क्या आप जानते हैं कि बाइंडर क्या चीज़ होती है? नहीं, वह काग़ज़ पर्चे वाला नहीं।
बाइंडर हम ट्रान्समैस्क लोगों के लिए कुछ अलग होता है। (यदि आप “ट्रान्समैस्क” शब्द से अपरिचित हैं तो गूगल बाबा की निर्बाध मदद लें। या फिर यूँ समझ लें कि कोई एसा शक्स जिसका पैदाइश लिंग स्त्री माना गया हो मगर जिसकी खुद की पहचान मर्दानी हो।) ट्रान्समैस्क जनों के लिए ‘बाइंडर’ एक जादुई, मुकद्दस, अमृत-मीठी, तकनीकी चमत्कारी चीज़ हैं।
अब आप ज़रूर सोच रहे होंगे, “भाई ऐसा क्या है तुम्हारे इस बाइंडर में?”
देखिये जब मेरे जैसे लोग, यानी ट्रान्समैस्क, जिन्हे भगवन ने थोड़ा अलग सा बनाया है, हमें हमारी छातियाँ कई बार भाती नहीं हैं। मुझे मेरी तो कतई नहीं भाती। लगता है कि जब ऊपर वाले ने मेरा दिल बनाया तो कुछ मर्दानी मिट्टी से बनाया लेकिन गलती से सीने पर ‘औरत’ की छाती चढ़ादी। बदतमीज़ी से कहूँ तो मुझे मेरे स्तन नहीं पसंद। अब यह जो बाइंडर है, यह एक ऐसा वस्त्र है जिसे पहनने पर छाती की सुडौल दिखावट ढल जाती है। मैंने भी उन्नीस साल की उम्र पर इस आविष्कार के बारे में जानते ही दृढ़ निश्चय कर लिया कि यह चीज़ तो खरीदनी पड़ेगी।
“40 USD + शिपिंग”
अभी तक अगर आप जान नहीं पाए हैं, तो मैं आप को बता देता हूँ कि मैं एशिया के विकासशील देश इंडिया का निवासी हूँ। आपको यह भी जानकारी दे दूँ की 2021 में एक डॉलर कम से कम चौरासी रुपय के बराबर होता था। तो अगर आप गणित करने का कष्ठ करें और महंगाई से परहेज़ करने वाली विचारधरा से हमदर्दी रखेॅ , तो आप समझ जायेंगे की क्यों मैंने “40 USD + शिपिंग” पढ़ते ही लैपटॉप बंद कर दिया।
लेकिन जैसे अमरीकी गायक-अभिनेत्री और 2013 में हर 11 साल के आशिक़ (मुझ जैसे) की रूहानी माता सेलीना गोमेज़ ने कहा है-“द हार्ट वांट्स व्हाट इट वांट्स”। तो मैंने ख्वाइशें और कोशिशें जारी रखीं। मौका आया ऊपरवाले की रेहमियत से इस साल 2024 में। कोई दूर-दराज की बुआ-दादी घर चाय पीने आईं। मम्मी के कहने पर मैंने बड़बड़ाते हुए गुस्से में बना भी दी। बुआ जी ख़ूब देर तक पापा को अपनी नसों और नातियों के बारे में बताती रही। फिर मुझे बुलाया गया।
“अरे! बेटी कितनी बड़ी हो गयी है।”
पिछली बार जब मिली थीं बुआ जी तब नैपी में तौहफे दिया करने की उम्र का था मैं। लेकिन ज़रूर, आश्चर्य की बात तो है कि 2002 से 2024 के बीच मैं “कितनी बड़ी हो गयी बेटी!”
“क्या कर रही हो बेटी?”
‘बेटी’ बोलते समय इन लोगों को क्या लगता होगा, बेटी ने पाँच मि.मी. का बज़्ज़्कट और भाई के कपड़े फैंसी-ड्रेस के लिए पहने हैं? मेरा खून थोड़ा खौला लेकिन शान्ति से जवाब दे दिया।
“एम-ए कर रहे हैं।”
“बहुत अच्छे। अफसर बनोगी लग रहा है।”
मैंने बात ख़त्म करने के लिए, हाँ में हाँ मिला दी।
अब निकले दो नोट! वह भी पाँच सौ के। ऊपरवाले का शुक्रिया मनाते हुए मैंने शर्मीली-सी शकल बनाते हुए इंकार जताने कि ऑस्कर लायक ऐक्टिंग करी।
“अरे ले लो।”
“नहीं नहीं! मैं कैसे-“
“अरे बड़ों को ऐसे-“
“ठीक है अगर अब आप इतना कह ही रहीं है तो मैं ले ली लेती हूँ।”
उसी रात मैंने इंस्टाग्राम खोला और तुरंत एक क्वीयर साथी की छोटी ऑनलाइन दुकान पर बाइंडर के लिए आर्डर दे दिया। आप ज़रूर सोच रहे होंगे कि “यूँ-अचानक-खर्चेलू-वगेरा-वगेरा …” तो मैं आपको बता दूँ कि मैंने यह योजना ३ साल से बना राखी थी। ६ महीने तो रिसर्च करने में ऐसे लगाए जैसे कल ही इस विषय पर पीएचडी मिल रही हो। एक अरब दुकाने खोज दी होंगी मैंने। हज़ारो घुड़ सवारों को मिस्र तक भेजा इस अमुल्ये ख़ज़ाने की खोज में। 2400 साल मैंने वनवास किया प्रबोधन के लिए, सिर्फ़ इस बाइंडर को खरीदने की कोशिश में।
अब जब आप इंडिया जैसे देश में क्वीयर पैदा होते है तो बाइंडर खरीदने के भी एक अपनी रणनीति होती है। असम के एक भाई की दूकान से दिल्ली तक का सफ़र नापना था मेरे अमुल्य बाइंडर को। अनेक पोस्टमैन और अनजान सज्जनों के हाथ और मेरे माता-पिता से गुप्त रह कर, उस बेचारे बाइंडर को पहुँचना था मेरी अलमारी तक। सफ़र तय हुआ कुछ ऐसे- असम के दुकानदार साथी ने पोस्ट भेजा दिल्ली के सफ़दरजंग में मेरी सहेली के नाम पर। अब अगर सीधा मेरे घर भेज देते तो दिक्क़त यह थी कि मेरे मम्मी-पापा को पता लग जाता और फिर यह कहानी पढ़ने के बजाये आप मेरी बाल विवाही शादी (मैं 21 साल का हूँ मगर फिर भी…) का कार्ड या फिर अख़बार में एक नए क़िस्म की ‘हॉनर किलिंग’ के निर्माण की घोषणा पढ़ रहे हो।
हाँ तो कहाँ थे हम? हाँ, तो मेरी सहेली के घर आया मेरा पार्सल। अब उम्मीद तो मेरी यह थी कि जैसे ही सहेली के हाथ पार्सल लगता, मेैं सुपरमैन की रफ़्तार से दौड़ कर उसके घर पहुँच कर बाइंडर अपने सीने से लगा लेती। मगर मेरा औरतानी शारीरिक भेष, घडी की ७.३० दिखाती हुई नोक, दिल्ली शहर के हालत और पापा के ऐनक के पीछे छिपी घूरती आँखों ने मुझे उड़ान लगाने से रोक दिया।
आखिर में बाइंडर हाँथ लगा दिल्ली बुक फेयर २०२४ के लेडीज़ बाथरूम में। मैं और मेरी सहेलियाँ, लाख किताबों की दावत अनदेखी करके एक बाथरूम में घुस गए।आपको बता दें कि बाइंडर पहनना भी अलग कठिन काम है। एक सहेली ने दरवाज़े के बाहर पहरा दिया और में और मेरी दूसरी सहेली जुट गए मेरे स्तनों को बाइंडर में ठूँसने में। ज़्यादा कुछ नहीं बताऊँगा लेकिन यह याद रखें की बाइंडर का कपडा बेहद कसा हुआ होता है ताकि स्तनों का मोटापन दबा सके। इसीलिए उसे पहेली बार पहनना एक जंग लड़ने से काम नहीं। अगर मेरी सहेली और मेरी इस प्रयास के दौरान होने वाली बातें सुनकर बाथरूम में बैठी परिश्रमी अटेंडेंट को ख़्याल आया की हम अंदर कुछ अश्लील हरकतें कर रहे हैं; तो में उनकी ग़लत फेहमी को जायज़ मानता और उन्हें एक अनकही माफ़ी भेजता हूँ।
“इधर क्यों डाल रहे हो?” मेरी सहेली ने मेरी बाँह खींचते हुए कहा।
“तो और कैसे घूसाऊँ? और कहीं डालने से दर्द होगा!” मैंने भी झुँझलाते हुए बोला।
“साँस रोक के रखो, नहीं तोह मैं चढ़ा नहीं पाउंगी!” मेरी सहेली ने कहा, साइड-हुक लगते हुए.
मैंने साँस रोक ली।
किसी तरह 15 मिनट की जंग के बाद हम दोनों बाथरूम से बाहर निकले। कुछ खड़ी हुई औरतों ने हमें घिन्न भरी आँखों से घूरा, लेकिन कुछ कहा नहीं । मेरे पास उनके लिए वक़्त भी नहीं था। दुरोंतो एक्सप्रेस की रफ़्तार से शीशे के सामने पहुँचा। ख़ुदा कसम, वहीँ बीच बाथरूम में रोना आने लगा। मगर मैंने ख़ुद पर काबू किया और फिर से शीशे में अपने आप से आँखें मिलायीं। मेरे चेहरे से मुस्कान हटने का जैसे नाम ही नहीं ले रही थी।
इतने सालों के रोने-धोने और दिल में बसा खुला ज़ख्म जैसे एक मिनट में गायब होगया। छाती पर आखिरकार स्तनों का आकार नहीं दिख रहा था। आश्चर्य की बात है न? एक इतनी बड़ी चीज़ जो मुझे रोज़ दुखाती थी, बस यूँ ही गायब होगई। मेरे छोटे बाल, पैंट और शर्ट में मैं और भी लड़के सा लग रहा था! सच-मुच इतनी खुशी कभी नहीं हुई। मैंने मन ही मन में भगवान को एक शुक्रिया भेजा, इस बाइंडर के लिए और मेरी सहेलियों जैसे प्यारे लोगों को मेरी ज़िन्दगी में लाने के लिए भी।
दिन ख़त्म हुआ काफ़ी सारी किताबों की खरीदारी और अच्छे, चटपटे खाने की पेट पूजा से। मैं थका-हारा घर पहुँचा। काफ़ी अनुशासनहीन तरीके से जूते कमरे में ही उतारकर सीधा बिस्तर पर लेट गया। इंस्टाग्राम खोलकर दुकानदार भाई को एक शुक्रिये का मैसेज भेजा। भाई ने रिप्लाई तुरंत किया। कुछ शुक्रिया बोले और फिर सख्ती से बाइंडर धोने का तरीक़ा बताया ताकि वह ख़राब ना हो। मैंने सोचा कि अपने बाइंडर को तो मैं इतने प्यार से रखूँगा, नर्म हाथों से कल ख़ुद ही धोऊंगा। और फिर नींद मुझे अपने पंखों पर उड़ा ले गई।
अगली सुबह मैं यूनिवर्सिटी के लिए तैयार होने लगा जब याद आया कि अब ४ लेयर पहने की ज़रुरत कहाँ है? छाती छुपाने के लिए सिर्फ़ एक बाइंडर पेहनना पड़ेगा! तौलिये में लिपटा हुआ मैं अलमारी के कबाड़ में बाइंडर ढूँढने लगा। पर कहीं नज़र ही नहीं आ रहा था बाइंडर। तभी मम्मी कमरे में घुसीं
“क्या ढूँढ रही हो? देर हो जाएगी तुम्हे!” वह डाँटते हुए बोलीं।
“एक वह काला-सा टॉप कल यहाँ पड़ा था! कहाँ गया?” मैंने कपड़ो के पहाड़ में दोबारा कूदते हुए पूछा। दो मिनट तक कोई आवाज़ नहीं आयी और फिर मम्मी कमरे में वापिस आयी, उनके हाथ में कुछ कला रुमाल-सा था। यह मम्मी भी ना! मैं कुछ ढूँढ रही हूँ, और वह यह रुमाल लें आयीं!
“यह वाला? कैसे कपड़े खरीदती हो तुम भी, कल मशीन में धुलने के लिए डाला मैंने और एक ही बार में सुकड़ गया पूरा। इसलिए कहते हैं कि सिंथेटिक कपड़े मत ख़रीदा करो, मगर तुम किसी की सुनोगी तो न! कुछ और पहन लो क्योंकि अब अगर देर होगी तो डाँट खाओगी…” बड़बड़ाते हुए कमरे से चली गईं।