काफ़ी वक़्त बीत चुका है । मैं यहाँ महीनों या सालों की नहीं, दशकों की बात कर रहा हूँ । एक पूरी दुनिया बदल चुकी है तब से अब में, एक पूरा मैं बदल चुका हूँ तब से अब में।
साल १९८३ था; पहली बार मिला था उससे। उसके हाथ नरम से थे। नाज़ुक नहीं थे बस नर्म-से थे। वो जब मेरे कंधे पर हाथ रखकर हँसता था तो पूरी दुनिया ठहर जाती थी। उसकी हँसी में भी मैं कुछ मापने-तोलने की कोशिश किया करता था। “वो है या नहीं?” कई बार जब वो नहाकर आता था; केवल बूंदों में लिपटा हुआ, खून जम जाता था मेरी नसों में। पर मैं कभी इज़हार नहीं कर पाया; क्योकि मुझे स्वयं कभी पता ही न था कि वह ‘है या नहीं’।
कितनी बाते हुई थीं हमारे दरमियाँ! हॉस्टल की छत पर, डूबते हुए सूरज के तले, रात के दो बजे, मूंगफलियां खाते हुए…
…दारु पीते हुए, माइक्रो प्रोसेसर के लेक्चर्स में, लैब में, परीक्षा से पहले पन्ने पलटते हुए, इम्तिहानों के दौरान, एग्जाम के बाद, फ्रेशर में, फेयरवेल में। कितने कहकहे बाटे गए, और मैं हर बार यही सोचता रहा, तोलता रहा कि “वो है या नहीं?”
उसके साथ वक़्त तेज़ी से गुजर गया और फिर पता लगा की जिंदगी कितनी लम्बी है, ठहरी हुई है। इस लम्बी-सी ठहरी हुई ज़िन्दगी में काफी लोग मिले। पर ऐसा कुछ था, जो खो गया था। नए-से साल थे। १९९०। दुनिया खुल रही थी। .. मैं डर गया। मैंने अंधेरों को ढूँढना शुरू किया।
अब पब्लिक टॉयलेट्स में “वो है या नहीं?” का सवाल नहीं है; सरकारी बस स्टैंड पर मिले उस आदमी की नज़रो में मुझे कुछ तोलना नहीं पड़ा; न हि किसी दूसरे शहर के होटल में बैरे को रुपये देने के बहाने छूते हुए मेरी दुनिया ठहरी, ना कभी मेरा खून जमा। जो मिला मुझे अधूरा मिला, कुछ हमेशा बाकी बचा रहा । गलत लगता है , गलत हूँ मैं, कुछ तो गलत किया है मैंने। शायद “वो है या नहीं ?” का अनुत्तरित यक्ष प्रश्न ही मेरे शापित होने का कारण है।
काफ़ी वक़्त बीत चुका है। मैं यहाँ महीनों या सालों की नहीं, दशकों की बात कर रहा हूँ। उसके नरम से हाथ (नाज़ुक से नहीं बस नरम से) नरम तो नहीं रहे होंगे, मेरी तरह झुर्रियों से भर गए होंगे। इतने सालो में सब बदल गया होगा: उसकी हँसी, उसकी बातें, सब बदल गया होगा। अब वो मिले तो शायद मुझे नए सिरे से अपनी तलाश शुरू करनी होगी… कि ‘वो है… या नहीं ?’
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