आज दिल्ली विधान सभा के चुनाव में हुई आम आदमी पार्टी की जीत भारत के लैंगिकता अल्पसंख्यक समाज के लिए विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है।
भारत की राजनीति में एक नई सोच को दिल्ली की जनता ने पुरस्कृत किया है। २०११ और २०१२ से जन लोकपाल विधायक के पक्ष में भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन द्वारा निष्कपटता और पारदर्शिता की इस नई सोच के बीज बोए गए। आज, लगभग ३-४ साल बाद, इन अंकुरों ने ‘आम आदमी पार्टी’ की चुनावी जीत के रूप में फल दिए हैं। इस लेख का उद्देश्य किसी एक पक्ष या व्यक्ति की बढ़ाई करना नहीं है, बल्कि भारत में हो रहे सामाजिक क्रांतियों , सियासी समीकरणों, राजनीती करने के तरीकों और राज्य/राष्ट्रिय स्तर पर लिए जाने वाले निर्णयों की बुनियाद बने मूल्यों की प्रणाली में बदलाव का एल.जी.बी.टी. समाज के भविष्य की जानिब से जायज़ा लेना है।
हिंदुस्तान का क्वीयर समाज दिसंबर २०१३ के बाद एक अजीब विरोधाभास से गुज़र रहा है। एक दृष्टिकोण से माहौल मायूसी का है। एक तरफ उच्चतम न्यायलय के ११-१२-१३ के समलैंगिकता का लगभग पुनरपराधिकरण करने के निर्णय के बाद समलैंगिक समाज उदासीनता की खाई में फेंका गया है। पुनरीक्षा याचिका के अस्वीकृत होने के बाद उपचारात्मक याचिका पर समाज के सदस्य आँखें लगाए बैठे हैं। लेकिन सवा साल बाद ये सूनी आँखें, विभिन्न हलकों से उनमें झोंकी गई धूल की वजह से इतनी रूखी हो गयी हैं, कि वे अब आँसूँ भी नहीं बहा पाती। उच्चतम न्यायलय में मामला आगे नहीं बढ़ रहा है। २०१५ में खुली सुनवाई हुई भी तो अंजाम क्या होगा, इसकी कोई गरंटी नहीं है। उपचारात्मक याचिकाओं के यश का ऐतिहासिक अनुपात (रेट) नगण्य है। देश का १५ करोड़ क्वियर समाज अँधेरे क्षितिज को देख रहा है अपनी रूखी आँखों से, इस उम्मीद के साथ कि भोर की कमसकम एक किरण दिखाई दे ।
उधर मौजूदा भा.ज.पा. सरकार के कुछ सदस्यों के कुछ सकारात्मक शब्दों पर संतोष मानकर अपनी आशाएं जागृत रखने का फैसला कईयों ने किया है। सरकार से जुड़े कुछ लोगों के प्रतिगामी बयानों ने संकट के संकेत दिए हैं। भले ही समलैंगिकों के खिलाफ सीधे-सीधे किसी ने निशाना नहीं साधा, लेकिन विचारों की संकीर्णता और उन्हें व्यक्त करने के तरीके में बेअदबी से समलैंगिक समुदाय निराश है। अतः कुछ क्वीयर लोगों का यह विशवास हो गया है कि मौजूदा सरकार के साथ कोई बातचीत या सुलह नहीं हो सकती है, प्रतिरोध में ही क्वियर मूवमेंट का भविष्य है। सामान्य गे-लेस्बियन-बाइसेक्शुअल-ट्रांसजेंडर का सरकार के प्रति रवैय्या जैसा भी हो, आज वे अपने आप को अनाथ महसूस कर रहे हैं, क्योंकि दुर्भाग्य से न सरकार न न्यायव्यवस्था उनके अधिकारों में तृण-मात्र दिलचस्पी रखती हुई दिखाई देती है।
दूसरी तरफ क्वियर संस्कृति के भारत में मानो पंख निकल आए हैं। २००९ के दिल्ली हाई कोर्ट के निर्णय के बाद खासकर युवा पीढ़ी के बहुत सारे लैंगिक अल्पसंख्यक अपनी ज़िन्दगी खुले-आम जीने लगे थे। समुदाय का मानना है कि भले ही कुछ लोग उन्हें स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है, वे अपनी शनाख्त अपनाने और दिखाने के लिए उत्सुक हैं। इस वजह से आज देश में दर्जनों शहरों में गौरव यात्राएं, एल-जी-बी-टी चलचित्र महोत्सव, संस्थाओं के गठन और कार्यक्रम खुले-आम हो रहे हैं। कम्युनिटी के सदस्य और कार्यकर्ता भारत-भर में एक दूसरे से संपर्क, और आपसी समर्थन कर रहे हैं। मीडिया भी ज़्यादातर समलैंगिक अधिकारों के संघर्ष के प्रति सहिष्णु है। इस बात का संसद या न्यायलय को अहसास हो न हो, आज का भारत, समलैंगिकों को उनके अधिकार देने के लिए सक्षम, इच्छुक और मुस्तैद है। इंटरनेट की वजह से एक युवा समलैंगिक आज बहुत सारे संसाधनों को प्राप्त कर सकता है। समलैंगिकों के माता-पिता भी अपने बच्चों के अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं। ये सारे सकारात्मक बदलाव, नकारात्मकता को टक्कर दे रहे हैं।
और इसी सकारात्मक-नकारात्मक द्वंद्व के बीच देश की राजनीती के रंगमंच पर दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार का अहम आगमन हुआ है। यह सच है कि २०१४ के आम चुनावों के समय लैंगिक अल्पसंख्यक समाज को आम आदमी पार्टी से बड़ी उम्मीदें थीं। नेताओं के समलैंगिक अधिकारों के समर्थन के बयानों के बाद समुदाय के काफी सदस्यों ने पार्टी की और रुख किया। ११-१२-१३ के निर्णय के बाद आम आदमी पार्टी ने एक बयान जारी किया था: “आम आदमी पार्टी उच्चतम न्यायलय के भारतीय दंड संहिता की धरा ३७७ को क़ायम रखने और इस विषय पर आए दिल्ली उच्च न्यायलय के ऐतिहासिक निर्णय को रद्द करनेवाले फैसले से निराश है। सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय अतः परस्पर सहमति से किए गए वयस्कों के निजी आचरण का अपराधीकरण करता है। वे सभी लोग जिनका लैंगिक रुझान जन्म से या चुनाव से अलग है, पुलिस के रहम पर छोड़े जाएँगे। न सिर्फ यह इन व्यक्तियों के मानव अधिकारों का उल्लंघन करता है, बलि हमारे संविधान के उदार मूल्यों और आजके समय पर मौजूद भावनाओं के के भी खिलाफ जाता है। आम आदमी पार्टी यह उम्मीद और अपेक्षा रखती है कि उच्चतम न्यायलय इस फैसले की पुनः समीक्षा करेगा और संसद भी इस पुरातन कानून को निरस्त करने के लिए क़दम बढ़ाएगा।” यह उम्मीद थी कि भारतीय दंड संहिता के धारा ३७७ को ख़ारिज या तब्दील करने की मांग को पक्ष अपने चुनावी घोषणापत्र में शामिल करेगा। आखरी समय पर ऐसा नहीं होने से समाज के उन सदस्यों में काफी निराशा फैली, जिन्होंने इस नई पार्टी को समर्थन दिया था।
इस द्वंव, और सियासी-न्यायिक कट्टरता की पृष्टभूमि पर दो ऐसी समस्याएँ हैं जिनसे सम्बंधित सामाजिक प्रतिक्रिया का क्वियर अधिकारों से क़रीबी तालुक है। भारत में नारी असुरक्षितता के बोहरान का कोई अंत नहीं दिखाई दे रहा है। किसी भी सामाजिक मुद्दे पर सामाजिक और न्यायिक बदलाव लाना कितना मुश्किल है, यह इस बात से मालूम होता है देश की ५०% महिला आबादी अपने मूलभूत अधिकारों से – जैसे सड़कों पर बिना डर के चलना – आज, २०१५ की तारीख में कई बार वंचित है। बलात्कार और लैंगिक शोषण की हर खबर के बाद उद्रेक होता है, वह शांत हुआ न हुआ कि एक और शर्मनाक खबर सुर्ख़ियों में आती है। दूसरा बड़ा बोहरान है कुछ जगहों पर विभिन्न प्रांतों से आए लोगों में स्थाई लोगों द्वारा डराए-धमकाए जाने के खौफ या हिंसाचार का।
इन दोनों कठिनाइयों का अभ्यास करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि इनके स्रोत एक ही हैं: पितृसत्ता की असम्यक तरफदारी, और संविधान द्वारा दिए गए बुनियादी अधिकारों – जैसे अप्रतिबद्ध आवाजाही, आत्म-अभिव्यक्ति इत्यादि – का उल्लंघन। और यहीं स्रोत हैं लैंगिकता अल्पसंख्यकों के खिलाफ हो रहे भेदभाव के। इसलिए लैंगिकता अल्पसंख्यक समाज को भी इस बात का अहसास हो रहा है कि उसका संघर्ष भारतीय समाज में असंवैधानिक अधिकार उल्लंघन के खिलाफ लड़े जाने वाले संघर्षों से जुदा नहीं है। उदाहरणार्थ अगर एक लड़की इसलिए रेप करने लायक समझी जाती है, कि वह विशिष्ट कपडे पहनती है, उसी प्रकार एक गे या ट्रांसजेंडर को छेड़खानी या रेप का चुप्पा समर्थन होता है जब वह मेकअप लगाता या लगाती है। दोनों कुछ लोगों कि दृष्टिकोण में परंपरागत मूल्यों का अपमान करते हैं। जब एक औरत पर सूरज ढलने के बाद सड़क पर उतरने पर पाबंदी लगती है; जब धर्म, भाषा या शारीरिक विशेषताओं की वजह से हमारे गाँव-शहरों में किसी के रहने पर या आवाजाही पर रोक लगती है, वैसे ही बगीचों या अन्य सार्वजनिक स्थलों पर मिलने-जुलने वाले लैंगिकता अल्पसंख्यकों को परेशान किया जाता है, उनकी जबरन शादियाँ की जाती हैं, धमकियाँ देकर उनसे पैसे ऐंठे जाते हैं, और उनके खिलाफ नैतिकता और समाज-रक्षण के नाम पर हिंसा की जाती है। उन्हीं संघर्षों का समर्थन करकर, और उनसे समर्थन प्राप्त करकर समलैंगिक समाज अपने अधिकारों की प्राप्ती की गुहार लगा सकता है।
इन कठिनाइयों को सुलझाने में मौजूदा प्रमुख विचारधारा अक्षम सिद्ध हो रही है। उसके लिए आदर्श सिद्धांतों के ढाँचे को बदलने की ज़रूरत है, एक नई विचारधारा के साथ। और वही नयी सोच, जिसने आम आदमी पार्टी को बड़ी कठिनाइयों के बावजूद इन ऊंचाइयों तक पहुँचाया है, देश के समलैंगिक समाज को उसके अधिकारों तक पहुंचा सकती है।
इस सियासी क्रांति की विशेषताएँ क्या हैं? पहली है सबको साथ लेकर चलना। अगर इस देश में कोई भी सोचता है कि १५ करोड़ क्वियर समाज को पीछे छोड़कर, उसकी उपेक्षा करके देश आगे बढ़ सकता है, तो वह भ्रम में जी रहा है। दूसरा है शासन, कर्तव्यपरायणता और विकास पर ध्यान केंद्रित करना। हमारा समाज वैसे ही जाती, धर्म, वर्ग, प्रान्त, इत्यादि से खंडित है। ये सब भेदभाव का कारण बनते हैं। इन सब को दूर रखकर मूलभूत सुविधाओं के प्रावधान और मूलभूत अधिकारों के संरक्षण के सिद्धांतवाद में ही एल.जी.बी.टी. कम्युनिटी की भलाई है।
आज हम महत्त्वपूर्ण कगार पर खड़े हैं। उच्चतम न्यायलय कह चुका है, कि भारतीय दंड संहित की धरा ३७७ में बदलाव लाना संसद का दायित्व है। ऐसे में एल.जी.बी.टी. कार्यकर्ताओं पर सामाजिक जागरूकता और खासकर सांसदों के साथ संवाद स्थापन करना निहायती ज़रूरी हो गया है। आज पूर्ण बहुमत मिली सत्ताधारी भाजपा के साथ यह संवाद उस हद तक बनता हुआ दिखाई नहीं देता जिससे हक़ों की लड़ाई में प्रगति हो। लैंगिकता अल्पसंख्यकों के लिए सहानुभूति रखनेवाला कांग्रेस पक्ष सीटों और वोट-शेयर में अभूतपूर्व न्यूनतम स्तर पर है। कम्युनिस्ट पक्ष भी अपना प्रभाव खोता हुआ देख रहे हैं। ऐसे में भारतीय राजनीती के मंच पर एक नए खिलाड़ी का इतने जोश और धमाके के साथ आना और चुनावों में यशस्वी होना, खासकर ऐसे खिलाड़ी का जिसने सिद्धांत पर समलैंगिक और ट्रांसजेंडर अधिकारों कि वैधता को स्वीकार किया है, कोई मामूली बात नहीं है। डर सिर्फ इतना है कि २०१४ के आम चुनावों की तरह रूढ़िवादियों को खुश रखने के लिए एल.जी.बी.टी. अधिकारों कि एक बार फिर २०१९ के चुनावों में उपेक्षा न हो। इसके लिए बहुत ज़रूरी है कि अगले चार वर्षों में लैंगिकता अल्पसंख्यक समाज के कार्यकर्तागण, खासकर वे सब जो दिल्ली में स्थित है, आम आदमी पार्टी के साथ एक संरचित संवाद स्थापन करें, और उस दौरान होनेवाली सफलताओं, कठिनाइयों और सीखों को समस्त भारतीय क्वियर कार्यकर्ताओं के साथ बाँटें। चुनावों के समय घोषणापत्र जारी होने से पहले पक्षों से मिलना एक महज़ औपचारिकता न बन जाए। यह अवसर है आज से २०१९ के चुनावों तक भविष्य के लिए समलैंगिक समाज और लोक सभा और विधान सभाओं के बीच के रिश्ते में एक नया अध्याय लिखने का।
सच्चाई और पारदर्शिता की मैंने शुरुआत में बात की। एक समलैंगिक अपने परिवार, मित्रो या सहकर्मियों के सामने प्रकटीकरण इसलिए करता है, कि वह पाखंडी ज़िन्दगी नहीं जीना चाहता। छल-कपट करके एक ढोंगी शादी में एक स्त्री या पुरुष को फसाकर समाज के सामने ‘नार्मल’ होने का दिखावा नहीं करना चाहता। यह नयी सियासी सोच जिन मूलभूत आधारों पर मपनी है, उन्हीं पर समलैंगिक अधिकार संघर्ष भी निर्भर है। इसलिए इस नयी सोच को अपनाने वाले विषमलैंगिक (स्ट्रेट) लोग भी क्वियर लोगों का समर्थन करने की ज़्यादा संभावना रखते हैं, और ऐसा ही देखा जा रहा है। रूढ़िवादी धारणाओं से और वोट-बैंक राजनीती की बेड़ियों को तोड़कर ही समलैंगिक आज़ादी का इन्द्रधनुष आसमान में प्रकट हो सकता है। और उसे प्रकट करने मैं कभी-कभी ऐसे तूफ़ान के आने की ज़रूरत हो, जो आसमान में फैले धूम-कोहरे को साफ़ करे और अदृश्यता का नाश करे!
– सचिन जैन संपादक, गेलेक्सी हिंदी editor.hindi@gaylaxymag.com