़ते, की कौन उसके महँगे सामानो को खरीद सकता है।
एक दिन एक संगीत समारोह में शहीद गए और वहाँ उन्होंने एक लड़के को गाते हुए सुना। उसकी आवाज़ उनके दिल की गहराईओं में उतर गयी। उस आवाज़ में एक अलग ही कशिश और रूहानियत थी की सराय में वापिस आकर भी शहीद के दिलो-दिमाग से वो आवाज़ निकल नहीं पा रही थी। वो अगले दिन की शाम का इंतेज़ार करने लगे की जा कर उस आवाज़ को दुबारा सुन सकें।
अगली शाम वो फिर उस संगीत समारोह में पहुँचे। वो लड़का फिर वहीँ गा रहा था। लोगों से पूछा तो पता चला के उस लड़के का नाम अभय चंद है और वो एक हिन्दू परिवार से है। अब ये रोज़ का क़िस्सा हो गया। शहीद शाम होने का इंतेज़ार करते की जा कर उस लड़के की झलक पा सकें और उसकी आवाज़ सुन सकें। शहीद सारा-सारा दिन अभय चंद के गाये गीतों की याद में खोये रहते। उन्हें समझ नहीं आ रहा था की उनके साथ क्या हो रहा है। वो क्यों अभय चंद की ओर खींचे चले जा रहे हैं। एक दिन शहीद को समारोह में पहुँचने में देर हो गयी, अभय चंद जा चूका था। वो बेचैन हो गए, सराय पहुँचे तो वहाँ भी दिल ना लगे तो वो शहर में घूमने निकल पड़े की दिल बहल सके।
सारी रात घूमते-घूमते निकल गयी पर बेचैनी वैसी की वैसी ही। फज्र की नमाज़ (दिन चढ़ने से पहले की नमाज़) का समय हो आया।थट्टा शहर की एक मस्ज़िद के बहार से वो गुज़र रहे ही थे तो मस्ज़िद से अज़ान की आवाज़ ने उन्हें रोक दिया।
ज़िन्दगी में एक पल ऐसा होता है जो आपकी पूरी ज़िन्दगी, आपकी सोच, सब बदल देता है।आपके अंदर छिपी हुई एक चिंगारी को शोला बना देता है। जो पल एक मूर्ख की ज़िन्दगी में अपनी पत्नी विद्योत्तमा के कारण आया और वो महान कवी कालिदास बन गए। जो पल एक कामी की ज़िन्दगी में अपनी पत्नी रत्नावली के कारण आया वो महा कवी तुलसीदास बन गए। आज वैसा ही एक पल शहीद की ज़िन्दगी में अभय चंद के कारण आया था। शहीद के अंदर की चिंगारी शोला बनने की राह पर थी।
किसी ने उनसे कहा की आप मस्जिद के बाहर क्या कर रहे हो नमाज़ का समय है, चलो अंदर। तो शहीद ने कहा पर मैं तो एक यहूदी हूँ, तो वो आदमी उन्हें मस्जिद में ले गया। मौलवी ने उन्हें कलमा पढ़ा कर इस्लाम क़बूल करवा कर मुसलमान बना दिया। अब सारे थट्टा में बात उड़ चली के एक ईरान से आये बड़े यहूदी व्यापारी ने इस्लाम क़बूल कर लिया है। तो थट्टा के ही एक ब्राह्मण ने शहीद की चर्चा सुन कर उसे अपने यहाँ दावत पर बुलाया। वहाँ दावत पुरे रंग में थी तभी एक लड़के ने प्रवेश किया और शहीद दीवानों की तरह उन्हें देखने लगे।सारी महफ़िल की नज़र इस बात पर गयी के उनका मेहमान किसे देख रहा है। तो उस ब्राह्मण ने शहीद से उसका परिचय करवाया, की यह मेरा बेटा अभय चंद है।
अभय चंद और शहीद में बातें शुरू हुई तो घंटों बीत गए। उन दोनो के बीच में एक अलग ही मेल बन गया। अब शहीद ने रोज़-रोज़ ब्राह्मण के घर आ कर अभय चंद से मिलना शुरू किया। वो दोनो घंटो अभय चंद के कमरे में बैठे बातें किया करते। शहीद की दीवानगी का ये आलम था के उन्होंने शायरी शुरू कर दी। कलम और शायरी में ही उन्होंने खुद को “सरमद” उपनाम दिया। शहीद लिखते और अभय चंद गाते। ये जहान से निराला रिश्ता लोगों की समझ से बाहर था, तो लोगों ने क़िस्से बनाना शुरू कर दिए। इश्क़ और मुश्क़ छुपाये नहीं छुपते। आपसे पहले लोगों को पता चल जाता है की आपको किसी से मोहब्बत हो गयी है। यहाँ भी यही हुआ। ये मोहब्बत रोज़ बढ़ती ही जा रही थी।
वो दोनो घंटो अभय चंद के कमरे में बैठे बातें किया करते। शहीद की दीवानगी का ये आलम था के उन्होंने शायरी शुरू कर दी।
चिंगारी अब शोला बन चुकी थी। शहीद मेहबूब के नाम के कलमे पढ़ते हुए गलियों गलियों फिरने लगे। मोहब्बत भी ऐसी जो समाज की समझ के बाहर थी। थट्टा के लोगों की आँखों में वो बेफिक्रा आशिक़ चुभने लगा, उन्होंने उसे थट्टा से बाहर निकाल दिया। शहीद वहाँ से लाहौर आ गए पर शायरी और कलम बिना रुके लिखते रहे। कहा जाता है अभय चंद से मिलने के बाद शहीद ने वस्त्र त्याग दिए थे, और इस कारन उन्हें नंगा फ़क़ीर कहा जाने लगा।
1657 में शहीद दिल्ली आ गए। उन दिनों दारा शिकोह (शाहजहाँ के बड़े बेटे), जो विद्वान् लोगों को बहुत पसंद किया करते थे, दिल्ली में राज करते थे।जब शहीद की चर्चा उन्होंने सुनी तो उन्होंने उन्हें दरबार में बुलाया। उनकी बातों से दारा इतने प्रभावित हुए की उनके मुरीद हो गए और समय-समय पर उनसे मिलने लगे और चर्चाऐं करने लगे।
पर कुछ समय बाद औरंगज़ेब ने दारा शिकोह को हरा कर उन्हें मरवा दिया। क्योंकि शहीद भी दारा शिकोह के क़रीबी थे तो उन्हें भी क़ैद कर लिया गया। और फिर उन पर कई झूठे बेबुनियाद मुक़दमे लगा कर उन्हें जान से मारने की सज़ा देनी चाहि। पर जब बाद में कुछ बस ना चला तो कहा गया की वो इस्लाम को नहीं मानते क्योंकि वो आधा कलमा पढ़ते हैं – “ला इल्लाह” मतलब “कोई भगवान नहीं है”। और 1661 में सर कलम करके उन्हें मरवा दिया गया। इसी कारन उन्हें ‘शहीद’ कहा जाता है।
ये कहानी बताने का मेरा मक़सद ये था की आप जान सकें की 15वीं और 16वी सदी में भी किसी मर्द का दूसरे मर्द को चाहना कोई गुन्हा नहीं था। अगर ऐसा होता तो सबसे पहले जामा मस्जिद के पास उनकी मज़ार नहीं बनायी जाती और ना ही उन्हें पूजा जाता। और औरंगज़ेब उन्हें उनके एक पुरुष को चाहने के लिए जान से मारने की सज़ा देता ना की उनका आधा कलमा पढ़ने के लिए।
सिख धर्म में भी संत सरमद शहीद को बड़े आदर भाव से “सरमद फ़क़ीर” कहा जाता है और उनकी कहानियाँ धार्मिक सभाओं में सुनाई जाती हैं। जिस से कहीं ना कहीं ये सन्देश जाता है के किसी इन्सान का किसी भी इन्सान को चाहना उस से मोहब्बत करना उसका निजी मसला है और वो स्वीकार करने योग्य है।
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