प्रस्तुत है लेखक धर्मेन्द्र राजमङ्गल की मार्मिक कथा ‘वह थोडा अलग था’ की पहली कडी:
उस समय की बात है जब मैं नौवीं क्लास में पढता था। मेरे दोस्तों की संख्या बहुत कम थी। क्लास में कुल मिलाकर छत्तीस लडके–लडकियां पढते थे, लेकिन मेरे लिये दो लोग ही मेरी पूरी क्लास थे। एक लडका मोहन, जो मेरा जिगरी दोस्त था और एक लडकी मानसी जो मेरी प्रेमिका थी।
मोहन मेरे साथ नौंवी से पढने आना शुरू हुआ था, जबकि मानसी पांचवी से मेरे साथ पढती आ रही थी। मोहन मेरे गांव का था, जो कुछ समय पहले ही शहर से अपने घरवालों के साथ गांव लौट कर आया था। उसका जन्म शहर में ही हुआ था लेकिन घरवाले फिर से गांव आये तो वह गांव आ गया। जबकि मानसी पडोस के गांव की थी।
मोहन दिखने में खूबसूरत था लेकिन उसने क्लास की किसी भी लडकी को अपनी पसंद बनाने की कोशिश नही की थी। एक दिन एक लड़की ने मोहन को प्रेमपत्र दिया भी था लेकिन मोहन ने उस प्रेमपत्र को उसी के सामने फाड़कर फेंक दिया था।
इस सब के बावजूद भी क्लास की कई लडकियां इस गोरे तंदरूस्त लडके पर फिदा थीं। मोहन जब से मुझसे मिला था तब से ही मुझे बहुत मानता था। मैं अगर किसी काम के लिये उससे कह देता तो उसे ऐसे करता था मानो वो काम मेरा न होकर उसका हो।
लेकिन कभी कभी उसकी कुछ हरकतें मेरे अन्दर झुंझलाहट पैदा कर देतीं थी। वह कभी कभी किसी बात पर मेरे गाल पकड कर जोर से खींच देता था। मुझे उसकी इस हरकत पर गुस्सा आता और मैं कुछ कहता तो वह खिलखिलाकर हॅस पडता था। पता नही उसकी मुस्कान में जादू था या कुछ और जो मेरे गुस्से को शांत–सा कर देता था।
लेकिन सबकुछ इतने तक ही सीमित रहता तो ठीक था। उसकी हरकतें दिनोंदिन बढतीं जा रहीं थीं। हरकतें भी ऐसीं कि मैं उन्हें सहने का साहस नही रखता था। वो अब गाल खींचने के साथ साथ मुझे चूमने भी लगा था। इस सब के लिये वो ऐसा मौका ढूँढता था जब कोई खुशी की बात होती। क्लास में उसकी ऐसी हरकत मुझे असहज कर देती थी। जबकि क्लास में बैठे सारे बच्चे हॅसते रहते थे।
एक बार लंच के समय मैं, मोहन और मानसी कॉलेज के मैदान में लगी बेंचों पर बैठे हुये थे। अचानक से किसी बात पर मोहन ने उछलते हुये मुझे कसकर अपनी बाहों में भरा और मेरा गाल अपने गीले होठों से चूम लिया। मैंने झटके से खुद को उससे अलग किया और गुस्सा होते हुये बोला, ‘‘मोहन तू ऐसी हरकतें मत किया कर, मुझे यह सब नही पसंद।“
मोहन खिलखिलाकर हॅस पडा। जैसे उसने मेरे साथ मजाक किया हो। मानसी भी मन ही मन मुस्कुरा रही थी। जबकि मेरी आखों में आग निकल रही थी। मोहन की हॅसी न रुकी तो मैं फिर से उसी लहजे मे बोल पडा, “तू इस वक्त यहाँ से चला जा नही तो मैं तुझे पीटने लगूँगा।” मोहन और जोर से हॅसने लगा जबकि मानसी अपनी हॅसी रोक कर मुझे टोकती हुयी बोली, ‘‘क्या श्याम तुम भी छोटी–सी बात पर इतना गुस्सा करते हो, छोडो न ये सब।“
मानसी को जो बात छोटी–सी बात लग रही थी वह मेरे लिये सबसे ज्यादा बुरी बात थी। मेरी आखों में गुस्सा देख मोहन हॅसता हुआ बोला, ‘‘ठीक है भाई जा रहा हूँ, तू गुस्सा न हो।” यह कहता हुआ मोहन फिर से ठहाका लगाते हुये वहाँ से चला गया। मोहन के जाते ही मानसी ने मुझे समझाते हुये कहा, ‘‘क्या श्याम ये भी कोई बात हुयी, इतनी छोटी–सी बात पर भी कोई अपने दोस्त से इस तरह का व्यवहार करता है?”
मैंने अपना गुस्सा कम करते हुये मानसी से कहा, ‘‘यार ये इसकी रोज की बात है, एक दिन हो तो चलो ठीक भी है।‘‘ मानसी फिर मुझे समझाती हुयी बोली, ‘‘हाँ तो कौन–सा बुरा काम कर दिया उसने, एक दोस्त दूसरे को इस तरह चूम सकता है। हम लडकियां भी तो एक–दूसरे के साथ ऐसा करतीं हैं।“
मैंने चिढते हुये मानसी से कहा, ‘‘तो तुम्हीं करा लिया करो उससे अपने साथ ये सब, मुझे ये सब अच्छा नही लगता।” मानसी मुस्कुराकर शरमाती–सी बोली, ‘‘अब चुप करो भी, मैंने कभी तुम्हें ये सब नही करने दिया तो उसे क्यों करने दूँ?‘‘ मैं उछलते हुये बोला, ‘‘तो फिर मुझे क्यों कहती हो ये सब सहने के लिये?“
मानसी बात को घुमाते हुये बोली, ‘‘यार वो तुम्हारा दोस्त है, मेरा नही। और कितना प्यार करता है वो तुमसे, तुम लडकी तो हो नही जो इतना चिढ जाते हो। हरदम वो तुम्हारे साथ रहता है, जैसे वो तुम्हारा सगा भाई हो। और तुम हो कि…, अच्छा अब ये सब छोडो और आगे से उसके साथ ऐसा व्यवहार मत करना। अब इसको भूल कर जरा हमारी बातें हो जांय।“
मानसी की बात सुन मैंने हाँ में सिर हिला दिया लेकिन उसकी बात से मोहन के प्रति मुझे दया पैदा हो गयी थी। सच ही तो कहती थी मानसी मोहन के बारे में। वो हकीकत में मुझसे बहुत लगाव रखता था। मेरा गुस्सा अब प्यार और पश्चाताप में बदलता जा रहा था। अब लग रहा था जैसे मैंने मोहन के साथ बहुत ज्यादा गलत व्यवहार किया था। जाकर मोहन को गले से लगाने का मन होता था।
लेकिन मैं करता भी क्या? मैं एक लडका था और किसी लडके के द्वारा इस तरह चूमे जाने पर अजीब–सा लगना स्वभाविक था। उसका चूमना किसी ऐसे चूमने की तरह था जैसे मैं उसकी प्रेमिका होऊँ। मुझे उसके चूमने से घिन सी आती थी जबकि उसे ऐसा करने में बडा मजा आता था। मैं अभी इतना सोच ही रहा था कि लंच खत्म होने की घंटी बज उठी।
मानसी जाने क्या कह मुझसे आगे क्लास में चली गयी। फिर मैं भी उसके पीछे–पीछे क्लास में चला गया। क्लास में पहुँचा तो देखा मोहन पहले से वहाँ बैठा मेरे आने का इंतजार कर रहा था। उसके चेहरे पर अब भी हॅसी साफ–साफ झलक रही थी। मैने उसके पास बैठते हुये कहा, ‘‘यार मुझे माफ करना मैं तुझसे कुछ ज्यादा ही कह गया।‘‘ मेरे इतना कहने पर वो हैरत करता हुआ बोला, ‘‘अरे तुम अभी तक उसी बात पर अटके पडे हो, मुझे तो याद ही नही रहा कि तुमने मुझसे क्या कहा था।”
कितना सरल था मोहन इस बात का पता मुझे अभी लग गया था। अगर उसकी जगह मैं होता तो दो–चार दिन बातें ही न करता। मैं उसकी इस सरलता पर मुस्कुरा पडा था। मैंने उसके कन्धे पर हाथ रख हल्का सा थपथपाया। मैं उसकी सरलता पर न्यौछावर हो गया था। लेकिन मोहन को फिर से शरारत सूझी। उसने फिर से मेरा मुँह चूमने की कोशिश की लेकिन मैं पीछे हट गया।
मैंने आँखे तरेर उसकी तरफ देखा, मोहन खिलखिला कर हँस पडा। मैंने लडकियों–वाली लाइन में बैठी मानसी की तरफ देखा। वो मन्द मन्द मुस्कुरा रही थी। मेरी सवालिया नजर देख इशारे में बोली, ‘‘क्या हुआ? वो तुम्हें चिढा रहा है।”मैंने विवश हो मोहन की तरफ देखा। वो अपने मासूम खूबसूरत चेहरे और खिलखिलाते चमकीले सफेद दॉतों को दिखा रहा था।
मेरी समझ मेंन आया कि इस अलबेले लड़के का क्या करूं? जितना गुस्सा उसके लिये आता था उतना प्यार भी उसके लिये आता था। दिन अपनी गति से गुजर रहे थे। मोहन की आदतें और उसकी अजीब हरकतें मुझे चिढ़ तो दिलातीं थी लेकिन पहले से बहुत कम। एक तो मैं उसकी इन बातों का आदी हो गया था, दूसरा मानसी हर बार मेरे गुस्सा होने पर मुझे यह समझाती रहती थी कि यह सब मोहन के मज़ाक का अंदाज़ है।
मोहन, मानसी और श्याम की दोस्ती कौनसा रुख लेगी? पढ़िए कथा “वो थोड़ा अलग था” की दूसरी किश्त में।
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