प्रदीप ग्रामीण क्षेत्र अधिकारी में था। चूंकि उसकी यह प्रथम पदस्थापना थी, और वह शहरी क्षेत्र से था, इसलिये वह स्वयं को वहाँ ढाल नहीं पा रहा था। कुछ तो उसे अपने शिक्षित होने का गर्व था तो कुछ सरकारी नौकरी होने का घमंड भी था। वह ग्रामीणों से बहुत ही कम मिलता-जुलता था। ग्रामीणों को देखकर वह मुँह विचकाकर कहता, ‘साले गवार’। उसे लगता कि उससे दूरी बनाकर रखने से ही उसे इज्जत मिले पायेगी।
उसे खाना बनाना नहीं आता था, इसलिए वह समीपस्थ ढाबे में खाने लगा। इस बीच उसके पास शासकीय कार्य से एक अधेड़ महिला आई। न जाने उसमें ऐसा क्या था, कि उसे उसमे अपनी मां की झलक मिली। उस महिला ने कार्य के दौरान ‘बेटा’ कहकर सम्बोधित किया। अपनों से दूर कहीं इस तरह का आत्मीय सम्बोधन सुनकर वह भाव-विभोर हो उठा और उस दिन से उस महिला के प्रति उसके मन में अगाध श्रद्धा के भाव जागृत हो गयेे। और उसने भी उसे काकी कहकर सम्बोधित करना शुरू कर दिया। उसके साथ वह जब भी बातें करता, वह उनकी निश्चल बातों में खो सा जाता था । उसकी सारी विद्वत्ता धरी-की-धरी रह जाती थी। वह सोचता कि इस महिला को इतना ज्ञान कहा से अर्जित हो गया है भला?
काकी बहुत ही भोली-भाली थी। प्रदीप का अपनों से दूर एक तरह का आत्मीय संबंध कायम हो गया था। इस बीच जब काकी को पता चला कि वह ढाबे में खाना खाता है, तो उसने उसेे अपने ही यहाँ रहने का आग्रह किया। अंधा क्या चाहें, दो आंखें । उसने तुरंत ही हामी भर दी,क्योकि उनके परिवार में उन्हीं की तरह रहने में एक अलग तरह के आंनद का अनुभव होना था और साथ ही नोन-तेल लकड़ी के चक्कर से स्थायी तौर पर मुक्ति मिलनी थी। प्रदीप से बातें करते समय काकी बात बात में अपने मरे हुए लड़के का ज़िक्र करती। ऐसा करते समय उसकी आँखें डबडबा-सी जाती थीं। वह बार-बार कहा करती, “मोरो लड़का तोरे अतेक बड़ रहितिस”।
अब प्रदीप ने काकी के लोगों के साथ ही रहना प्रारंभ कर दिया था। काकी के परिवार में काकी के अतिरिक्त काका और उनके तीन बच्चे थे। वे भी प्रदीप को बराबर सम्मान देते थे। निःस्वार्थ प्रेम था उनका। जीवन का एकमात्र लक्ष्य न्यूनतम जीवन निर्वाह बिन्दु तक कमाना और जिन्दगी से बगैर शिकवा-शिकायत के जिन्दगी जीना। प्रदीप कभी-कभी शहरी जीवन और ग्रामीण जीवन के बीच तुलना करता तो पाता था कि शहरों में सर्व सुविधाएँ होने के बावजूद वहाँ जिन्दगी जी नहीं जाती, बल्कि ढोयी जाती है। शहरों में ईर्ष्या-द्वेष की भावना, अनावश्यक का अभिमान और वैभव प्रदर्शन की चाह इत्यादि बुराईयाँ हैं, जबकि गाँवों में आज भी इन सबका नितांत अभाव है।
प्रदीप को काकी के परिवार का भोलापन बहुत भाता था। काकी बहुत ज्यादा बातूनी थी। प्रदीप उससे एक प्रश्न पूछता तो वह उसका चार जवाब देती थी। प्रदीप पूछता, “का साग रांधत हवस काकी?” तो वह कहती, “तोला का बतावंव मुन्ना। आज हटरी गे रेहेंव उहां तो साग-भाझी में आगी लगे रिहिस हे। रमकेलिया पांच रूपया पाव अऊ वो मखना, जेला कुकुर नहीं सूँघे वो ह छै रूपिया पाव रिहिस हे। धनिया पत्ती आंखी मं नहीं दिखिस। आलू मिलिस, उही ला रांधे हवंव।” प्रदीप कहता, “अतेक घुमा-फिरा केहे के का जरूरत रिहिस हे।” तो वह हँस पडती – एक निश्छल-सी हंसी ।
एक दफे प्रदीप ने पास में स्थित ग्रामीण बैंक के स्टाफ को खाने का निमंत्रण दिया। काकी को खाना बनाने के आवश्यक निर्देेश देने के बाद प्रदीप ने कहा, “काकी सलाद घलो बाना लेबे।” काकी ने पूछा, “ओला कइसे बनाये जाये मुन्ना?”। तब वह सलाद में डाले जाने वाली आवश्यक वस्तुओं के नाम गिनाने लगा। अचानक काकी ने बीच में ही उसे रोककर कहा, “बस मुन्ना मैं ह समझ गे हंव।” प्रदीप को लगा कि काकी वास्तव में समझ गई है; वह सलाद बना लेगी, सोचकर वह पास के एक गांव के दौरे पर निकल पड़ा। वापस आकर जब सब लोग खाना खाने बैठे तो थाली में एक नया सा व्यंजन देख प्रदीप ने काकी से पूछा, “काकी ये का हे?” तो काकी ने चहकते हुए उत्तर दिया, “इही त सलाद हे।” बाद में पता चला कि काकी ने सलाद में डाली जाने वाली सभी वस्तुओं को सील में पीस दिया था। प्रदीप ने अपना सिर पीट लिया।
प्रदीप को काकी से जुड़ी हुई एक घटना और याद आती हैं। वह गाँव की मड़ई का दिन था। काकी मड़ई घूमते हुए एक मनिहारी दुकान पर रूकी और चाँदी के आभूषण देखने लगी हैं। इतने मे एक व्यक्ति को देखकर वह पूछ बैठी है, “तैंह गोटाटोला मे रहिथस ना बाबू?” उस आदमी ने उससे पूछा, “मोर ले अइसने काबर पूछत हस वो?” इस पर काकी ने कहा, “मोला एक पिवर चांदी के करधन ला अपन भऊजी बर पठोय के रहिस हे।” इस पर वह आदमी बोला, “हाँ-हाँ मैं तोर भाई ला चिन्थंव। मैं ओला करधन दे देहूं”। इतने सुनते ही काकी ने चांदी का करधन उसके सुपुर्द कर दिया। बाद में पता चला कि करधन तो उसकी भऊजी को मिला ही नहीं। काकी ठगी गयी।
काकी के साथ प्रदीप को हर दिन कुछ न कुछ नया अनुभव होता था। एक बार उसने काकी से आलुगुंड़ा बनाने के लिए कहा। इस पर काकी ने उसे बनाने की विधि पूछी तो प्रदीप ने कहा, “काकी आलू ला बनं उसन के सूखा साग बना लेबे अऊ ओखर बाद बेसन ला फेंट के साग के गोला असन बना के बेसन म डूबो के तर लेबे।” कुछ समय पश्चात काकी ने कहा, “मुन्ना मोर से ये बनत नहीं हवय।” प्रदीप ने नजदीक जाकर देखा तो पाया कि काकी ने बेसन में ही साग को घोल लिया था। प्रदीप जोर से हँस पड़ा। काकी नर्वस-सी हो गई।
काका के अति उत्साह से तो प्रदीप परिचित था इसलिये एक बार उसने कका को आजमाने का प्रयास किया। उसने बाजार से मछली लाकर कका को सौंप दी और विशेष तौर पर कहा, “कका, पला अइसने तर के खाये के हे। झोर वाले साग झन बना देबे।” कका तो और भी उस्ताद निकले। दौरे से आकर प्रदीप ने देखा कि मछली की पानीदार सब्जी तैयार है। उसने माथा पटक लिया।
एक बार काकी ने प्रदीप से कहा, “मुन्ना तहूं एक ठन खेत ला रेघहा ले लेते।” इस पर उसने कहा, “मैं तो खेती-किसानी के बारे में कुछु जानव नहीं”। इस-पर काकी ने कहा, “हमन तो हन ना। तोला फिकिर करे के का जरूरत हे । हमन तोर खेत मं कमाबो।” और प्रदीप ने दो एकड़ खेत रेगहा ले लिया है। काकी और उसके परिवार ने पूरे तन-मन से उस खेत में काम किया, और पूरी फसल पचास बोरा धान प्रदीप को दे दिया। इस पर प्रदीप ने कहा, “तुही मन अपना कोठी मं भर ले रहाव”।
अगले वर्ष गांव में अवर्षा की स्थिति निर्मित होती है और वही धान काकी लोगों को काम आ जाता है।
प्रदीप को वहाँ रहते पांच साल हो जाते हैं। इस बीच काकी की लडकी सुखबती की शदी तय हो जाती है और प्रदीप पूरी तरह शादी की तैयारी में लग जाता है। शादी का पूरा खर्च भी वही उठाता है। इस तरह उस परिवार से उसका उका संबंध और भी प्रगढ़ हो जाता है।
आज प्रदीप ग्रामीण क्षेत्र से निकलकर शहरी क्षेत्र में आ गया है। उसने वह नौकरी छोड़ दी है और एक बड़ी नौकरी करने लगा है। उसने यहां शादी कर ली है। उसका एक बच्चा भी है। उसने अपने घर में भौतिक सुख-सुविधाओं की सभी आवश्यक वस्तुएं जुटा ली हैं। काकी और वह गाँव उसकी यादों में बसा हुआ है। उसे कहीं कुछ अपूर्ण-सा लगता है काकी के बिना। वह हर अधेड़ महिला में काकी की झलक पाना चाहता है, लेकिन यहाँ कंक्रीट के जंगल में भीड़ के बीच वह एकदम ही अकेला सा हो गया है। नितांत ही एकाकी। बस उसे एक वैसी ही काकी की तलाश है।
- काकी – एक कहानी - July 3, 2016