Site iconGaylaxy Magazine

‘जीने दो आजाद’ (कविता)

'जीने दो आज़ाद' - कविता | छाया: चैतन्य चापेकर | सौजन्य: क्यूग्राफी

'जीने दो आज़ाद' - कविता | छाया: चैतन्य चापेकर | सौजन्य: क्यूग्राफी

ढाला गया हूँ उसी से
जिस मिट्टी से वजूद है तुम्हारा
लाल खून हमारा
और लाल ही तुम्हारा

चाहता हूँ प्यार पाना
तुम भी तो चाहते हो
है जीने की ख्वाहिश
दोनों में यकसाँ
फिर क्यों अंधेरा ?
फिर क्यों अंधेरा ?

सदियां गुजर चुकी हैं
तारीकियों में रहकर
अब न पंख मेरे काटो
न ही बेड़ियों में बाँधो

आने दो मुझको भी रौशनी में
जीने दो आजाद अपनी जिंदगी में
और
मेरे भी जीवन में
कर दो उजाला
कर दो उजाला

Exit mobile version