‘सम्मति’ या ‘कंसेंट’ की संकल्पना के अर्थ में कई बारीकियाँ हैं। इनमें शामिल है अनुमति – कुछ घटने की इजाज़त देना, और सहमति – कुछ घटित होने के पक्ष में होना। १६ दिसंबर २०१२ में दिल्ली में हुए भयंकर ‘निर्भया’ बलात्कार घटना के बाद, वयस्कों में होनेवाले संबंधों में सम्मति की भूमिका के बारे में तीव्र खासकर चर्चा हुई। विशेष तौर पर ऐसे मामलों की कानूनी प्रक्रिया में सम्मति या उसके अभाव का मामले की गंभीरता पर कैसा असर पड़ता है? इसके लगभग चार महीनों बाद आपराधिक कानून संशोधन अधिनियमभारत में ३ अप्रैल २०१३ को लागू हुआ। इसमें एसिड हमले के विरुद्ध पुरुषों और स्त्रियों दोनों की रक्षा कानून करता हैं, पर ‘यौन उत्पीडन’, ‘वोयरिज़म’ (छुपकर बिना अनुमति के किसी के निजी रूप में देखना), ‘स्टॉकिंग’ (बिना अनुमति के किसी का पीछा करना) के मौजूदा कानून सिर्फ औरतों का रक्षण करते हैं। इस कानून द्वारा सम्मति की उम्र को बढ़ाकर १८ कर दी गई है, और वैवाहिक रेप के प्रश्न को भी संबोधित नहीं किया गया है।
मगर ‘सम्मति’ का प्रश्न केवल शारीरिक संबंधों और लैंगिक हिंसा के सन्दर्भ में ही नहीं पैदा होता है। हाल ही में सनी लियोनी की मुलाक़ातने इस सिलसिले में काफी सवाल खड़े किए। क्या कामोद्दीपक फिल्मों में काम करने से एक अभिनेत्री पर ‘धब्बा’ लगता है? क्या हमारे निजी ज़िन्दगी में लिए गए निर्णयों के बारे में हमें समाज को जवाब देने होंगे? नैतिक अतिसतर्कता के बहाने ऐसी व्यक्ति का तिरस्कार या विडम्बना करना क्या योग्य है? पितृसत्ता से बहाल हुई प्रधानता पर उन्मत्त, सामाजिक नैतिकता के घोड़े पर सवार होकर उस स्त्री को व्यंग्य और तिरस्कार से संबोधित करना क्या शिष्टता है? आजकल मेघन ट्रेनर के सुपरहिट अंग्रेजी गीत “नो” (“नहीं”) में भी यही मुद्दा पेश किया गया है – क्या कामुकता की अभिव्यक्ति की कीमत औरत की स्वायत्तता है?
सम्मति से जुड़े ऐसे कई पहलू हैं, जो “वादी-ए-इकरार में मेघा और शक्कू का मुहब्बतनामा” नामक निम्न रोचक वीडियो में उजागर किए गए हैं।
इसे बनाया है “एजेंट्स ऑफ़ इश्क” ने, जो सैक्स के प्रति सकारात्मक रवैय्ये को प्रोत्साहन देना चाहते हैं। उनका “हम सैक्स का नाम रोशन करते हैं” नारा उनके विनोदपूर्ण अंदाज़ का परिचय देता है। यह विडियो संगीत बारी के सहयोग से बनाया है।
लावणी महाराष्ट्र की प्रसिद्द गान और नृत्य कला है। ‘ढोलकी’ के ताल पर थिरकती हुई, ९ गज की साडी पहनी हुई लावण्यमयी स्त्री का यह नृत्य जनसामान्य में, शहरों और गाँवों में, बेहद लोकप्रिय है। धर्म, राजनीति, मुहब्बत और समाज जैसे संवेदनशील विषयों पर, दोहरे अर्थ के शब्दों से कई बार लैस, लावणी एक कामुक, शृंगारिक कला प्रकार है जो मनोरंजन के माध्यम से अपना सन्देश प्रेक्षकों तक बखूबी पहुंचाता है।
इस विडियो की कहानी में मेघा (मेघा घाडगे) अपने प्रेमी का इंतज़ार कर रही है। वह अपनी सखी शकू (शकुन्तला नागरकर) को अफ़सोस जताती है कि आशिक को सम्मति की व्याख्या के नाज़ुक और जटिल पुर्जें – उसका ‘पॉइंट’ – समझ में नहीं आते हैं। शकू खुलासा करती है कि बाज़ार में वह ‘चिकना भारी’ (‘शोप्कीपर? हाँ जी बहनजी!’ के चुटकुलों द्वारा प्रसिद्द गौरव गेरा, तीनों आशिकों के रोल में) से मिलती है, जो शकू को उसके घर छोड़ने का प्रस्ताव रखता है। वह हंसकर ‘कंसेंट’ देती है। लेकिन चिकने को घर के अन्दर आने की अनुमति नहीं देने के लिए शकू स्वायत्त है। आशिक पहले मिले इकरार के घमंड में अपनी हकदारी भले ही जताए, शकू अपनी स्वायत्तता नहीं खोती है। इसके विपरीत मेघा का आशिक उसे सनीमा ले जाता है, और वहां मेघा मन होते हुए भी मना करती है। तब प्रेमी की मेघा में दिलचस्पी कम होती है। शकू मेघा को समझाती है कि ईमानदारी से ‘हाँ’, ‘ना’, या ‘शायद’ कहने में ही भलाई है। तीसरा आशिक ‘मेबी’ (शायद) का जवाब सुनकर प्रेयसी का तब तक इंतज़ार करता है, जब तक कि वह राज़ी न हो। शकू के क़दमों के अनुरूप उसके क़दम भी करीब आते हैं। इसलिए ‘कंसेंट’ समझने वाला वह आशिक ‘हीरो’ है, और बाक़ी सारे ‘जीरो’ हैं, यह इस कहानी की सीख है।
यह व्याख्या दिलचस्प है क्योंकि बचपन से ही भारत में पुरुषों को फिल्मों द्वारा यह सीख दी जाती है, कि ‘ना’ मतलब ‘हाँ’। नायिका के मत में तब्दीली लाने में जोर-ज़बरदस्ती करना केवल उचित ही नहीं, बल्कि अनिवार्य भी है। आज समाज में नारीवाद, जिंसी समानता और सम्मति की हवाएँ बह रहीं हैं। फ़िल्मी छेद-छाड़ का तरीका इस रुझान के ठीक विपरीत है। इस विसंगति को नज़रंदाज़ करने में समाज में हर तरफ फैला हुआ सेक्स से जुड़ा पाखण्ड जिम्मेदार है। इन सारे पहलुओं को इस लावणी के लेखक भूषण कोरगावकर ने अपने गाने में बखूबी खोजा है। आइये उनसे जानते है, इस वीडियों और सम्मति के बारे में:
अपने बारे में कुछ बताएँ। लावणी नृत्य प्रकार में संशोधन करने की रूचि आपको कैसे हुई?
शुरुआत से मैं नाटक, शास्त्रीय संगीत और नृत्य पसंद करता था। मुझे सांस्कृतिक दृष्टि से लावणी के बारे में हीन भावना थी, कि हमारे महाराष्ट्र में भरतनाट्यम या कत्थक जैसे परिष्कृत नृत्य के प्रकार क्यों नहीं हैं। तमाशा (लावणी) नृत्यप्रकार तो थोडा असभ्य ही लगता था! एक बार मुझे संगीत बारी परम्परा की नृत्यांगना की लावणी देखने का मौक़ा मिला। कितना सुन्दर था वह अनुभव! मुझे मेरी गलत धारणाओं पर तरस आया। शृंगारिक और कामुक होते हुए भी वह शालीनता की कोई सीमा पार नहीं कर रहा था। मैं भारत नाट्यम, कत्थक और लावणी में समानताएं ढूँढने लगा। थोडा ‘कच्चा’ होते हुए भी लावणी का प्रकार मनोहर और परिपक्व था। इस सन्दर्भ में अनुसंधान किया, और कमर्शियल लावनी शो मुंबई में देखने लगा। ‘बिन बायकांचा तमाशा’ देखा, जिसमें पुरुष स्त्रियों के किरदार में लावणी कर रहे थे। उनके बारे में आलेख लिखें। उस समय २००५ में डाक्यूमेंट्री फिल्म कर्ता सावित्री मेधातुल से मुलाक़ात हुई। उन्हें लावणी बहुत पसंद थी और उन्हें उस पर डाक्यूमेंट्री बनानी थी। संशोधन के पश्चात तय हुआ कि हम लावणी का ऐसा पहलु उजागर करना चाहते हैं, जो पहले कभी ज्यादा दर्शाया न गया हो।
सुषमा देशपांडे के मार्गदर्शन में हमने “संगीत बारी” के विश्व में प्रवेश किया। संगीत बारी यानि बारी-बारी से संगीत के कार्यक्रम करना। संगीत बारी के आज भी ४० थिएटर हैं, और अच्छे चल रहे हैं। इस थिएटर में नृत्य के गुट या ‘पार्टीयाँ’ होती हैं। हर पार्टी में १०-१२ औरतें और ३ पुरुष होते हैं, जो संगीत का साथ देते हैं, और एक पुरुष सेवक होता है। इस प्रकार १५ लोग एक पार्टी बनाते हैं, और उसकी एक (या दो, कभी-कभार ३) मालकिन होती हैं। ये औरतें २-३ खानाबदोश जनजातियों में से आती है। एक बार लड़की घुंगरू बांधती है वह विवाह नहीं कर सकती।
फिर हमारी मेधातुलजी निर्देशित फिल्म ‘नटले तुमच्यासाठी” (मराठी; हिंदी में “सजी मैं आपके लिए” – सजे घूँघट के पीछे) दिसंबर २००८ में प्रदर्शित हुई। इसमें लावणी की २ कहानियां थी, पहली थी ‘मुंबई बैनर शोज’ जिसमें पुरुष और औरतों का सहभाग था, और दूसरी ‘संगीत बारी’।
फिर मैंने एक संगीत बारी कलाकार मोहनाबाई महाळन्ग्रेकर पर व्यक्तित्व वर्णन लिखा जो महाराष्ट्र टाइम्स के दीवाली २००९ के अंक में प्रकाशित हुआ। उसी के बाद इस विषय पर पूरी किताब “संगीत बारी” ९ अगस्त २०१४ को राजहंस प्रकाशन द्वारा प्रकाशित हुई। उस किताब में मोहनाबाई को केंद्रबिंदु रखकर जन्म से सेवा-निवृत्ति तक उनकी ज़िन्दगी बयाँ की है।
‘सम्मति’ का कौनसा पहलू आपको दिलचस्प लगता है?
‘मेबी’/शायद का पहलू! क्योंकि अगर सामने से ‘हाँ’ है तो मैं जानता हूँ कि मैं पीछा करूँ तो मुझे मंजिल हासिल हो जाएगी; अगर ‘ना’ है तो मैं निराश, ठुकराया गया महसूस करता हूँ और मैं अलग रास्ते निकल सकता हूँ। परन्तु अगर जवाब ‘मेबी’ है तो अनिश्चितता मुझे उत्तेजित करती है। कभी हम स्थायी सम्मति देते हैं तो कभी थोड़े समय के लिए।
सम्मति की संकल्पना उजागर करने के लिए लावणी के माध्यम का ही उपयोग क्यों किया?
निर्देशिका परोमिता वोहरा ने हमारा ‘संगीत बारी’ का शो देखा। उन्हें गाने, नृत्य और अभिनय के अंदाज़ ने मोहित किया। वह प्यार और सेक्स के बारे में छोटी फिल्में बनाती हैं, उनकी फिल्म कंपनी ‘एजेंट्स ऑफ़ इश्क’ के ज़रिये। अतः यह उनकी कल्पना थी कि फिल्म बनाएं इस विषय पर। उन्हें हमारे आर्टिस्ट पसंद थे।
सेक्स और लैंगिकता के बारे में सकारात्मक रवैय्या हमारे शो में था जो उन्हें बहुत पसंद आया। उनका यह दृष्टिकोण है कि आज के ज़माने में सेक्स और लैंगिकता के बारे में गुनहगारी के और दबे स्वर में बोला जाता है। लावणी की औरतें अपनी लैंगिक प्रफुल्लता में सहज हैं। हलके से, बिना डरे, बिना डराए, अपनी लेंगिकता को व्यक्तिमत्व का साधारण भाग बनाकर वे मंच पर आती हैं। यह बात परोमिता को भायी।
पुरुषों में सम्मति की संकल्पना द्योतित करने की क्यों ज़रूरत है?
हमारा समाज पुरुषप्रधान है, और इसलिए पुरुष स्त्री को अपनी मालमत्ता समझते हैं: ‘मुझे लड़की पसंद है, बात ख़तम। फिर उसकी इच्छा हो या नहीं, उसे मेरा आचरण स्वीकार करना होगा’। ऐसी कुछ पुरुषों की मनोवृत्ति है। हम काम-सूत्र देने वाला देश कहलाते हैं, पर आज की तारीख में एक स्त्री को रिझाने-लुभाने की परम्परा लुप्त हो रही है। बहुसंख्य पुरुषों में, सेक्स को देखने का दृष्टिकोण बहुत संकुचित है। फिर भी ‘डेटिंग’ का रिवाज आज की पीढी खुले-आम अपना रही है। लेकिन अभी भी ग्रामीण भाग में मिलना-मिलाना छुपकर होता है। इसलिए पुरुषों को समझना चाहिए कि औरत की कुछ पसंद, कुछ प्राथमिकताएं हैं। उसकी सम्मति है या नहीं, यह जानना ज़रूरी है।
मेरे पास आंकड़े नहीं हैं लेकिन अगर समाज सेक्स और यौनिकता की तरफ खुल जाए तो लैंगिक शोषण कम होगा। मेरे कुछ दोस्तों ने बताया है कि यूरोप में लड़के आते हैं, लड़की की तारीफ़ करते हैं और वहां से चले जाते हैं। जिससे लड़कियों को तारीफ़ में धोखा नहीं दिखाई देता। वे प्रशंसा को स्वीकार कर सकती हैं। लेकिन जब वही घटना भारत में घटती है, तो लड़कियों को अच्छा तो लगता है, लेकिन डरतीं भी हैं कि उनके मुस्कुराने को प्रोत्साहन समझकर सामनेवाला कुछ कर न बैठे। लड़कों और लड़कियों के मेल-मिलाप को बढ़ावा मिले और वह स्वाभाविक तौर से हो, इस हेतु से आम लोगों में, खासकर पुरुषों में, ‘सम्मति’ कि संकल्पना द्योतित करने की ज़रूरत है।
यह लावणी आपने कैसे लिखी? इसके चित्रण के दौरान के कोई दिलचस्प अनुभव?
चित्रण के दौरान छायाचित्रकार से स्पॉटबॉय सभी हमारे लिए नए थे। वे मराठी नहीं थे लेकिन वे सब उस गाने को गुनगुनाने लगे थे! शूट ख़त्म होने पर उन्होंने हाथों में हाथ पकड़कर धन्यवाद दिया, और कहा कि शूट में बहुत मज़ा आया।
मैंने ४-५ लावणी लिखीं हैं, लेकिन यह पहली थी जो चित्रित हुई। परोमिता ने जब मुझे लिखने को कहा, तो मुझे बहुत मुश्किल लगा। क्योंकि किसी और की संकल्पना की बुनियाद पर गीत लिखना मेरे लिए कठिन था। परोमिता ने मुझे और सावित्री को घर पर बुलाया, और उसने कहा ‘अभी लिखो’! जानी-मानी लावणी की प्रसिद्द और लोकप्रिय धुन इस्तेमाल करने का सुझाव सावित्री ने दिया। पहला गाना था “पुण्याची मैना”। मैंने गाकर दिखाया, सबको पसंद आया। मेरे लिखे गाने का विषय है कि सम्मति का पॉइंट समझ में नहीं आता, अतः गाने का कोरस लिखना आसान हुआ। परोमिता को एक और आयडिया आई कि पहले चार पंक्तियाँ प्रस्तावना के रूप में हों। जो भेद्यता के बारे में बात करें, दो औरतों के बीच। मराठी शब्दों और धुन को रिहर्सल के दिन पक्का किया।
कला के माध्यम से क्या समाज में बदलाव लाया जा सकता है?
हाँ, लेकिन बदलाव की प्रक्रिया बहुत लम्बी हो सकती हैं। कला प्रकार हम पर छाप छोड़ते हैं। अगर हम वही चीज़ अनेक बार देखते हैं, तो हमारे आचरण और सोच तदनुसार बदलते है। नतीजे समय आने पर दिखाई पड़ते हैं।
भारतीय दंड संहिता की धारा ३७७ में सम्मति देनेवाले वयस्क लोगों के संबंधों को भी गुनाह बताया गया है। आज बच्चों के संरक्षण के लिए अलग कानून बने हैं, और बलात्कार के ख़िलाफ़ भी ‘जेंडर न्यूट्रल’ कानून लाने की माँग है। ऐसे में समलैंगिकों के संबंधों का अपराधीकरण आपके अनुसार कितना जायज़ है?
बिलकुल जायज़ नहीं है। क्योंकि दो वयस्कों में जो भी होता है वह उनका निजी प्रश्न हैं। वे एक दुसरे के साथ जो भी एकांत में करते हैं, यह किसी के हस्तक्षेप का विषय नहीं है। उनका बर्ताव किसी तीसरे व्यक्ति को प्रभावित नहीं करता।
तमाशा नर्तकी और समलैंगिक के जीवन अनुभव में क्या समानताएं और फर्क हैं?
तमाशा आर्टिस्ट और समलैंगिक दोनों, अल्पसंख्यक होने की वजह से थोड़े भयभीत और असुरक्षित रहते हैं। बहुसंख्य लोगों से उनका अलगपन एक तरह से उनका रुतबा ऊँचा भी करता है, और नीचा भी। यह अजीब परिस्थिति है। समलैंगिक और तमाशा कम्युनिटी का कुछ अंश है जो अपनी पहचान खुले-आम दर्शाता है। तो कुछ उस विषय के बारे में बात नहीं करते। अपने आप को स्वीकार करके भी ज़्यादातर अपनी पहचान छिपाते हैं। दोहरी ज़िन्दगी जीते हैं। इतने सारे लावणी आर्टिस्ट हैं, जो बिलकुल हमारे बीच रहते हैं लेकिन पडोसी भी उनके काम की बारे में नहीं जानते हैं। एक तमाशा औरत घुंगरू पहनने के बाद किसी पुरुष की रख-रखाई की मोहताज हो जाती है। समाज में ऐसी औरत का दर्जा शादीशुदा औरत से कम है। अविवाहित स्त्री भी अगर शारीरिक संबंधों से परहेज़ करे तो उसे कुछ ओहदा मिलता हैं। लेकिन ‘वैसी’ औरतों को बिलकुल नहीं मिलता। उनके बच्चे भी बाहर जाकर नहीं बताते अपनी माँ के बारे में कि वह क्या करती है; या अपने पिता के बारे में कि वह कौन है। और आखिर, दोनों के पास शादी का विकल्प नहीं होने की वजह से उनके रिश्तों को समान दर्जा नहीं मिलता।
“संगीत बारी” का अगला प्रयोग ८ अप्रैल को शाम ६:३० बजे, साठ्ये कोलेज ऑडिटोरियम, विले पार्ले (पूर्व), मुंबई में होगा। टिकटों के लिए (+91)9004649242 यानि (+९१)९००४६४९२४२ पर सम्पर्क करें,या ऑनलाइन बुक करें।
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