'ब्रेड-कटलेट-पोहा-ऑमलेट' - एक कहानी | तस्वीर: ग्लेन हेडन | सौजन्य: क्यूग्राफी |

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“ब्रेड-कटलेट-पोहा-आमलेट” (कहानी)

By कपिल कुमार (Kapil Kumar)

September 03, 2017

मई – जुलाई २०१६, ग्राइंडर पर:

‘जगह है’:-“बॉडी नहीं प्लीज़”

‘आर्य५२७’:-“ठीक है”

‘जगह है’:-“नो किसिंग…नो टचिंग”

‘आर्य५२७’:-“ठीक है”

‘जगह है’:-“सिर्फ ब्लो जॉब ”

‘आर्य५२७’:-“ठीक है”

‘जगह है’:- “म्म्म…”

‘जगह है’:-“जब तुम ब्लो करोगे अगर मैं स्मोक करूँ क्या तुम्हें ऐतराज़ होगा…?”

‘आर्य५२७’:-“बिलकुल नहीं…क्यों होगा?”

ये तीसरी दफा है जब किसी ने ये पूछा है और ये तीसरी बार है जब मैंने हामी भरी है, इन दो दिनों में।

ऐसी बहुत कम चीजें हैं जिन में मैं अच्छा हूँ; और ब्लो जॉब उनमें से एक है। ये हक़ीक़त है,जैसे मुझे पता है कि मैं बाँय हत्था हूँ, और कि मैं बहुत देर तक मैं अपनी साँस रोक रहा हूँ .. वैसे ही मुझे पता है .. मुझे पता है। मुझे पता है कब रुकना है; कब करना है; कब करने का नाटक करना है पर रुके रहना; कब मुंह के कोने की दीवारों पर; कब दांत; कब जीभ और कब चूमते जाना है।

गरगराती हुई वो “आहाआआआ…” और “बाथरूम कहाँ है?” के बीच मे शायद कभी किसी ने पूछा था मेरे अच्छे होने की वज़ह; बहुत सोचने बाद भी मै बस ये ही बोल पाया “मेरे को अक्कल ढाढ नही है।”

“क्या ?”

“विस्डम टीथ।”

जनवरी-जून २०१६

उसे मैं अरसे से देख रहा था; निहारना कहना ज्यादा सही होगा। मुझे हर हफ्ते ट्रैन से सफ़र करना ही पड़ता था; शुक्रवार शाम को और फिर सोमवार सुबह वापसी। एक ही चेयर कार ट्रैन; बड़ी बड़ी खिड़कियाँ; काँच के दरवाज़े। वो तीसरे या चौथे स्टेशन तक आ ही जाता था; ‘मील्स ऑन वील्स’ की टी-शर्ट पहने हुए। बस चार शब्द थे हमारे दरमियाँ: “ब्रेड-कटलेट-पोहा-आमलेट”। वो उम्र मे मुझसे बड़ा था; कितना ये नही पता। वो छोटू नहीं था पर कुछ अलग भी नहीं था। उम्र में चाहे उनसे आगे निकल आया हो पर तय तो उसने कुछ भी नही किया।

उसकी आँखों की चमक छोटूओ जैसी थी। वो हसता भी छोटूओ जैसे था। उम्र, महंगाई, समानता की लड़ाई, कश्मीर, “अफ्रीका मे बच्चे भूखे सो रहे है।”, लोकपाल, नोटबंदी .. जैसे किसी ने उसे छुआ ही ना हो।

उसके बाल हल्के-से पीछे खिसक लिए थे; जैकी श्राफ़ वाली मूछें थीं; ग़रीबों वाला साँवलापन था; बिलकुल पतला था पर लगता नहीं था जब तक कि आप उसकी बाह को मुट्ठी मे कस नहीं लेते।

शुरू-शुरू मे नज़रें फिसल जातीं थीं फिर ठहरने लगी; फिर वहीँ जम जाती थीं उसी पर एक-टक। “ब्रेड-कटलेट-पोहा-आमलेट”।

फिर एक रोज़; फरवरी की ज़मी हुई सुबह; वह हल्का-सा मुस्कराया; फिर उसकी नज़रें भी ठहरने लगीं; ज़मने लगीं।

बहुत से सवाल थे जो पूछने थे..। जगह? पसंद? शौक़? टॉप /बॉटम / वर्सटाइल? वेर-टॉप / वेर-बॉट ? मोर टॉप या मोर बॉट?… नहीं। नए से सवाल…। सवाल जो सार्थक शब्दों के साथ,सार्थक कुछ बनाते हो। मुझे पूछना था “उसके होठों पर कटने का निशान क्यों है?” “वो गुटके का कौनसा ब्रांड चबाता है?” “क्या उसे भी कभी-कभी रोने का मन करता है यूँ ही ?” “वो भी घंटो किसी भूले हुए गाने की धुन गुनगुनाता है?” “ क्या उसको भी आम पसंद है?”

पर मैं यही पूछ पाया, “पोहे कितने के हैं ?”

हम मुस्कुराते रहे, नज़रें ज़माते रहे।

जुलाई २०१६

जुलाई मे मैं दो ही बार घर जा पाया; वो नहीं मिला, कोई नया सा लड़का था; वो नहीं था।

अगस्त २०१६

बारिश थी, ट्रैन लेट थी; बादलों की वज़ह से अँधेरा जल्दी घिर आया था। ट्रैन आई। वो बोगी के दरवाज़े पर खड़ा था। उसने बाल मुंडवा लिए थे; उदास सा था। कुछ बड़ा-बड़ा लग रहा था .. इन कुछ महीनो उसने वो दुरी तय कर ली थी जो वो इतने सालो मे नही कर पाया था। उसकी आंखे चमकी और बुझ गयी। वो आया “ब्रेड-कटलेट-पोहा-आमलेट” पर हर बार की तरह बार-बार नहीं।

उनसे बाल क्यों कटवा लिए ? ..क्या कोई करीबी मर गया था … अब्बा ? ..अम्मा?.. बीबी?? ..या कोई पुरानी मन्नत पूरी हुई है ? या वो कही पकड़ा गया हो ?? .. मैं एक बार सफदरगंज के टॉयलेट मे पकड़ा गया था ..लोग यही चिल्ला रहे थे… बाल काटो साले गांडू के।

सितम्बर-अक्टूबर २०१६

उसके बाल फिर बढ़ आये थे। मैं अब पैसे देते हुए उसके हाथों को हल्के-से छूता था। बाद में मैंने महसूस किया कि वो भी पोहे देते हुए मुझे हल्के से छूता है।

नवम्बर २०१६

ट्रैन लगभग खाली थी। हल्का-सा बुखार था। मैं सोया पड़ा रहा। कोई पोहा छोड गया था। उसने या शायद मेरे बगल वाले ने। पोहे बास मार रहे थे। हर बार की तरह।

दिसम्बर २०१६

मेरा तबादला हो गया था। काफी कुछ बेच दिया। काफी कुछ पीछे छोड दिया। काफी कुछ घसीटे चला आ रहा था।

उसने मुझे इतने सामान के साथ देखा। वो भी समझ गया कि ये आखरी बार थी। वो हडबडा रहा था, बार-बार मेरे ही डिब्बे मे आ रहा था “ब्रेड-कटलेट-पोहा-आमलेट”। मैं हर बार बाथरूम जाने के बहाने उससे टकरा रहा था। कभी उसके बाजुओ को हाथो मे कास रहा था। तब मुझे लगा की वो पतला है पर लगता नहीं है।

फिर मैं उसके पीछे दूर तक गया। पीछे वो बार-बार देखता रहा। उसने पेंट्री मे अपनी ट्रे रखी। वो मेरी ही तरफ देख रहा था। दिमाग मे खून कुछ ज्यादा ही जा रहा था या कुछ ज्यादा ही कम। हर चीज रुके चली जा रही थी। मुझे लगा कि इतने सालो से जो गाना भूलने के बाद भी गुनगुनाये जा रहा था वो “मेरे महबूब क़यामत होगी” ही था।

वो मेरे कुछ पूछने का इंतज़ार कर रहा था; पर मेरे दिमाग ने तो काम कब का करना बंद कर दिया था। धक् धक् धक्; अब मुझे पक्का था की दिमाग मे खून कुछ ज्यादा ही जा रहा है |

“कहाँ जाओगे साहब?” उसने पूछा।

वो थोडा और मुस्कराया; वो दरवाज़े के उस पार था। मैं दरवाज़े के इस पार; बीच में दरवाज़ा था।

मुझे जवाब देते नहीं बन रहा था; ये दरवाज़ा जिस तक मैं ४१,००० किलोमीटर (१ साल – ४१ चक्कर – पांच सौ किलोमीटर = २*४१*५००) तय करके पहुँचा हूँ। अब मुझसे पार नहीं किया जा रहा। तभी आवाज़ आई “ब्रेड-कटलेट-पोहा-आमलेट”। उसके होंठ चुप थे। दूसरा छोटू चिल्लाते हुए वहीं आ रहा था। मैंने दरवाज़ा पार करने की कोशिश की पर उसने ऐसे सर हिलाया कि अभी नहीं। उसने कुछ कहा धीरे से, जो मैं सुन न पाया या समझ न पाया।क्योंकि दिमाग ने तो काम करना बंद कर दिया था ना!

दूसरा छोटू बस अगली बोगी मे था: “ब्रेड-कटलेट-पोहा-आमलेट”।

नवम्बर में

“क्या”: अपनी ट्रे उठाता वो।

“नंबर मिलेगा?”

उसने हाँ में सर हिलाया। ट्रे लिए आगे बढ़ा, पीछे देखते हुए। वो पतले सिर वाला दूसरा छोटू वहाँ तक आ पहुँचा था।

मेरा स्टेशन आ गया। मैं उतर गया। ट्रेन भी ज्यादा रुकी नहीं।

अरसा हो गया है। मेरा तबादला पास ही हो गया है। मैं हर हफ्ते बस से सफ़र करता हूँ। शुक्रवार शाम को, सोमवार सुबह। बस का कंडक्टर है। जिसे मैं पैसे देते हुए हलके से छूता हूँ और वो टिकट देते हुए मुझे | कई बार जब वो गर्मियों में मुस्कुराता है; रास्ते जाने-पहचाने लगते हैं। मैं सोचता हूँ उसने धीमे से क्या कहा था जो मैं सुन नहीं पाया , समझ नहीं पाया। कई बार लगता है जैसे उसने कहा हो “छूना नहीं…चूमना नहीं…सिर्फ चोकोबार…जब पी रहा होऊंगा सिगार…”

कई बार लगता है शायद उसने पूछा हो “आपको भी आम पसंद है ?”