संपादकीय; थीम: ‘लगाव’। तस्वीर: सचिन जैन।

Hindi

संपादकीय ८ (३१ अगस्त, २०१४)

By Sachin Jain

August 31, 2014

इस अंक की थीम है ‘लगाव’।

प्रशांत जोशी ‘न कुछ बातें हो, न कुछ इशारे’ इस कविता में पूछते हैं: “तनहाई अकेली आई थी, या अकेला था, इसलिए तनहाई आई थी?” उनके अनुसार लगाव, रूह की गहराई में महसूस होता है। जहाँ शायद शब्दों और इशारों की ज़रुरत ही न हो।

‘एक अंतहीन विडम्बना’ में धनञ्जय चौहान टीकास्त्र छोड़ते हैं उस विसंगत समाजव्यवस्था पर, जो पाखण्डी बर्ताव को पुरस्कृत और ईमानदारी को बहिष्कृत करती है। इस दोबलेपन का अपने लैंगिकता के झुकाव के बारे में प्रामाणिक होनेवाले एल.जी.बी.टी. लोगों पर क्या असर होता है, इसका वह विश्लेषण करते हैं।

लेखक सागर गुप्ता ‘कशिश’ फिल्म महोत्सव के ज़रिये दुनिया भर की बेहतरीन क्वीयर फिल्मों को मुंबई के एल.जी.बी टी समुदाय तक हर साल पहुँचाते है। अपने फिल्मों के प्रति जूनून और समलैंगिक समुदाय के प्रति लगाव को सकारात्मक सामाजिक बदलाव लाने में कार्यरत करने की मिसाल हैं सागर। ‘एक मुलाक़ात: सागर गुप्ता’ में जानिये कि बतौर प्रोग्रामिंग डायरेक्टर वे दर्शकों को हर साल कैसे मंत्रमुग्ध करते हैं।

लगाव के विभिन्न रंग होते हैं: सजना सँवरना, अपने किसी ख़ास व्यक्ति की खोज या फिर इंतज़ार। बांग्लादेश के नामी छायाचित्रकार नफ़ीस अहमद ग़ाज़ी ऐसी भावनाओं के क्षणों को क़ैद करते हैं, अपने तस्वीरी मज़मून ‘कुदरती शनाख्त’ के भाग ३ में।

हादी हुसैन को लगाव था अपनी दादी से, जो देश के बँटवारे के समय जम्मू से लाहौर आयी थीं। और दादी को अपने शहर जम्मू से लगाव था, जहाँ वे फिर कभी जा नहीं पायी। मुल्कों और नियमों की सीमाओं को लाँघती प्रेम कथा को वे इसी अप्रतिदत्त लगाव का पुनरारंभ करार करते हैं, श्रृंखलाबद्ध ‘जीरो लाइन – एक पाक-भारत प्रेम कथा’ के तीसरे भाग में।

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आपका विनम्र, सचिन जैन संपादक, गेलेक्सी हिंदी