निर्देशक अभिषेक चौबे की फ़िल्म “डेढ़ इश्क़िया” (२०१४, भारत, उर्दू) में दो औरतें अपनी मुहब्बत को मक़ाम तक पहुँचाती हैं – पितृसत्ता से कभी सुलह करके, तो कभी उसे हराकर। स्त्रियों के परस्पर प्रेम का उल्लेख भारतीय साहित्य में नया नहीं है। रुथ वनिता की उर्दू रेख्ती शायरी पर लिखी किताब में इसकी सैंकड़ों मिसालें मिलती हैं। ‘डेढ़ इश्क़िया’ रेख्ती कविताओं के विश्व को साकार करता है जिसमें ख़वातीन अपना प्यार का इज़हार रोज़मर्रा की ज़िन्दगी की पृष्टभूमि में व्यक्त करती हैं, छेड़-छाड़, हँसी-ख़ुशी और सहजता के साथ। रेख्ती शायरी प्रायः १८ वी और १९ वी सदी में लिखी गयी। महिलाओंकी हमजिंसपरस्ती (समलैंगिक स्त्री-प्रेम) का विवरण शेख क़लन्दर बक्ष (१७४८-१८१०, ‘जुर्रत’) के ‘चपटीनामा’, सादत यार खान (१७५५-१८३५, ‘रंगीन’) और इंशा अल्लाह खान (१७५६-१८१७, ‘इंशा’) के ‘दोगाना’ नामक पात्र के ज़रिए उनके क़िस्सों में मिलते हैं।
लेकिन बेशक़ इस फ़िल्म का सबसे बड़ा प्रेरणा-स्रोत इस्मत चुग़ताई (१९१५-१९९१) की लघुकथा ‘लिहाफ’ (मतलब चादर) है। इसका प्रकाशन १९४२ में ‘आदाह-ई-लतीफ़’ इस संग्रह में हुआ था। कहानी में एक पति से उपेक्षित औरत और उसकी नौकरानी के बीच के यौन का वर्णन है, जो एक पड़ोस में रहने वाली लड़की के दृष्टिकोण से बताया गया है। इस शादी-शुदा औरत का पति सिर्फ लड़कों में दिलचस्पी रखता है। इस सनसनीखेज़ कहानी ने उस वक़्त खलबली मचाई थी। १९४४ में फहाशी (ओब्सेनिटी) के चार्ज पर इस्मत आपा पर लाहौर में मुक़द्दमा चलाया गया था, लेकिन कोर्ट ने उन्हें बा-इज्ज़त बरी किया था।
हिंदी फिल्मों में दो स्त्रियों की प्रेम कहानी दिखाई है दीपा मेहता की ‘फायर’ (१९९४) में। लेकिन वहाँ भी पुरुष की उपेक्षा का लेस्बियनिस्म से सम्बन्ध दिखाए जाने से कुछ नारीवादी और लेस्बियन संगठन नाखुश थे। उनका कहना था कि औरतें स्वायत्त रूप से अपनी पार्टनर भी चुनतीं हैं। दो स्त्रियों के रिश्ते को हमेशा परुष के अभाव, प्रभाव या स्वभाव का कारक होना ज़रूरी नहीं है। यही स्वायत्तता के होने से ‘डेढ़ इश्क़िया’ एक परिवर्तनात्मक फ़िल्म है। संचारम् (मलयालम, भारत, २००४) में भी प्यार करनेवाली औरतें स्वायत्त हैं, भले ही उनका प्यार मिलन की मंज़िल तक नहीं पहुँचता।
‘डेढ़ इश्क़िया’ की दुनिया है महमूदाबाद के नवाबी महल की, उसके तहज़ीब और तर्ज़-ए-ज़िन्दगी की। परन्तु समय है आजका – आई-फ़ोन ५ और ‘कॉलर ट्यून के लिए स्टार दबाएँ’ का। श्रृंखला की पहली फ़िल्म ‘इश्क़िया’ से हम बब्बन (अरशद वारसी) और ख़ालूजान (नसीरुद्दीन शाह) से वाक़िफ़ हैं। चोरी और फ़हाशी में मसरूफ, वे महमूदाबाद की बेगम पारा के सालाना मुशायरे में अन्य मुख़नवरों के साथ अपनी क़िस्मत आज़माने पहुँच जाते हैं। मदमाता आलम है मय की चाशनी और खूबसूरत पैकदानों का, शानदार झूमरों का, कानों में जूही के झुमके और बाहों में मोतियों को सजानेवालों का।
घुंगरुओं की छन-छन, लखनऊ घराने की कत्थक शैली, और सितार के सुरों से हवेली गूँज उठती है। इसी मनमोहक दुनिया में मुनीरा असलम ज़िया-उल-बनो (हुमा कुरैशी) बेगम पारा (माधुरी दीक्षित-नेने) से हमारा परिचय कराती हैं। मिलाने से पहले वो मौजूद शायरों को चेतावनी देतीं हैं, ‘बेगम से किसी भी तरह के जिस्मानी संपर्क से परहेज़ करें और आँखों को न ताकने की हिदायत दें।’ जब बेगम अपने मरहूम नवाब की याद में इवेंट का आग़ाज़ करती हैं, तो हम खूबसूरत शेरों का लुत्फ़ उठाते हैं। इन शेरों में ज़िकर है आधुनिक ‘ग्राइंडर-धारी’ क्वीयर समाज से मुतालिक विषयों का, जैसे बाहरी दिखावा (“यहाँ लिबास की है क़ीमत, आदमी की नहीं, मुझे गिलास बड़ा दें, शराब कम कर दें”); नर्गिसीयत (“जब मैंने उसे ख़ास निगाहें-नाज़ से देखा, आइना फिर उसने नए अंदाज़ से देखा”); धोखा (“वही ताज है वही तख़्त है वही ज़हर है वही जाम है, ये वही खुद की ज़मीं है, ये वही बुतों का निज़ाम है, बड़े शौक़ से मेरा घर जला, कोई आँच तुझ पर न आएगी, ये ज़बान किसी ने खरीद ली, ये क़लम किसी का ग़ुलाम है); अव्यक्त प्रेम (“न बोलूँ मैं तो कलेजा फूँके, जो बोल दूँ तो ज़बान जले है, सुलग ना जावे अगर सुने वह, जो बात मेरी ज़बान तले है) और ना-मुराद इश्क़ (“लगे तो फिर यूँ के रोग लागे ना साँस आवे, ना साँस जावे; ये इश्क़ है ना-मुराद ऐसा, के जान लेवे तभी टले है”)।
शुरुआत से नए नवाब की खोज मुख्य केंद्रबिंदु है। इसलिए मुनीरा को हम महज़ सखी-सेविका के रूप में देखते हैं। लोगों में काफी बार ये ग़लतफ़हमी होती है की सारी लेस्बियन जोड़ियां “बुच-फेम” (एक औरत मर्दानी, एक औरतानी) इस द्वय का अनुकरण करतीं हैं लेकिन यहाँ दोनों का अंदाज़ औरताना है। एक दिन बेगम पारो अपने पुराने अल्बम से अपने मरहूम शौहर की ब्लैक एंड वाइट तस्वीरों पर गुस्से से पेन के साथ वार करती हैं। तब मुनीरा उन्हें शान्त करती हैं, अपने नाज़ुक हाथों से उन्हें दवाई देती हैं और सीने से लगाती हैं। इन दो औरतों की घरेलु ज़िन्दगी इस शायराना ऐबो-अंदाज़ में गुज़रती हैं। एक तरह से वे एक दुसरे में अपने आप को ढूँढतीं और पातीं हैं। ख़ालुजान (जिनका असली नाम इफ्तेखार है) बेगम को चाहते हैं, और बब्बन मुनीरा को। लेकिन ये दो पुरुष केवल दृश्यरतिक हैं। केवडिया से इनकी दुनिया में झाँका-झाँकी करने वाले। इस वास्तव को अधोरेखित करता एक सीन है, जिसमें बेगम “जगावे सारी रैना, निगोड़े दो नैना” इस गीत पर कत्थक कर रही होती हैं। मुनीरा दरवाज़ा खटखटातीं हैं। बेगम उन्हें देखती हैं, उनकी आँखें ख़ुशी से ओत-प्रोत हो जाती हैं और वे मुनीरा को कमरे के अंदर खींच लेतीं हैं। वे हाथों में हाथ डाले असीम आनंद के साथ नृत्य करती हैं। दोनों दरवाज़ों की धुंधली कांचों से इफ्तेखार और बब्बन, इश्क़ में चूर लेकिन पूरी तरह बेबस, उन्हें निगाहों से ताड़ते हैं। इस दुनिया का उनके पास एंट्री-पास नहीं है। इफ्तेखार बब्बन को मुहब्बत की सात मंज़िलें बताते हैं: दिलकशी, उन्स, मुहब्बत, अक़ीदत, इबादत, जुनून… और मौत। लेकिन सच्ची मुहब्बत क्या है, और वह वासना से कितनी प्रभावित है? इस प्रश्न को कुशलता के साथ वे उजागर करते हैं, जब वे हर मंज़िल के बीच में ‘सैक्स’ कहकर मानव की काम-आधीनता पर टिप्पणी करते हैं।
जस्बातों के रुझान की अपरिहार्यता को एक ‘डी एन अ’ के बारे में किए गए डाईलोग के ज़रिए पेश किया है। “आज तक जितने भी लोग पैदा हुए हैं इस दुनिया में, सबके अलग अलग ‘डी एन ए’ थे, हैं, और होंगे। ये पैदाइशी चीज़ है ये बदली नहीं जा सकती।” निर्देशक ने मुनीरा और बब्बन को प्रतिस्पर्धियों के रूप में पेश किया है। एक सीन में वे एक गोडाऊन में हाथ में औज़ार लेके लड़ते हैं, और मुनीरा बब्बन का औज़ार उखाड़कर गिरवा देतीं हैं। बेगम और मुनीरा बिस्तरी में अपनी ही धुन में चाँद की रौशनी तले इफ्तेखार के शब्दों को दोहराकर हंसती हैं: “हम भी अपने आप को एक अरसे से ढूंढ रहे हैं”। इस फ़िल्म में एक और दिलचस्प एंगल है लैंगिकता और वर्ग का। फ़िल्म के अनुसार कोई आम शहरी झूट-मूट के कपडे पहनकर नवाब नहीं बन सकता। नवाबियत ‘डी एन ए’ में होती है। उसी तरह मुनीरा बेगम के क़रीब होते हुए भी कभी अपने सामाजिक स्थान या वर्ग की रेखाएं पार नहीं करती। वे उन्हें हमेशा बेगम कहकर ही पुकारतीं हैं। सिर्फ फ़िल्म के अंत में जब वे सारी सीमाओं को पार कर दूर जाकर घर बसाती हैं, तो वे वर्ग की सीमा भी पार करती हैं।
जब बेगम पर शौहर चुनने का समय आता है तो समाज धर्म और निजी चाह की चक्की में उनकी पिसाई होती है। वे मुनीरा से कहती हैं: “हमें डर लग रहा है मुनिया। हम जो कर रहीं हैं, वह सही है ना?” समाज से समझौते के तौर पे शादी करने वालों के लिए, खासकर एल जी बी टी आई समुदाय के अंदर, ऐसा सवाल लाज़िम है। मुनीरा उनको दवाई देती हैं, अत्यंत करुणा के साथ उनके बाल सँवारती हैं और कहती हैं: “आप घबराइये मत, हम हैं ना आपके साथ, सब अल्लाह पर छोड़ दीजिये, जो होगा, ठीक ही होगा। कंगी करने के बाद आईने के सामने वे उनको सहलाती हैं, फिर नज़ाकत के साथ उनका घूंघट सर पे चढ़ाती हैं, एक दुसरे को वे आईने में निहारती हैं और फिर मुनीरा उनके गाल पर काला टीका लगाती हैं। लेकिन अगर बेगम को मुनीरा से मुहब्बत है, तो वह किसी शायर से शादी क्यों करती हैं? बेगम कहती हैं: “अल्लाह के घर में न कोई नवाब है, न कोई बेगम। सब एक हैं। निकाह की न हमारी उम्र है, न तबीयत। मगर वादा-ख़िलाफ़ी, वो भी अल्लाह की शान में, अज़ीम गुनाह होगा।” इस डायलॉग में हमें हिंदुस्तान में लैंगिकत अल्पसंख्यकों के प्रति उनके परिवारों के रवैये की सही झाँकी मिलती है। इतिहासकार सलीम किदवई हिंदुस्तान के हमजिंस-परस्त प्यार के इतिहास की अपनी किताब में लिखते ही हैं: “समलैंगिक प्रेम को बयान करने वाली किताबों में यह जानना इतना ज़रूरी नहीं है कि दो लोगों के करीबी रिश्ते में निश्चित रूप से क्या होता है। ये बात ज़यादा मायने रखती हैं की समाज इन ज़िन्दगी-भर के रिश्तों पर क्या राय बनाता हैं और उसे साहित्य में कैसे दर्शाता हैं।”
मगर क्या वर्जित इश्क़ करने वालों के पास मर मिटने के अलावा कोई ऑप्शन नहीं है? एक क़व्वाली में हम सुनते हैं “दिल दिया है जान भी देंगे, और इरादा क्या होगा? लौ को छूके लौट आया तो वो परवाना क्या होगा?” ‘अरेंज मैरेज’ में पति-पत्नी सारी भावनात्मक ज़रूरतें इसी रिश्ते से थोड़े ही पूरी करते हैं? खानदान कि इज्ज़त, और खासकर महमूदाबाद के नवाब की, बहुत महत्त्व रखती है। मुनीरा और बेगम ऐसा कुछ नहीं करती जिससे इस पर कोई आंच आये. बेगम और मुनीरा न घरेलु औरतें हैं, ना तवायफ. इसलिए उनपर उन दो सामाजिक गुटों के नियम लागु नहीं होते।
डेढ़ इश्क़िया की खासियत ये भी है कि साधारणतः फिल्में विषमलैंगिक प्रेम को दर्शाती हैं, कभी-कभार दो पुरुषों के प्रेम को भी, लेकिन दो स्त्रियों के प्रेम को कभी भी यौनिक रूप नहीं दिया जाता, या खुले तरीक़े से बयान नहीं किया जाता। अगर खुले तरीक़े से बयान होता है, तो जैसे वीटो रूसो की किताब और फ़िल्म ‘द सेल्युलॉइड क्लोसेट’ में बताया गया है, उन्हें या तो विलन की तरह या पुरुष के अभाव में तड़पती हुई कठपुतलियों कि तरह दिखाया गया है। ‘डेढ़ इश्क़िया’ में भी पुरुष पात्र लेस्बोफोबिआ (समलैंगिक स्त्रियों के प्रति नफरत का एहसास) व्यक्त करतें हैं कभी व्यंग्य से, कभी गाली-गलौच से तो कभी हिंसा से।
इसी गाली-गलौच का एक नमूना बब्बन को शक़ होने लगता है की वो जो दिखाती हैं वो हैं नहीं। जब एक नकली किडनेपिंग के बाद वो खालूजान को एक गोडाउन में बाँध के रखता है, उसे कहता है: “मुनिया बहुत बड़ी रांड है। सबके चेहरे पे नक़ाब है। ये जो तुम्हारी जान-ए-हयात (बेगम) है न, उसके चेहरे पे भी है। ये जलसा, मुक़ाबला, शौहर की तलाश, निकाह, सब ड्रामा है।” रैनसम का पैसा लेकर जब मुनीरा गोडाउन पहुँचती है, तो बब्बन की खुली बाहों को छोड़कर वो बेग़म से गले मिलती है। इसमें बब्बन का एक बहुत अच्छा रिएक्शन शॉट है – उनका आलिंगन देखकर भी बब्बन अपने मन में इनके प्रेम का असली रूप नकारने की कोशिश करता है। इससे ज़ाहिर होता है कि दिखाई देने पर भी हमजिंसपरस्ती को कैसे दखलन्दाज़ किया जाता है।
और फिर उदाहरण हिंसा का, जब समलैंगिकता/उभयलैंगिकता से विषमलैंगिकता की टक्कर होती है। पारा खाना खा रही होती हैं और मुनीरा उनको पंखे से हवा देती हैं। बब्बन मुनीरा को खींचके दूर ले जाता है और कहता है: “मुझे इश्क़ हो गया है तुमसे। सच्चा इश्क़, कसम से।” मुनीरा तिरस्कार के स्वर में कहती है: “यही तो, यही तो प्रॉब्लम है तुम आज कल के लौंडों में। इश्क़ और सैक्स में फ़र्क़ नहीं कर पाते न? किसी के साथ एक रात सो लो, अगली सुबह पैंट उतारो तो धड़कता दिल मिलता है?” लेकिन जब मुनीरा बब्बन को नकारतीं हैं और उससे पैसे की बात करती है तो उसे बहुत गुस्सा आता है। उसकी ग़ैरत पे घाव होता है। बब्बन कहता है ‘रांड समझ रखा है मुझको? मैं तुम्हे मार डालूँगा। लेकिन उससे पहले तुम्हारी असलियत सबको दिखानी है, की ये खूबसूरत चेहरे के पीछे कैसी डायनें छिपी हैं।”
और आखिर राज़ का खुलासा: बेगम बब्बन के सिरपर वार करती है। खालू और बब्बन को बाँध कर मुनीरा और पारा आलिंगन करती हैं, गुदगुदी करती हैं और हंसती हैं। खालूजान बब्बन से कहते हैं ‘अपने लिए लिहाफ मांग ले’। हम इश्क़ के सातवे मक़ाम पर हैं – मौत। दोनों पुरुष चेन से बँधे हैं, और परछाई में हम दो स्त्रियों का खेलना देखते हैं, फिर दो साए विलीन हो जाते हैं और हमें गहरी सांसें सुनाई देती हैं। इस तरह ‘लिहाफ’ के लिखने के सत्तर साल बाद, और ३७७ द्वारा पुनः अपराधीकरण के कुछ दिनों बाद, निर्देशक और लेखक ‘लिहाफ’ को श्रद्धांजलि अर्पण करते हैं।
इस ज़ाहिर खुलासे के बाद अगली सुबह जब बेगम बँधे हुए इफ्तिखार के लिए खाना लाती हैं तो उन्हें अपने रुझान और अपनी परिस्थिति के बारे में समझाती हैं। “हम इश्क़ के दायरे से बहुत दूर निकल चुके हैं। हम किसी के हमदर्द बन सकते हैं, दोस्त बन सकते हैं. मददगार बन सकते हैं, मगर माशूक़ नहीं बन सकते हैं।” इस पर प्यार में धोखा खाये इफ्तिखार कहते हैं। “लेकिन ढोंगी बन सकते हैं, धोकेबाज़ बन सकते हैं।” बेगम: “काश हम आपको हमारी मजबूरी समझा पाते।” इफ्तिखार: “अगर आप समझाए तो हम समझने की कोशिश कर सकते हैं।” बेगम समझाती हैं: “हमारे शौहर को औरतों में कोई दिलचस्पी नहीं थी। उनके दिन रात जुआ शराब और लौंडेबाज़ी में गुज़रते थे। हमने अलग होने की बहुत कोशिशें की, मगर हमारा साथ किसी ने नहीं दिया। न हमारे परिवार ने, न किसी और ने।” इस वक़्त मन में कई सवाल उठते हैं। क्या समलैंगिकता एक व्यसन है, जो उसे दारु और जुए के साथ जोड़ा जाता है? क्या लौंडेबाज़ी के अलावा वयस्क पुरुषों में सम्मति के साथ सम्बन्ध नहीं होते? समलैंगिक से हुई ज़बरन शादी से होनेवाली तबाही का मात्र यहाँ परिपूर्ण वर्णन मिलता है। उसके बाद मुनीरा के साथ की समलैंगिकता को अहसान और मददगारी का जामा दिया गया है। क्या इसके अलावा स्वयं-स्वीकृति से औरतें एक दुसरे से प्रेम नहीं करती?
बेगम: “हम बीमार रहने लगे, कोई भी डॉक्टर या दवाई काम नहीं करी. हमारी सांसें मुनिया की कर्ज़दार हैं।” इस वक़्त फ़िल्म में दिखाया गया है कि दोनों सखियाँ हाथ पकड़ती हैं। “वोह हमारी दोस्त भी है, बेहेन भी है, जान भी है। एक दिन नवाब साहब गुज़र गए और हम आज़ाद हो गए। ज़िन्दगी ने हमपे इतने हमले किये, कि हमने भी एक बार पलटकर उसपे वार करने को जी चाहा।” सवाल: तो क्या समलैंगिक अनुभव ज़िन्दगी के प्रति प्रतिशोध है? या फिर समाज को ठुकराकर अपना रास्ता बनाना बदला है? फिर बेगम बहुत दूर जाने का सपना बताती हैं, तबतक बब्ब्बन ने अपने आप को छुड़वाया होता है, और इफ्तिखार व्यंग्य से पूछते हैं बेगम से: “अकेली जाएँगी या साथ में अपनी लौंडी को भी ले जाएँगी?” इससे ये स्थापित होता है कि भिन्नलैंगिक दायरे में समलैंगिक जस्बात समझना वाकई मुश्किल है। भिन्नलैंगिक दायरे में इसे व्यंग्य और तिरस्कार के अलावा क्या देखना सम्भव है? शायद यही वजाह है की देश के उच्चतम न्यायालय ने चार वाक्यों के जवाब में भारतीय दंड संहिता की धारा ३७७ के सिलसिले में ३ रिव्यु याचिकाओं को पिछले हफ्ते कूड़े-दान में फ़ेंक दिया। आखरी कुछ मिनट – किडनेपिंग, ट्रैन का सफ़र, शूटआउट, पैसों का आदान-प्रदान ‘बाप’ नाम के स्टेशन पे होता है एक तरह से ये बिलकुल सही है क्योंकि सबकुछ पितृसत्ता और व्यवस्था के अनुसार ही हो रहा है!
जब मर्दुए एक दुसरे से लड़ते हैं, बेगम और मुनीरा गाडी की तरफ दौड़तीं हैं। उनके केश हवा में लहरातें हैं। बब्बन और खालू उन्हें देखते हैं, एक दुसरे को देखते हैं। और बिना कुछ कहे अपनी हार मान लेते हैं। लडकियां उन्हें देखकर गाडी पर इशारा कर बुलाती हैं, लेकिन यह वह घडी है जब पुरुष पितृसत्ता की बेड़ियों से उन्हें बब्बन और खालू रिहा करते हैं, और हाथ के इशारे से अलविदा करते हैं। फिर एक खूबसूरत नज़ारा है, दोनों लड़कियों की गाडी का, और एक व्यापक नैसर्गिक परिदृश्य का। सूर्यास्त का समय है. गाडी तेज़ दौड़ रही है, पीछे धुल के बादल छोड़ रही है। इसे अधोरेखित करने के लिए वौइस् ओवर: आज़ादी ज़िन्दगी का सबसे हसीं और नायाब तौफा है, जिसे पाने के लिए कोई भी क़ीमत कम ही होती है। आज़ाद हम हुए थे, क़ीमत आप ने अदा की थी।” खलु और बब्बन जैल में होते हैं। उस प्यार के लिए, जो वो समझ नहीं सकते, जिसके होते हुए वे अपनी लेस्बोफोबिया कंट्रोल नहीं कर पाते; उसी प्यार कि ताक़त इतनी है कि वे उसके लिए कुर्बानी देने को तैयार होते हैं।
लडकियां बेशक़ीमती हार बेचकर घर खरीद लेती हैं और कत्थक की नृत्याशाला का निर्माण करतीं हैं – उनकी अपनी छोटी-सी दुनिया, जहाँ वे किसी और के नियमों की मोहताज नहीं हैं। बेगम का हमारे लिए आखरी सन्देश: “आरज़ूएं अधूरी थी, पर ज़रूरतें पूरी हो गयी थी। हमारी ये दुनिया अब थमी-थमी थी। कभी आइयेगा, बुत बनके बैठेंगे”। आखिर लड़कियां, पारा और मुनीरा नाचती हैं बेगम अख्तर के ‘हमरी अटरिया पे’ इस गाने पर, जो पूरी फ़िल्म में मौजूद है। उनकी नृत्यशाला में बहुत सारी लडकियां कत्थक सीखती हैं। मुनीरा और पारो को सामाजिक इज्जत मिलती है। लेकिन न्याय? वह अलग बहस का विषय है!