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कविता – इश्क़ के इम्तेहान

Picture credit: Aman Altaf / QGraphy

बड़ी मुद्दत हुई तेरी महफिल से रुसवा हुए
ज़ख्म पर ये आज सा लगता है
वैसे तो तनहा पहले भी हुए मगर
पर अब ये सुनापन आग सा लगता है।

यादों की तर्कश में कांटे थे कभी
पर इस बार जज़्बा ये खास लगता है
उनकी आहट रोज़ सूनते थे कभी
पर अब ये खमोशी के आगाज़ सा लगता है।

उलफत के सफर में ठोकर लगीं है मगर
सहारा वो अपना अभी भी पास सा लगता है
वफ़ा की कसौटी पे हार गये हम
ऐसा अब एहसास सा लगता है।

मंझर वो भी था कभी दिलफेंक सा
अब तो राग ये बिना साज का लगता है
इम्तेहान हैं ये इश्क़ के हद्द की
के आलम ये दिल का अब आप सा लगता है।।

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