१९६० के दशक में जनमेंएक भारतीय समलैंगिक की जीवन कहानी, उनकी ज़बानी। दो भागों का पहला भाग।
कमल का फूल आत्मिक जागृति का प्रतीक माना जाता है। भगवान् बुद्ध ने कली से फूल तक के कमल के परिवर्तन को उदाहरण बनाकर आत्मिक विकास के क्रमशः चरणों को समझाया है। मेरी या अन्य समलैंगिकों की ‘कमिंग आउट’ या आत्मोद्घाटन की कहानी भी कमल की कली के खिलने जैसी है। शुरुआत उस पल से हुई जब समझ आया कि मेरी दिलचस्पी दूसरों से अलग है। भ्रम, शर्मिंदगी और इंकार के चरणों से होकर ही मैं आत्म-स्वीकृति तक पहुँच पाया। इन पड़ावों को मैं अपने अनुभवों के उदाहरणों द्वारा स्पष्ट करूँगा। शायद आप लोगों का अनुभव भी कुछ ऐसा ही रहा हो?
मैं जन्म से समलैंगिक हूँ। बचपन से मैंने पुरुष के शरीर को प्रेम किया है, उसके बारे में सपने देखे, और उसे बिना कपड़ों से ढके हुए देखने की इच्छा रखी। स्त्रियों की तरफ ऐसी कोई इच्छा नहीं थी, भले ही वे कितनी भी सुन्दर क्यों न हो। पर मैंने कभी इसके लिए अपने आप को दोषी नहीं ठहराया। आख़िर मुझे विभिन्न चीज़ों में हमेशा से दिलचस्पी रही थी – जैसे हवाई जहाज, कीड़े-मकौड़े, कहानियाँ, लज्जतदार खाना इत्यादि। मुझे लगा मेरा पुरुषों की तरफ का आकर्षण भी इन्हीं चीज़ों की तरह है, बस! मुझे पता था की दूसरों को बिना कपड़ों के निहारना गलत समझा जाता है। लेकिन पुरुष को ताड़ना स्त्री को ताड़ने से बड़ा जुर्म है, ये मैं नहीं जानता था।
दूसरों से अलग होने का एहसास किशोरावस्था में हुआ। दोस्त और सहपाठी प्यार और सैक्स के बारे में बातें करने लगे। उस समय की लोकप्रिय अभिनेत्रियों पर कई लौंडे फ़िदा थे। जसबाती लड़के अपने एकतरफा प्यार की बड़ी नुमाइश करते। जो बेशरम थे वे अपनी महबूबा की बॉडी के बारे में गंदी बातें करते। इस सब के बीच मैं अपने आप को अकेला महसूस करने लगा। ऐसा लगा कि मेरे इर्द-गिर्द कामुक भावनाओं का सैलाब बह रहा था मगर उसमे नहाने की मेरी कोई गुंजाइश नहीं थी। मैं अपने जसबात इन में से किसी के साथ बाँट नहीं सकता था। इंटरनेट का आना तो दशकों दूर था। ऐसी कोई समलैंगिक व्यक्ति नहीं थी जिसे मैं रोल मॉडल मानकर उसके नक़शे-क़दमों पर चल सकूँ। जो अखबार और मासिक हमारे दूर-दराज़ के गाँव में आते थे, वे समलैंगिकता के ‘स’ को कहने से भी कतराते थे। मैं घबड़ाया हुआ और व्याकुल था लेकिन शुक्र है मैंने अपने आप को गुनहगार नहीं माना। घर पर या स्कूल में समलैंगिकता के बारे में किसी ने भी बात नहीं करी। अतः इसके प्रति नफरत की भावना या होमोफोबिया से भी मेरा परिचय जीवन में काफी देरी से हुआ।
फिर शुरू हुई मेरी कुश्ती, नकारात्मक भावनाओं के चार पहलवानों से – ‘परेशानी’ सिंह, ‘गुस्सा’ खां, ‘अपराधी’ कुमार और ‘इंकार’ भाई से। घर पर कड़े अनुशासन का माहौल था। पढ़ाई के अलावा किसी भी चीज़ के लिए वक़्त नहीं था। जो गिने-चुने दोस्त बने थे वे माँ-बाप की अनुमति से, क्योंकि वे ‘सभ्य’, ‘किताबी कीड़े’ या ‘विनम्र’ थे। लेकिन यह सबकुछ बदल गया जब मैं कॉलेज गया। वहाँ मैंने पहली बार आज़ादी की साँसें लीं। कॉलेज में लड़के-लड़कियाँ दोनों थे, और मेरा हॉस्टल सिर्फ लड़कों का। गर्लफ्रेंड मिलने पर लड़के फूला नहीं समाते। निडर लड़के अपनी ‘डेट्स’ को हॉस्टल के कमरों तक ले आते। यह देखकर मुझे पहले अचंबा हुआ, फिर जलन, और आखिरकार नाराज़गी। और फिर यह कड़वाहट – कि ज़िन्दगी ने मेरे साथ बड़ा अन्याय किया है। मुझे भी किसी के द्वारा अपना बिस्तर गरम करवाने की ज़रूरत महसूस हुई। फ़र्क़ सिर्फ इतना था की दुसरे लड़के अगली सुबह नाश्ता करते समय अपनी करामात का बढ़ा-चढ़ाकर इज़हार करते। जबकि मैं अपने पुरुष-पार्टनर को चोरी-छुपे कमरे में ले आता। बहाना यह बनाता की वह मेरा चचेरा-ममेरा भाई है, जिसे एक रात पनाह की ज़रुरत थी। बहुत डर महसूस होता – क्या किसी को शक़ होगा? क्या यह राज़ सबको मालूम होने पर मेरी नाक कटेगी? क्या मैं कॉलेज से निकाला जाऊँगा? क्या मेरे खानदान की बदनामी होगी?
कहना न होगा कि इस सब के बारे में मैं अपने परिवार-वालों से कुछ नहीं कह सकता था। उनसे बातें छुपाना मुझे बहुत बुरा लगता। ज़िन्दगी में पहली बार अपनी मौजूदगी से ही मैं दुःखी था। इसमें अचरज करने की क्या बात है? जब उन्होंने ये सब महसूस ही नहीं किया, तो वे कैसे समझ पाते? उनसे कहना ही बेकार था। वह कहावत याद आती है। ‘अंधों के सामने रोएँ, और अपने नयन खोएँ’। मैं जैसे किसी अन्य ग्रह का वासी था, और बहरूपिया बनकर पृथ्वी पर मानव-जाती के बीच भेस बदलकर रह रहा था। हमेशा सहमा हुआ, ये सोचकर कि अगर मेरी असलियत सामने आये तो लोग क्या कहेंगे? क्या करेंगे? समस्त परिवार का मैं आँखों का तारा रहा था। हमेशा ‘अच्छा बच्चा’ यह किरदार निभाने वाला। विनम्र और आज्ञाधारी, परोसी हुई करेले की सब्ज़ी को भी बिना शिकायत किये गले से नीचे उतारने वाला। बिना नाटक-नखरे किये पढ़ाई करनेवाला। कहने का मतलब है, हर सीमा, हर मर्यादा को मानकर स्थापित मानदंडों के अनुरूप चलनेवाला। ऐसा पहली बार हुआ की समाज की अपेक्षाओं से मेरी इच्छाओं का टकराव हुआ। लेकिन नियमों के दायरे में रहने का मैं इतना आदी हो गया था कि भीड़ की मानसिकता के सामने मैंने सर झुकाया और भेड़चाल अपनायी। विद्रोह या संघर्ष का विचार मेरे मन में कभी नहीं आया. उस समय भारत में समलैंगिकों के लिए कोई संस्थाएँ कार्यरत नहीं थी। ‘एकला चलो रे’ का नारा लगाकर, शहीद मीनार की बगल में खड़े होकर आने-जानेवालों को पैम्फलेट बाँटकर जागृति बढ़ाने वालों में मैं कतई नहीं था।
फिर शुरू हुआ सिलसिला अपने रुझान को नकारने का। गर्लफ्रेंडों की लाइन लगा दी। कॉलेज के दिनों में मुझे यह ग़लतफ़हमी थी कि लैंगिकता, खासकर समलैंगिकता, सिर्फ इससे है कि आप किसके साथ सैक्स करते हैं। इस सोच के परिणामस्वरूप मैं सोचने लगा, अगर, या जब तक मैं मर्दों के साथ सैक्स नहीं करूँ, तो मैं गे नहीं हूँ। सैक्स शरीर के इंद्रियों की आसक्ति है। उससे दूर रहने से मेरे व्यक्तिगत विकास में बढ़ौती होगी। सभी लोगों का यह ध्येय होना चाहिए – वासना से छुटकारा। कौन अपने आप को मानवता में सागर में विलीन नहीं करना चाहता? कौन अलग होकर, भेदभाव का शिकार होकर, अकेलेपन से झूंझना चाहता है?
इसलिए मैंने गर्लफ्रेंड बनायीं। हाँ, जैसे मैं कह रहा हूँ वाकई यह इतना सहज था। इसके लिए मुझे कोई बड़ा प्रयास भी नहीं करना पड़ा। भारतीय समाज है ही ऐसा। बीस साल का लड़का अगर किसी हम-उम्र लड़की के साथ बातचीत करना शुरू करे, सारी दुनिया आपको रोमांस के बंधन में बाँध देती है। गपशप करनेवालों ने सारे कॉलेज में हमारे ‘क़िस्से’ की ख़बर फैलायी। यह जानकर मुझे अच्छा भी लगा। गे लड़कों की लड़कियों के साथ दोस्ती आसानी से बनती है। वे लड़कियों को बतौर ‘आयटम’ नहीं देखते। उनकी कठिनाइयों से सहानुभूति रखते हैं। जब उनके कपड़ों की तारीफ़ करते हैं, उसका मक़सद उनको पटाना नहीं होता। बहुत सारी ऐसी वजहें हैं गे पुरुषों और स्ट्रेट लड़कियों के बीच होनेवाली की दोस्ती की। लेकिन एक कठिनाई थी।
मेरी ‘गर्लफ्रेंडों’ को धीरे-धीरे समझ में आने लगा कि मेरी रोमांस की संकल्पना होटलों में डिनर करने और साथ सिनेमागृह में फ़िल्म देखने तक सीमित थी। मैं न ही उन्हें चूमना चाहता था, न ही उनके हाथ पकड़ना। मेरे बर्ताव में कोई सच्चा जसबा नहीं था, सिर्फ अच्छी तरह अभ्यासित शिष्टता। न ही कोई गिड़गिड़ाहट, न ही एक साथ रहने या भविष्य के बारे में सोचने की चाह। लगातार ३ ऐसी गर्लफ्रेंडों के बाद मेरी समझ में आया कि यह सब कितना निरर्थक है। मैंने ये व्यर्थ प्रयास छोड़ दिए। अपने आप को कोसने लगा कि मेरा दिल पत्थर का बना हुआ है। मैं अपने अलावा किसी और के बारे में नहीं सोच सकता। मुझे बस अपने करियर की फ़िक्र है। अतः मुझे किसी से प्यार होना नामुमकिन है।
शिखर ‘स्वीकृति’ मासिक के शांतनु गिरी के शुक्रगुज़ार हैं। इस लेख का अंग्रेजी रूपांतर वहाँ प्रकाशित होने वाला है.
क्या हुआ होगा शिखर के जीवन में? पढ़िए हमारे अगले अंक (मई ०१, २०१४) में शिखर की जीवन कहानी का दूसरा भाग।