कविता : किन्नर हैं वो !

न नर हैं
न नारी हैं वो
लोगों के कथनानुसार –
किन्नर हैं वो !

कोई कहे उन्हें छक्का
तो कोई कहे बीच वाला
अरे ! तुम भी कोई नाम दे दो
इससे भी नीच वाला

मत रुको तुम भी !
तुम तो इनसे अलग हो
तुम भी कुछ दूषित कह दो
जो इनसे संलग्न हो

इंसानों के होते हुए भी
नाच – गा के है कमाया
मन न भी हो, तब भी !
हाथ फैलाकर है खाया,

जन्म के बाद से ही तिरस्कार है मिला
मृत्यु के पश्चात भी सत्कार न मिला
इससे अच्छा तो होता कि
इन्हें जन्म ही न मिला होता

इनके विषय में वर्षों से
ये कैसी अवधारणा है पनपी
जो तालियों तक में विभिन्नता आ धमकी
इनकी ताली बीच वाली
और हमारी ताली सम्मान वाली

न नर हैं
न नारी हैं वो
लोगों के कथनानुसार –
किन्नर हैं वो !

यह रचना किन्नर समुदाय का अपमान करने वालों के प्रति एक व्यंग्यात्मक कविता है। यह कविता किन्नर समुदाय के विषय में वर्षों से फैले मिथ्या भ्रमों और उनके होते आए अपमान को उजागर करती है कि उन्हें कितने अपमानजनक और अभद्र नामों से पुकारा जाता है। यह कविता उस पूरे मनुष्य समुदाय के प्रति एक प्रकार का ताना है, जिसने वर्षों तक किन्नर समुदाय के अपमान में बढ़-चढ़कर भागीदारी निभाई है, जिससे वो आज भी हमारे समुदाय से पूरी तरह और सहसम्मान नहीं जुड़ पाए हैं ।