गुड़ियाएं मेरे हर राज़ की राज़दार थी
कपड़े से बनी, मोटी आँखों वाली
अनगढ़ अंगों वाली और हमेशा हँसने वाली
जब से बड़ा हुआ, मैंने हर अपना दुख कह दिया इनसे
अपनी हर खुशी बता दी, बांट ली।
माँ बाज़ार से नही खरीद पाती थी महँगे खिलौने
पुराने सफेद साये से बना देती थी गुड़िया मेरे लिए भी बहनों के साथ-साथ,
मैं पुराने कपड़ों से लेकर उसके काली ऊन से बने बालों को और काजल से बने उसकी आखों को बहुत ध्यान से देखता था।
जब भी सोचता था कि कोई गुड्डा क्यों नही बनता इतना सुंदर?
बस यही दुःख मुझे सालता था हर बार नई गुड़िया के बनने पर
बहनें खिलाती मुझे अपने साथ
बनाती मुझे गुड्डा और ब्याह देती अपनी-अपनी गुड़िया बारी-बारी से मेरे साथ।
मैं अपनी गुड़िया लिए सारे घर में घूमता…
माँ हँसती, बहनें खुश होतीं और भाई छेड़ता
मैं समझता कि सब बहुत प्यार करते हैं मुझे
एक दिन मेरी गुड़िया छीन ले गया कोई
मैं बिलखता रहा
घर पर माँ समझाती
दूसरी बना के देने का दिलासा देती
पर उदास ही रहता मैं।
एक दिन मैं खुद हो गया गुड़िया
सजा करता काजल बिंदी और बुंदो के साथ
बहनें हँसती, माँ लाड़ करती
पर भाई ने पीट दिया एक दिन
काट लिया मुझे गाल पर गुस्से में।
मैं रो पड़ा
माँ मेरी छाती पर हाथ फेर कर देखती थी मुझे नहलाते हुए
मैं स्कूल से लौट कर पहन लेता अगर कभी बहन की छोटी स्कर्ट तो
भाई मुझे अपनी गोद में बिठा लेता था
प्यार से, मैं कह नही पाया पर…
अब वो सब कुछ कितना पीछे छूट जाता है..
अब मेरा दुख बाँटे
ऐसी कोई गुड़िया नही
मेरी बीवी झल्लाती है
बच्चों पर
मुझ पर
और मैं
उदास हो जाता हूँ
अपनी गुड़िया को याद करके
जिसे वक़्त छीन कर ले गया।
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- कविता : गुड़िया - May 12, 2019