हम एक नयी लेखमाला शुरू कर रहे हैं। इसमें वयस्क एल.जी.बी.टी. व्यक्ति प्रत्यक्षतया, दिल खोलकर एल.जी.बी.टी. बच्चों और किशोरों से बातें करेंगे। स्कूलों में धौंसियाना बर्ताव से भयभीत या अपने माँ-बाप की नापसंदगी से परेशान, ऐसे बच्चों का हौसला बढ़ाकर उन्हें ज़िन्दगी पर विशवास रखने का यह विनम्र प्रयास है। २१ सितम्बर २०१० में अमरीका में डैन सैवेज और उनके साथी टेरी मिलर ने ‘इट गेट्स बेटर” प्रोजेक्ट इंटरनेट पर शुरू किया था। लैंगिकता या जिंसियत की वजह से भिन्न होने या लगनेवाले बच्चों और किशोरों का उत्पीड़न होता है। उन्हें सताया जाता है, जिसकी वजह से कभी-कभार वे घर से बाहर हो जाते हैं, घर छोड़ भागते हैं, कुछ व्यसनों का शिकार होते हैं, या कुछ आत्महत्या तक करने का प्रयत्न करते हैं। “हालात जितने ही क्यों न बुरे हो, आज तुम भले ही अकेला महसूस कर रहे हो, परिस्थिति बेहतर हो जाती है – बस डंटे रहो!” यह इस लेखमाला का सन्देश है।
प्रस्तुत है इस लेखमाला का पहला बयान, ‘मिस्टर गे इंडिया’, और ‘मिस्टर गे वर्ल्ड’ में ३ पुरस्कार जीतने वाले २४ वर्षीय सुशांत दिवगीकर का:
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बचपन से ही मैं बहुत ही ‘ऐन्ड्रोजिनस’ (वह जो बाहरी रूप से न विशेषतः लड़का लगे, न लड़की) था। मेरा बड़ा भाई जो विषमलैंगिक (हेटेरोसेक्शुअल) है, लोगों की धारणा के अनुरूप, यानि सामजिक दृष्टी से ‘स्ट्रेट’ था। यानि लड़कों से की जानेवाली अपेक्षाओं को पूरा करता था। उसे नीला और कला रंग पसंद था, और अपने कमांडो और गाड़ियों के खिलौनों में मसरूफ रहता था। ऐसा नहीं कि मुझे वे सब पसंद नहीं थे। मैं भी उस किस्म के खिलौनों के साथ अक्सर खेला करता था। लेकिन साथ-साथ मुझे बार्बी गुड़िया, गुलाबी और जामुनी रंग भी पसंद थे। सबसे अच्छी बात यह थी कि बचपन में जब हम खिलौने खरीदने दूकान में जाया करते थे, माँ-बाप ने कभी भी मुझे कोई खिलौना उठाने से मना नहीं किया। अगर मुझे गुड़िया पसंद आई, मैं उसकी तरफ संकेत करता और पापा मेरे लिए वह खरीद लेते। यह बहुत खूबसूरत बात थी। क्योंकि ज़रूरी है कि सभी माँ-बाप अपने बच्चे को इजाज़त दें, अपने खिलौने चुनने का। यह पहला कण है आज़ादी का, जो आप अपने बच्चे को देते हैं। अगर मुझे इसकी बजाय कोई ट्रैक्टर या बस दी जाते खेलने कि लिए, तो मुझे मज़ा नहीं आता, तो क्यों खरीदने का अट्टहास करें?
उस उम्र से ही मेरे माता-पिता ने मुझे, मैं जो करना चाहूँ वह करने की मुकम्मल आज़ादी दी। आज बतौर समाज, भारत में काफी खुलापन आ गया है। लेकिन आज भी बहुत से ऐसे माँ-बाप दिखाई देते हैं जो कहते है के गुडियाएं तो लड़कियों के लिए हैं, गाड़ियाँ लड़कों के लिए हैं, इनको अदल-बदल करके हम खेलने के हेतु कैसे दे सकते हैं? इत्यादि। लेकिन लडकियाँ भी गाड़ियों के साथ खेल सकती हैं। आखिरकार बड़ी होकर क्या वे गाड़ियाँ नहीं चलातीं? पायलट नहीं बनतीं? तो यह जो खिलौनों के स्तर से ही दुनिया को लिंग के अनुसार बाँटा जाता है, उसके मैं खिलाफ हूँ। यह करने के पीछे की सोच मेरी समझ में नहीं आती। बच्चों को ऐसी कठोर चौखटों में बंदी बनाना ग़लत है। घुटन होगी उनको।
अगर मुझे बचपन से ही यह आज़ादी नहीं मिली होती अपने आप को व्यक्त करने की, तो आज मैं यहाँ तक कतई नहीं पहुँच पाता। आपके साथ खुलकर इस तरह बात नहीं कर रहा होता इन विषयों पर! हर बच्चे को अपनी आँखों का तारा बनाएँ। क्योंकि बच्चे ने ही आप को माँ-बाप बनाकर गौरवान्वित किया है। बच्चों को प्यार और स्वीकृति दें, जिसके वे अधिकारी हैं। ये दो चीज़ें, प्यार और स्वीकृति, सबसे महत्वपूर्ण हैं, जो हम बच्चों को विरासत में दे सकते हैं। न कि पैसे या धूम-धाम वाली शादी और उससे जुडी अपेक्षाएँ, कि बदले में ‘जल्दी से अब हमें पोता-पोती प्रदान करो’। वास्तव में, दिल ही दिल में माँ-बाप स्वयं ऐसी मांगें रखना नहीं चाहते। वे चाहते हैं अपनी औलाद को प्यार करना। उसे यह महसूस कराना कि सबसे अहम चीज़ उसकी ख़ुशी है। लेकिन मज़हब और समाज आड़े आते हैं। और उनकी अपेक्षाओं की वजह से औलाद खो जाती है, उसके साथ का ‘कनेक्शन’ टूट जाता है।
मैं बांद्रा के ‘आर्य विद्या मंदिर’ स्कूल का छात्र था । उनकी शिक्षण-व्यवस्था आर्य समाज के तत्त्वज्ञान पर आधारित है। विद्यार्थी होने के नाते हमने उनके सिद्धांतों को आत्मसात कर लिया था। हमें ‘नमस्ते’ कहने की आदत थी, और आगे कॉलेज में जाने पर अध्यापकों के बीच यह हमारे विद्यालय के छात्रों की पहचान बन गयी थी। मेरे स्कूल की मुख्याध्यापिका का फोन आया था, वे आज भी मुख्याध्यापिका हैं। उन्होंने कहा, मुझे तुम पर बहुत नाज़ है।
मैं कक्षा में सबसे जनाना लड़का नहीं था। मेरा बड़ा भाई और मेरी ममेरी बहन भी उसी स्कुल में पढ़ते थे। अतः किसी ने मुझ से पंगा नहीं लिया। लेकिन मेरे अलग होने पर अन्य छात्रों की प्रतिक्रिया के लिए मैं उन्हें दोषी नहीं ठहराता क्योंकि उन्हें इस बारे में कोई सीख नहीं दी गई थी। अगर कोई अलग है तो यह नैसर्गिक है कि उसके बारे में कुतूहल हो। आखिर हम सब हम-उम्र बच्चे थे। मुझे कभी भी सताया नहीं गया – न शारीरिक, न मानसिक तौर पर। जब मैं बड़ा हो रहा था तो मेरे भाई-बहन और दोस्त, बहुत सारे थे। आज भी उस वक़्त के ८५% दोस्तों से मेरा संपर्क है। ये रिश्ते ज़िन्दगी-भर के हैं। अनेक पहलुओं से देखा जाए तो स्कूल यह बच्चे की पहली ‘सामाजिक प्रयोगशाला’ है। इसमें आपको यकायक डाला जाता है। अपने आप ही स्कूल की कक्षा आपका क़रीबी परिवार बन जाती है। अतः मैंने अपने आप को कभी रोका नहीं, क्योंकि मुझे पता था कि स्कूल के ये १३ साल मेरा भविष्य तय करने वाले थे।
अगर मैं स्कूल में ‘क्लोसेट’ में होता, छुपा हुआ होता, तो यह रवैय्या मैं आगे भी कॉलेज मैं, ज़िन्दगी में जारी रखता। मैं कभी भी ‘क्लोसेटेड’ नहीं था। स्कुल में मैं ‘गेम्स कप्तान’ था। अन्य बच्चों से अलग था। हर चीज़ का मिश्रण था। मैं राष्ट्रीय स्तर का तैराक था, राष्ट्रीय स्तर का ललित कलाकार भी। स्कूल की हर प्रतियोगिता में, चाहे वह गाना, नृत्य, नाट्य या वक्तृत्व हो, मैं हिस्सा लेता था। जब किसी कार्यक्रम में लड़कियाँ नाच रहीं होतीं और लड़के नाच नहीं रहे होते, तो मुझे कभी नाचने में अजीब नहीं लगता था। क्योंकि इस तरह की छिछली सीमाएँ मैं कभी का स्वयं तोड़ चूका था। किसीने आकर मेरे लिए ये समाज ने थोपी हुई मर्यादाएँ नहीं तोड़ी।
मेरे शिक्षक बहुत अच्छे थे। वे जानते थे: हाँ, यह बच्चा अलग है, शायद इसका लैंगिक रुझान अलग है। उनकी समझ में ये बातें आतीं थीं। उन्होंने मुझे इतना सहारा दिया, आज मैं जो कुछ भी हूँ सब उन्हीं की, और उस ‘सपोर्ट सिस्टम’ की बदौलत हूँ। और ऐसे बहुत सारे एल.जी.बी.टी. बच्चें हैं जिनके पास यह समर्थन, अवलंब की प्रणाली नहीं है। जब वे कई विषयों के बारे में बात नहीं कर सकते, उनकी ज़िन्दगी के काफी पहलुओं के बारे में खुलकर नहीं बता सकते, तो वे अपने आप का स्वीकार कैसे करेंगे? और परिणामतः वे यह अपेक्षा कैसे करेंगे, के लोग उन्हें स्वीकार करें? क्योंकि आपने अभी तक अपने आप को स्वीकार नहीं किया है। मैं ऐसे कहीं लोगों को जानता हूँ, जिनकी शादियाँ हो चुकी हैं, जो अपने लैंगिक रुझान से सारी ज़िन्दगी भाग रहे हैं, और चालीस-पचास की उम्र में बोहरान का सामना कर रहे हैं। अगर ऐसे लोगों ने ठान ली होती की वे लैंगिकता को समस्या नहीं बनने देंगे, तो वह समस्या नहीं बनती। कभी-कभी उनको देखकर लगता है की वे ख़ुद को मारने की अपरिहार्य प्रक्रिया को दिन-ब-दिन लंबा कर रहे हैं। आपका लैंगिक रुझान कोई अपराध नहीं है। अगर आप अपने क़रीबी लोगों के सामने खुलासा नहीं करेंगे, तो आप यह अपेक्षा कैसे कर सकते हैं की वे आपको स्वीकार करेंगे?
बचपन के वर्षों में मैं सिर्फ और हमेशा ‘मैं’ था। जब मैं ‘मिस्टर गे वर्ल्ड’ गया, तो मैंने ठान ली, कि मैं ‘बुच’ या मरदाना होने का दिखावा नहीं करने वाला था। इस स्पर्धा का नाम ‘मिस्टर एक्ट स्ट्रेट गे’ नहीं था। और मुझे समलैंगिक समाज में यह उलटा भेदभाव बिलकुल भी समझ में नहीं आता, जहाँ हम यह कहकर एक दुसरे को अस्वीकार करते हैं, कि “तुम बहुत ज़्यादा औरताना हो”, “तुम बहुत ज़्यादा मरदाना हो”, “तुम बहुत ज़्यादा मोटे हो”, “तुम बहुत ज़्यादा गंजे हो”, “तुम बहुत ज़्यादा ये हो”, “तुम बहुत ज़्यादा वो हो”… क्या हम सब उस एक ध्येय के लिए नहीं उठ खड़े हुए हैं, अर्थात एल.जी.बी.टी. समुदाय की समाज में स्वीकृति? यह हमारे समुदाय की ख़ास और मूलभूत विशेषता है कि वह इतना विशाल है, इसमें इतने सारे व्यक्तित्व हैं, और हर कोई अपने आप में सुन्दर है। यद्यपि मैं तुम्हें सुन्दर नहीं पाता, तथापि तुम यक़ीनन किसी और के लिए सुन्दर हो। और उस अनुभूति से मैं तुम्हें वंचित नहीं कर सकता। कोई नहीं कर सकता।
जब मैं बच्चा था, तब भी यह बात मुझे समझ आती थी। मुझे स्वीकार किया गया, क्योंकि मैंने अपने आप को स्वीकार किया था। और यही बात मैं किशोरावस्था में इस संघर्ष में झूँझ रहे हर किसी को कहना चाहूँगा, क्योंकि झूँझ तो मैं भी रहा था। मेरे इर्द-गिर्द हर कोई तुलना में ‘स्ट्रेट’ था। सिवाय उनके जो एक जामा पहन रहे थे, जो मैंने कभी नहीं किया। इसलिए मैं भाँप नहीं पाता था। ऐसे कई कॉलेज में छात्र थे जो मुखौटा पहने हुए होंगे। क्योंकि जब मैं खुले-आम गे था, तो वे मुझे आकर कहते थे कि हम इस बारे में ‘क्यूरियस’ हैं। मैं कहता, “शुक्रिया, लेकिन मैं आपका इस सिलसिले में ‘एक्सपेरिमेंट’ नहीं हूँ।” लेकिन अगर तुम समलैंगिक हो, तो जानने के तरीके हैं, और मैं इस बारे में आपके साथ बात कर सकता हूँ। अच्छा लगता है जब लोग अपने बारे में बात करते हैं, क्योंकि मैं पूरी तरह से ‘ट्रांसपेरेंट’हूँ।
मुझे कोई डर नहीं है। मेरे एक इंटरव्यू में सवाल पूछने वाले ने कहा, आपको नाप तोलकर बोलना चाहिए। मैंने पूछा क्यों? सीधी बात नहीं करने से अटकलबाज़ी शुरू होती है। हम इस डर के साथ जीते हैं की मीडिया में कोई हमारे खिलाफ कुछ कहेगा तो? तो कहने दो। क्योंकि मैं देश का प्रतिनिधित्व कर रहा हूँ, मैं जैसा हूँ वह ज़ाहिर है, लोग जानते हैं। अगर मेरे बारे में ग़लत छपता है तो लोग जानते हैं कि मैं वैसा नहीं हूँ। लेकिन हमारी फिल्म इंडस्ट्री में कुछ लोग हैं, जो एक मुखौटे कि पीछे छुपकर कॉमेंट करते हैं। उन्हें सावधानी बरतनी पड़ती है। मुझे नहीं। जैसा है, वैसा मैं कहता हूँ, और यही मुझे पसंद है। और मुझसे सवाल पूछने वालों को भी यही पसंद है। इसलिए किसी कि कुत्सित उद्देश्य से डरकर अपना सच मत छुपाओ।
मेरा बचपन बहुत अच्छा रहा। मैं आशा और उम्मीद करता हूँ कि भविष्य में दूसरों के लिए भी ऐसा हो। समलैंगिक ही नहीं, हर बच्चा खास है। शोषण किसी के साथ भी होता है, उत्पीड़न न जिंस देखता है, न लैंगिकता। इसलिए समलैंगिक बच्चों पर ही ध्यान केंद्रित करने की क्या ज़रूरत है? उत्पीड़न अपने आप में बुरा है, और सिर्फ इसलिए नहीं की समलैंगिक बच्चे इसका शिकार होते हैं। आप अपनी लैंगिकता की वजह से अलग होंगे। लेकिन हर कोई किसी न किसी तरह से अलग होता है। और यह निहायती ज़रूरी है की हम एक दुसरे को अपनी विभिन्नता के लिए सम्मान करें। जब ऐसा होगा तो अपने आप यह डराना-धमकाना बंद होगा।
उत्पीड़न इसीलिए किया जाता है कि उत्पीड़न करने वाले को लगता है कि तुम उसके जितने अच्छे नहीं हो, उसके जितने क़ाबिल नहीं हो। उत्पीड़न करने वाले को लगता है कि यह तुम्हारा फ़र्ज़ है कि तुम्हारे लक्षण उसी की तरह बनाओ। लेकिन क्यों मानता है? यह उसकी परवरिश का नतीजा है। इसमें माँ-बाप बड़ा किरदार निभाते हैं। उत्पीड़न में उत्पीड़क का पालन-पोषण महत्वपूर्ण कारक है। ऐसी बहुत-सी बातें होतीं हैं जो माँ-बाप बच्चों से छुपाते हैं। बच्चों को ये बातें मालूम होनी चाहिए। मसलन जब आपका बच्चा आपसे कोई सवाल पूछे तो आप उसका जवाब दें। आप छुपकर, बहाने बनाकर उसे न टालें। हमारे स्कूलों में यौन शिक्षा नगण्य और उपेक्षित है। मैं आई.सी.इस.सी. बोर्ड की स्कूल में था, जो बांद्रा, मुंबई के बेहतरीन स्कूलों में से एक है। लेकिन हमें भी यौन शिक्षा कम ही दी गयी थी। एक वर्कशॉप हुआ था। मेरे बैच तक स्कूल सिर्फ लड़कों का था, और उसके अगले साल से को-एड (लड़के और लडकियां) था।
मेरे लैंगिक रुझान की वजह से मेरे बारे में राय तय नहीं की गयी। मेरी मुख्याध्यापिका ज्योति कुमार जी ने मुझे कॉल किया और कहा की मैं तुमसे ज़रूर मिलना चाहूंगी। मैं उन्हें जाकर मिलने वाला हूँ। मेरी एक पडोसी भी उसी स्कूल में अभी टीचर हैं। यह खूबसूरत बात है क्योंकि उन्हें मेरे बारे में हर चीज़ याद है, जैसे की मैंने अपनी पहली स्पर्धा स्कुल में जीती थी, मैं ‘मिस्टर आर्य विद्या मंदिर’ बना था। मुझे लगता है उन्हें इस बात पर ज़्यादा गर्व है, मिस्टर इण्डिया और मिस्टर वर्ल्ड से भी ज़्यादा! मैं अपना ‘सैश’ और मुकुट भी हमारे स्कूली पुनर्मिलन सम्मेलनों में पहनकर जाता हूँ! मैं स्कूल में प्रीफेक्ट और सांस्कृतिक हेड भी था। कहने का तात्पर्य यह है की मेरा बचपन साधारण था।
कुछ लोगों को यह बात, यह सामान्यता बहुत अजीब लगती है। दूसरी तरफ कभी अपने लैंगिकता की वजह से अपनी बलि मत चढ़ाना और अपने आप को शहीद मत समझना। कुछ लोग मुझसे पूछते हैं, क्या तुम्हारे पास कोई दर्द-भारी कहानियाँ नहीं हैं? मैं कहता हूँ माफ़ कीजिये लेकिन नहीं। आपकी क्या अपेक्षा है, की मेरा रेप, लैंगिक शोषण हुआ होगा? आप कैसी बातें कर रहे हैं? मैं गे हूँ। लेकिन मेरा गे होना महज़ एक लक्षण है, और शायद दसवा लक्षण, जो मेरा वर्णन करते हैं। मैं एक अच्छा लड़का, अच्छा भाई, अच्छा गायक, किशोरों के लिए अच्छा रोल-मॉडल, भारतीय, और गे हूँ। गे होना महज़ एक और पहलु है व्यक्तित्व का। कभी-कभी लोग आपके लैंगिकता रुझान को महिमा-मंडित करना चाहते हैं। क्या कोई कहता है, ओ आप स्ट्रेट हैं, हे भगवान, ये आपके लिए कितना मुश्किल हुआ होगा? नहीं न? तो फिर?
मुझे देखो, मज़ाकिया क़िस्म का आदमी हूँ। मैं इस बात का ध्यान रखता हूँ कि मेरे आसपास हर कोई आराम से है। यह ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है मैं गे हूँ या नहीं इससे। मेरा गे होना मेरी निजी ज़िन्दगी तक सीमित होना चाहिए। यह किसी और का काम नहीं है। अगर मैं आपको हंसा सकता हूँ, आप हँसते हैं, क्योंकि मैंने जो कहा वह मज़ेदार था, इसलिए नहीं की एक गे आदमी ने वह बात कही। मुझे हर चीज़ में यह गे एंगल अच्छा नहीं लगता। मुझे एक शो कि लिए बुलाया गया और ओपनिंग एक्ट कि लिए उन्होंने मुझे एक भयानक ड्रेस भेजा, जिसमे मैं तम्बू की तरह दिख रहा था होता। मैंने कहा मैं यह नहीं करूँगा। मैं यह फैंसी ड्रेस प्रतियोगिता में भी नहीं पहनता। मेरे दो साल की भतीजी को भी वह नहीं पहनाता। मैं नकारात्मक पूर्वाग्रहों को मज़बूत नहीं करना चाहता। पूर्वाग्रह तो खैर नकारात्मक ही होते हैं। मैं जिम जाता हूँ, वज़न उठा सकता हूँ, जागतिक स्पर्धा के स्पोर्ट्स विभाग में मैं जीत चुका हूँ, मैं बिना वार्मअप के स्प्लिट कर सकता हूँ, तो कृपया आप यह गे व्यक्ति की व्यंग्य-चित्र जैसी संकल्पना को ना बढ़ावा दें, यह बहुत बुरा है।
हमें कहीं न कहीं शुरुआत करनी ही है, और स्कूलों में उत्पीड़न वह तृणमूल स्रोत है जहां ऐसी संकल्पनाएँ जन्म लेतीं हैं। जब बच्चे दुसरे बच्चों को सताते हैं, ये उनके गलती नहीं है, उनमे ऐसा कुछ है जो ठीक किये जाने की ज़रूरत है। यह सताने वाले की अंदरूनी असुरक्षितता है। क्योंकि अगर कोई उससे अलग है, सताने वाला सोचता है अरे, यह तो अलग होकर, अजीब होकर भी सक्षम है, अच्छा है, और मैं वह बनना चाहता हूँ। लेकिन ऐसा होना एक आदर्श नहीं समझा जाता, सामान्य नहीं समझा जाता। बतौर मनोवैज्ञानिक मैं आपको बता सकता हूँ की यही सताने वाले की सोच का तरीका है। मेरे इर्द-गिर्द सारे एक जैसे हैं, और यह व्यक्ति अलग है, और यह इतना खुश है, अपने विश्व में, ऐसा मेरे साथ क्यों नहीं हो रहा?
और जिसको सताया जा रहा है, मैं उसे कहूँगा की तुम शानदार हो, अगर सारी क्लास तुम्हे सता रही है, इसका मतलब यह है की तुम ख़ास हो। तुम उनसे अलग हो, अपने आप में अद्वितीय हो। इतनी छोटी उम्र में तुम अपने आप से कम्फर्टेबल हो। बेशक उत्पीड़न गलत है, यह स्कूलों में नंबर १ समस्या है और निंदनीय है। बच्चे को परामर्श सेवा (काउंसेलिंग) मिलनी चाहिए, उसको किसी कि साथ बात करने का मौक़ा मिलना चाहिए। कुछ बच्चों को बर्दाश्त नहीं होता। उनकी सहनशीलता का स्तर इतना ऊँचा नहीं है। कभी वे खुदखुशी करते हैं, वे कठोर क़दम उठाते हैं। और यह खेद की बात है।
थोड़ा हंसी-मज़ाक, थोड़ा चिढ़ाना, यह हर जगह होता है और सबके साथ होता है। मुझे भी चिढ़ाया गया और मेरे बारे में टिप्पणियाँ की गयी। विक्टिम मत बनो, उन्हें जवाब दो। अपने आप को मोहरा बनने मत दो। सिर नीचा करके स्वीकार मत करो। अगर तुम्हें उनसे परीक्षाओं में ज़्यादा नंबर आ रहे हैं, अगर मैं इस स्कूल कि लिए तुमसे ज़्यादा कर रहा हूँ, तुम्हारी तरह दो कक्षाएं फेल नहीं हुआ हूँ, तो मैं तुमसे उत्पीड़न क्यों सहूँ? तुम कौन हो? किस अधिकार से मुझे सता रहे हो? अगर मेरी मनोवृत्ति ऐसी है, कोई मुझे सता नहीं सकता।
उत्पीड़न को जवाब कैसे दिया जाए, या इसके बारे में क्या किया जाए, ये न शिक्षक जानेंगे, न बच्चे, जब तक की इसके बारे में दोनों को सीख नहीं दी जाए। उस परिस्थिति में क्या करना चाहिए और नहीं करना चाहिए ये मालूम होना चाहिए। शिक्षण, जानकारी ही सबकुछ है। उदाहरणाथ अगर ऐसी व्यक्ति मुझसे मिलती है जिसने कभी एक गे व्यक्ति से मुलाक़ात नहीं की, मैं उन्हें अजीब बर्ताव करने कि लिए, या दूरी बनाए रखने कि लिए दोषी नहीं ठहराऊँगा। अगर मुझे कल किसी आदिवासी से मिलना होगा तो मैं भी शायद अजीब महसूस करूँगा क्योंकि मैं उनके बारे में ज़्यादा नहीं जानता। सिर्फ जब मुझे शिक्षा दी जाए की वे कौन हैं, कैसे जीते हैं, और कि वे हमसे अलग नहीं हैं, तब मैं कम्फर्टेबल हूँगा।
और माँ-बाप से कहूँगा कि यह दिखावा बंद करें, की हम सिर्फ इतना चाहते हैं कि बच्चा क्लास में अव्वल आये, क्यूंकि आपने तो यह नहीं किया, और आखिर बच्चा तो आपकि ही विरासत लेके आया है , तो यह कैसे होगा? अगर आप क्लास में लास्ट आये तो बच्चा फर्स्ट कैसे आएगा? क्यों बच्चों पर इतना प्रेशर डाला जाता है? मैं ६-७ साल के बच्चों को देखता हूँ, इतने मोटे-मोटे बक्से लेकर जाते हैं, यह बहुत बुरी बात है।
मेरा पहला प्रकटीकरण (कमिंग आउट) मेरी एक दोस्त जूही के साथ था। उसने मुझे यह कलाई पर पहनने का बैंड दिया, जब मैं १८ साल का था। मेरे काम आउट करने कि एक साल बाद वह दुनिया में नहीं रही। यह बात मेरे लिए निहायती दर्दनाक है। मैंने उसे कहा, “पता नहीं, क्या मैं गे लगता हूँ?” उसने कहा, “क्यों? उसमे कौनसी बड़ी बात है? एक १८ साल की लड़की यह बात बता रही थी मुझे। मैं कुछ कह ही नहीं पाया। वह मेरा ‘गार्डियन एंजेल’ (संरक्षक फरिश्ता) थी। उसने कहा, “मैं तुम्हारे घर आऊँगी। हम अंकल और आंटी से बात करेंगे। इसमें कौनसी बड़ी बात है? मुझे यक़ीन है वे जानते हैं। आखिर वे तुम्हारे माँ-बाप हैं। उन्होंने तुम्हारे लिए बार्बी गुडियाएं ख़रीदी हैं। कैसे नहीं मालुम होगा! अगर तुम ‘क्लोसेट’ में हो, तो तुम्हारे ‘क्लोसेट’ में होने कि बारे में वे ‘क्लोसेट’ में होंगे!” और मैं कभी क्लोसेट में नहीं था।
अतः मैंने कभी नकारा नहीं, लेकिन कभी मैंने बाहर जाकर घोषणा नहीं की कि मैं गे हूँ। मेरे सारे मित्र जानते थे। लेकिन वह मेरी पहली दोस्त थी जिसे मैंने बिठाकर बताया कि ये ऐसे होता है, वो वैसे होता है, सबकुछ। हमारे समुदाय के ख़ास शब्द, ख़ास बोली-भाषा – टॉप, बॉटम, वर्सटाइल जो उस वक़्त एक नयी प्रजाति थी जिससे मैं वाक़िफ़ नहीं था। वह कहने लगी “मैं अनपढ़ नहीं हूँ, मैं जानती हूँ”। हाँ, उसने भी वे ‘स्टीरीयोटिपिकल’ सवाल पूछे। “क्या तुम रिश्ते में औरत का किरदार निभाते हो?”, मैंने कहा “रिश्ते में दोनों आदमी ही हैं!” उसने कहा “तुम कोई चिंता मत करो। और तुम्हारे सारे बॉयफ्रेंड्स मैं स्क्रीन करूंगी, पहले वे मुझसे गुज़रकर जायेंगे”। तो हमारा यह पूरा सम्भाषण हुआ।
एक बार वह, मैं और मेरा भाई एक ही पार्टी में थे। तो उसने कहा “सुशांत, मुझे लगता है की तुम्हें अपने भाई को बताना चाहिए”। मैंने कहा “नहीं, आज नहीं”। उसने कहा “रोज़ तुम कहते हो आज नहीं आज नहीं, और परसो वैसे भी मैं घर आने वाली हूँ।” तो मैंने जाकर अपने भाई को बता दिया। उसने कहा “मैं यक़ीन नहीं करता।” वह स्ट्रेट है, और उसने कहा, “मैंने तुम्हे लड़कियों के साथ देखा है। लड़कियों कि साथ ही देखा है।” मैं लड़कियों को बेहतर समझता था, ऐसे नहीं की लड़कों को नहीं। तो मैंने अपने भाई को यह भी कहा, “मम्मी-पापा को मत बताना, क्योंकि मैं और जूही उन्हें बताने वाले हैं।” मगर उससे रहा नहीं गया। अगले दिन उसने पिताजी से कहा, “डैड मुझे आपको कुछ बताना है, सुशांत गे पार्टियों में जाता है, क्या आप यह बात जानते हैं?” यानि उसने भी सीधी तरह से नहीं बताया। तो पिताजी ने कहा, “ओके, तो तुम कहना क्या चाहते हो? उसमे कौनसी बड़ी बात है?” मेरे पिताजी को लगा यह सिबलिंग राइवलरी (भाइयों कि बीच प्रतिद्वंद्विता) का मामला है।
पापा ने कहा, “ठीक है, तुम शांत हो जाओ, मैं उससे बात करूंगा”। तो अगले दिन की रात को ही मैं लेटा हुआ था, अख़बार पढ़ रहा था, और पिताजी कुछ अपना काम कर रहे थे। उन्होंने मुझसे पूछा, “बिना सोचे तुम्हे इस सवाल का जवाब देना होगा।” मैंने उसी वक़्त भाँप लिया कि उन्हें पता चल गया था, और मेरे भाई ने उनको बता दिया है। पितजीने मुझसे पूछा, “क्या तुम गे हो?” मैंने कहा “हाँ”। उन्होंने पूछा “क्या तुम यक़ीन के साथ कह रहे हो? क्योंकि उसने मुझे ऐसे बताया है”। मैंने कहा “मैं जानता था वह बताएगा, मैं आप और माँ को बिठाकर बताना चाहता था…” उन्होंने कहा “इतस ऐब्सोल्यूट्ली फाईन” और उन्होंने मुझे बड़ी झप्पी दी, और कहा तुम अभी भी मेरे बेटे हो, मुझे किसी और चीज़ की परवाह नहीं है।”
यह मेरे लिए बहुत ही ख़ास, बेशक़ीमती लमहा था। तो हाँ, बात वैसे नहीं हुई जैसे मैंने प्लॅन की थी। मैं बताना चाहता था। मैंने दिमाग में यह लम्बा-चौड़ा भाषण तैयार किया था। जूही मेरा हाथ पकड़ने वाली थी। और मेरी पीठ थपथपाने वाली थी। और मेरा हौसला बढ़ाने वाली थी। सारा प्लॅन चौपट! पिताजी ने कहा, “तुम्हारी माँ और मैं, हम तुम्हे जैसे हो वैसे बहुत प्यार करते हैं। तुम अब अलग नहीं हो गए हो, तुमने हमेशा हमारा सिर ऊँचा किया है। और यह महज़ एक महत्त्वहीन चीज़ है। तो क्या हुआ अगर तुम गे हो?”
मेरे लिए यह क़िस्सा बहुत स्पेशल है। मैं प्रार्थना करता हूँ कि हर औलाद को ऐसे माता-पिता का वरदान मिले। मतलब, कौन अपेक्षा करता है कि तुम्हारे पिता तुम्हे आउट करेंगे? माँ ने कहा, “तुम वह सबकुछ कर सकते हो जो करना चाहते हो, तुम्हारा दायित्व सिर्फ तुम्हारी तरफ है। अभी तक हमने कभी तुमपर कोई चीज़ लादी नहीं है। तो हमें इस बात से भला कैसे प्रॉब्लम होगा?” मेरी माँ मेरी बेस्ट फ्रेंड है। वह ‘दीवा’ है। और यही गुण मुझमे भी आया हुआ है। मेरा अपने माँ बाप, परिवार, दोस्तों और दुनिया के साथ बहुत हसीन रिश्ता है।
मेरे ९९% दोस्त स्ट्रेट हैं, लड़के या लडकियां, मेरे बेस्ट फ्रेंड्स। तो ऐसा नहीं कि मैं सिर्फ एक ‘गे’ ज़िन्दगी जीता हूँ: ‘गे’ टट्टी करना, ‘गे’ खाना, ‘गे’ पार्टी करना, नहीं। मैं औरों की तरह ज़िन्दगी जीता हूँ। मुझे एक गे पार्टी की ज़रूरत नहीं है एन्जॉय करने के लिए। बहुत से लोगों ने मुझे यह कहा है कि वो सिर्फ गे पार्टियों में जाते हैं। कोई क्लब नहीं कहता की सिर्फ गे या सिर्फ स्ट्रेट यहाँ आ सकते हैं। तुम वहां जाओ, अपनी वास्तविकता को मत छोडो। उन्हें कहो ‘मैं ऐसा हूँ’। हर शनिवार गे पार्टी में जाकर ‘स्लट’ की तरह नाचना, और किसी को ‘हम्प’ और ‘ड्राई हम्प’ करना, यह मेरे लिए नहीं है। क्योंकि मैं सामान्य पब में पार्टी करने का आदी हूँ। ऐसे पब को मैं ‘स्ट्रेट’ नहीं कहूँगा, और ‘नॉर्मल’ तो कतई नहीं। क्योंकि हर कोई नॉर्मल है, क्योंकि वह क्लोसेटेड शादी-शुदा पैसिव-एग्रेसिव गे आदमियों से भरा हुआ नहीं है।
मुझे स्ट्रेट क्लब्स में किसी ने नहीं कहा, कि तुम यह नहीं पहन सकते, वह नहीं कर सकते। वे मुझे पसंद करते हैं – जबतक आप अपना बिल भर रहे है, हर कोई आपसे प्यार करेगा। क्यों ढकेलते हो अपने आप को समाज के हाशिये पर? यह मूर्खता है। वहाँ जाओ, उनमें घुलो-मिलो। वे सब आपसे नफरत नहीं करते। उन्हें तुम्हे समझने का मौक़ा दो। और हम सब अपने आप ही एक अच्छी स्थिति में पहुँच पाएँगे। बहुत से लोग कहते हैं के फलाँ-फलाँ जगह पर गे पार्टी है तो सिर्फ वहाँ जायेंगे क्योंकि वहाँ सिर्फ गे लोग होंगे। गे पार्टी में भी कोई नहीं कहता कि तुम स्ट्रेट हो तो तुम अंदर नहीं आ सकते। लेकिन स्ट्रेट लोग नहीं आना चाहते क्योंकि वे सिर्फ गे लोगों को देखते हैं। मेरे बहुत से स्ट्रेट दोस्त, लड़के और लडकियां मेरे साथ आकर गे पार्टी में शरीक हुए हैं। वैसे ही, जैसे मैं उनके साथ एक नॉर्मल नाईट आउट पर जाता हूँ। तो यह फ़र्क़ क्यों?
कुछ कहते हैं की वे सिर्फ गे पार्टियों में जाते हैं क्योंकि वे गे समुदाय कि साथ ऐक्यभाव दिखाना चाहते हैं। मैं जब भी बाहर जाता हूँ, मैं नए लोगों से मिलता हूँ और मैं उनके नज़रिये को थोड़ा और खोलता हूँ। और मेरे लिए बदलाव का यही सच्चा जरिया है। आप गे पार्टी में जाकर, गे लोगों के खुद के बारे में धरे हुए पूर्वाग्रहों को बढ़ावा क्यों दे रहे हैं? क्यों समलैंगिकों को समलैंगिकों के बीच सांत्वन मिलने या पनाह लेने की ज़रूरत महसूस होती है? क्योंकि वे अपने आप के साथ आश्वस्त नहीं हैं। अगर तुमने अपने बारे में अपने माँ बाप कि सामने खुलासा किया, तो सबसे बुरा क्या होगा? वे तुम्हे घर से निकाल देंगे? २-३ साल बाद वे तुम्हे कॉल करेंगे और कहेंगे हम तुम्हे मिस कर रहे हैं, हम तुम्हे स्वीकार करते हैं, तुम हमारे बच्चे हो. असली मुद्दा यह है, कि क्या तुम्हे अपने वास्तव का सामना करने की हिम्मत है?
अपना कम्फर्ट-ज़ोन छोडो। मसलन कल अगर मुझे रोल मिलता है एक स्ट्रेट या ट्रांस किरदार का, क्या मैं वह नहीं करूँगा? यह मेरी मूर्खता होगी। मैं ज़रूर करूंगा, अगर रोल अच्छा है। अगर मैं कहूँगा यह मेरे कम्फर्ट-ज़ोन में नहीं है, मैं गे रोल ही करूँगा, तो यह सही नहीं होगा। ‘मैं सिर्फ गे पार्टी में जाऊँगा’ कहना इसी के बराबर है। आज इस पीढ़ी के समलैंगिक जब २०१४ में मुंबई जैसे शहर में ऐसा कहते हैं तो मैं निराश होता हूँ।
कभी-कभी उत्पीड़न से त्रस्त होकर व्यसन करना शुरू करते हैं। लेकिन आप इसका सहारा कितनी देर तक ले सकते हैं? हम सब ‘डिफेंस मेकैनिज़म’ का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन जब यह सूरतेहाल लम्बे समय तक जारी रहता है, तो वह मनोविकृति का रूप लेता है। तुम अपने आप को तबाह कर रहे हो। क्या तुमने दुसरे विकल्पों को आज़माकर देखा है? क्या तुमने लोगों से बात की है? परामर्श लिया है? यह गलत फहमी है कि अगर मनोचिकित्सक कि पास जाते हैं तो आप मानसिक रूप से बीमार है। ऐसा नहीं है। इसे वर्जित न करें, इसे कलंक नहीं समझें। कुछ बातें हैं जो तुम अपने अपनों या औरों कि साथ बिना आलोचित हुए नहीं कर सकते। काउंसेलर के पास जाकर तुम वह सब शेयर कर सकते हो।
सीधी-सी बात है। मदद मांगो, मदद लो। हर किसी को थोड़ी सी मदद की ज़रूरत होती है। प्रधान मंत्री, राष्ट्रपति, दुनिया के सबसे बड़े नेताओं को भी मदद की ज़रूरत होती है। क्या उनका भी मंत्रिमंडल नहीं होता? इस सच को स्वीकारना कोई शर्म की बात नहीं है। जब तुम शरीर में कोई बीमारी पाते हो तो डॉक्टर के पास जाते हो। तो मानसिक स्वास्थ्य को उपेक्षित क्यों करते हो? हमारे समाज में मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर समझने की बड़ी ज़रूरत है। तुम शरीर से बहुत तंदुरुस्त हो सकते हो, लेकिन अगर मानसिक तौर पर स्वस्थ नहीं हो, तो अपने सिक्स-पैक एब्स के साथ करोगे क्या? भ्रांत होकर १२-पैक बनाओगे? मानसिक स्वास्थ्य बहुत महत्त्वपूर्ण है।
अतः एल.जी.बी.टी. बच्चो और किशोरों कि लिए मेरा सन्देश यही है: कभी भी तुम्हारा ‘तुम’पन मत खोने देना। क्योंकि फिर तुम अपनी ज़िन्दगी नहीं जी रहे हो। और तुम्हारी ज़िन्दगी सिर्फ तुम्हारी है। तुम वह सबकुछ कर सकते हो जो करना चाहते हो, क्योंकि गुज़री हुई ज़िंदगी वापस नहीं आती। अगर तुम पुनर्जन्म में विश्वास रखते हो, तो तुम्हे फिरसे अपने आप की तरह पैदा होना पड़ेगा, और संभावना कुछ कम ही हैं! इसलिए इसी जन्म में ‘फैब्यूलस’, शानदार बनो! तुम्हारे सामने तुम्हारी पूरी ज़िंदगी है। कोई व्यक्ति, कोई चीज़ ऐसी नहीं है जो तुम्हें कुचल सके। अगर कोई तुम्हे कुचलने की कोशिश करें, और तुम्हारे माँ-बाप तुम्हारा उतना समर्थन नहीं करें जितना मेरे माँ-बाप ने किया, तो मैं तुम्हारी ‘मम्मी’ बनूँगा, और तुम आकर मेरे साथ बात कर सकते हो। हम सब यहाँ एक दुसरे की मदद करने के लिए हैं। ‘वर्ल्ड पीस’ (जागतिक चैनो-अमन) इत्यादि के झूठे वादे करने के बजाय, मैं इस बात पर तुम्हारी मदद कर सकता हूँ। मेरे मैनेजर और पब्लिक रिलेशंस वालों से गुजरने की ज़रूरत नहीं, सीधे मेरे साथ ईमेल से संपर्क करना। मैं हूँ तुम्हारी मदद करने के लिए।
- “इस रात की सुबह है!”: सुशांत दिवगीकर - September 30, 2014