इस सप्ताह हम शुरू कर रहे हैं गेलेक्सी औरQGraphy की सहभागिता में हमारा पहला तस्वीर-निबंध।
आपको फिल्म ‘करण अर्जुन’ का गीत शायद मालूम हो: ‘यह बंधन तो प्यार का बंधन है, जन्मों का संगम है’।
संबंधों का परिवर्तन बंधनों में कैसे होता है? महज़ किसी व्यक्ति से ही नहीं, बल्कि किसी भी अन्य जीव से, यहाँ तक कि निर्जीव वस्तुओं से भी, जसबातों की डोरी से हम बंध जाते हैं।
क्या इस भावना को भला तस्वीर में क़ैद किया जा सकता है? हर किसी का भावनाओं से जुड़ जाने और उन्हें व्यक्त करने का तरीका अनूठा होता है।
मित्र, संगीत, भोजन, किताबें, कैमरा, पालतू जानवर या फिर हमें घर में घिरे रखने वाले माल-असबाब, इन सब से हमारी ‘बॉन्डिंग’ हो जाती है।
आइये देखते हैं, इस विषयवस्तु पर ली गई ऎसी ही कुछ तस्वीरें:
१.
इस कांटेदार तार से निषिद्ध प्रेम करनेवाले ख़ास वाकिफ हैं।
चाहे वह परिवार जनों द्वारा लगाईं गई सीमाएं हो, देश में भारतीय दंड संहिता ३७७ जैसे कलम हों जो समलैंगिक समुदाय को अपराधी घोषित करते हैं, या फिर हमारे अन्दर की शर्म और ग्लानि, जो हमें एक परिपूर्ण जीवन जीने से दूर रखती हैं।
तस्वीर: प्रसनजीत चौधरी
कुछ लोग इस नुकीली तार से घायल हो जाते हैं, कुछ मामूली खरोंच के साथ बच निकलते हैं, तो कुछ लोग अपने सत्य और प्रेम की आहूति देकर इस दमनकारी तार से ही बंधन बना लेते हैं, चाहे वे धार्मिक हुक्म हों या फिर शासकीय यंत्रणा।
मगर कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो तार को लांघ कर अपना रास्ता ढूँढने, और दूर स्थित अपनी मंज़िल को पहचानने और उसके तरफ क़दम उठाने में सफल होते हैं।
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२.
भारत में वास करने की एक ख़ासियत यह है, कि दो पुरुषों या स्त्रियों में प्रकट आपसी स्नेह को लैंगिकता का रंग नहीं चढ़ाया जाता।
इसलिए हमारी सड़कों पर दो पुरुषों का हाथों में हाथ या बाहों में बाहें डालकर चलना, या फिर उँगलियों को लपेटकर टहलना, समलैंगिकता की निशानी नहीं समझी जाती।
यह सहज और निश्छल बंधन इस बात का प्रतीक है कि पुरुषत्व कांच कि तरह भंगुर चीज़ नहीं है, जिसे ममत्व, करुणा और नर्मी से वंचित रखकर ही परिरक्षित किया जा सके।
तस्वीर: आदित्य मुळे
भारत का एल.जी.बी.टी. समाज भी बहुसंख्य विषमलैंगिकों के साथ इसी तरह के निर्मल और सहज सम्बन्ध रखना चाहता है।
१८६० में उसपर लागू की गयी अपराधिता असहज है।
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३.
‘बॉन्डिंग’ मात्र प्रेमियों में ही नहीं, दोस्तों में भी होता है।
ऐसे बहुत सारे गे लड़के हैं, जो कहते हैं कि उनका कोई स्ट्रेट दोस्त उन्हें उनके समलैंगिक दोस्तों से ज्यादा अच्छी तरह समझता है, और उसके रुझान पर कोई राय नहीं बनाता।
हर बंधन शारीरिक या रूमानी नहीं होता।
कुछ बंधन ऐसे हैं जिन्हें नाम देना कठिन होता है।
पर नाम नहीं होने से उनका वजूद कम नहीं होता।
तस्वीर: प्रसनजीत चौधरी
सागर के किनारे, इत्मीनान से लहरों को गिनते हुए, जीवन की गाडी को हाँकने से विराम पाकर हम ऐसे बंधनों में बंध जाते हैं, जो आगे चलकर यादें बन जाती हैं जो ज़िन्दगी भर हमारे साथ रहती हैं।
निसर्ग के सानिध्य में हमें हमारी नैसर्गिकता का फिरसे बोध होता है. और हमारे ‘अलग’ होने की याद दिलाने वाले छोटे से कौए को हम जैसे अपने अंगूठे पर बैठा देख उसपर हंस पाते हैं!
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४.
निसर्ग की गोद में जब दो प्रेमी एकांत पाते हैं, तो उन्हें जग की क्षणभंगुरता का अहसास होता है।
वसंत ऋतु में फूलों से लदी डालियों से घिरे प्रेमी सोचते हैं, ‘बस यही पल है जो हमारा है, भविष्य और भूतकाल में कुछ नहीं रखा।
आओ हम आज का उत्सव मनाएं।'
तस्वीर: क्षितिज बिसेन
कितनी सुन्दर है नीचे बिछी फूलों की चादर! इस पल की शांति यह भी अधोरेखित करती है, कि प्रेम अनादी और चिरकालिक है, इसकी न शुरुआत है, न इसका अंत।
अतः यद्यपि हमारा पृथ्वी पर समय पलक झपकते ही ख़तम होता हो, हमारे प्रेम के बंधे धागे हमारे अस्तित्व को अविनाशी बनाते हैं।
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५.
‘हमेशा’ यह संकल्पना प्रेमियों के लिए काफी आकर्षक है।
अपनी दास्ताँ को मूर्त रूप देने की चाह उन्हें बेचैन करती है।
फिल्म ‘राम तेरी गंगा मैली’ में सुरेश वाडकर जी गाते हुए सुझाव देते हैं, ‘छोटे-छोटे झरने हैं, कि झरनों का पानी छूकर, कुछ वादें करते हैं’।
जिसपर लताजी गाकर जवाब देती हैं, ‘झरने तो बहते हैं, क़सम ले पहाड़ों कि, जो कायम रहते हैं!’।
तस्वीर: अनूप सिद्धार्थन
पहाड़ों की तरह प्यार को कायम करने वाला मर्क़ज़ है ‘अंगूठी’।
प्यार की निशानियाँ कई तरह की होती हैं, राष्ट्रिय स्मारकों पर प्रेमी अपने नाम दीवारों पर, या फिर किसी पेड़ के ताने पर चाकू से कुरेदकर उसे दिल में तीर के साथ मुहासिरा क्यों करते हैं? जिस तरह एक स्मारक या दरख़्त शाश्वतता का प्रतीक है, उसी तरह अंगूठियों का अपने सगे-सम्बन्धियों के सानिध्य में विनिमय करके प्रेमी अपने प्रेम पर नित्यता की मुहर लगाते हैं।
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६.
शाश्वतता की एक और निशानी है कब्र, या स्मारक।
अगर दो दिल, दो आत्माएं एक हुई हैं, भले ही वे पुरुष या महिलाएं हों, तो लोक-साहित्य में उनका विशेष उल्लेख होता है, और उन्हें इज्ज़त दी जाती है, भले ही कोई इतिहासकार उनकी कहानी के इस पहलु को नज़र-अंदाज़ करने की पुरजोर कोशिश करें।
एक ऐसा उदाहरण है दिल्ली में जमाली नामक १५३६ में देहांत हुए सूफी कवि का।
उनके खानकाह में दो कब्रें हैं, उनकी, और उनके प्रिय शिष्य कमाली की।
तस्वीर: क्षितिज बिसेन
ख़ाक से उठकर हम आते हैं, और ख़ाक में ही विलीन होते हैं।
पांच तत्वों में विलीन होनेवाला हमारा शरीर नश्वर है, मगर हम अपनी यादों, अपने बंधनों के पावित्र्य को नश्वर नहीं होने देना चाहते हैं।
इसीलिए मृत्यु के बाद भी परिवार और प्रियजनों को एक साथ दफनाने का कई जमातों में रिवाज है।
समलैंगिक प्रेमियों की ट्रेजेडी अक्सर यह होती है कि मृत्यु के बाद उनकी शनाख्त, उनके रुझान और उनकी कहानियों को सम्मान और लोक-लाज के नाम पर मिटाया जाता है।
और फिर अगली पीढी के समलैंगिकों को मालूम नहीं होता, कि उनका भी एक गहरा इतिहास है।
वे अपने आप को अकेला और दिशाहीन समझते हैं।
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७.
अकेले और बेबस ऐसे लोग भी हो जाते हैं, जिनकी ज़बरन शादियाँ की जाती हैं, और जिनपर अपने चाल-चलन और रहन-सहन को बदलकर समाज में यथोचित दिखनी का दबाव होता है।
वित्तीय और निजी स्वतंत्रता के अभाव में ऐसे युवाओं पर अपना असली जिन्स या अपनी लैंगिकता छुपाकर विषमलैंगिक विवाह के बंधन में बंधने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता।
अक्सर ऐसे एल.जी.बी.टी. लोग परम्पराओं के जाल में अपने आप को फंसा हुआ पाकर खुदखुशी का रास्ता अपनाते हैं।
तस्वीर:अंकिता भोसले
या फिर कभी-कभार दारू और नशीले पदार्थों की आसक्ति में अपने वास्तव से भागने का रास्ता ढूंढते हैं।
इस सिलसिले में अंगूठी अमर प्रेम की निशानी नहीं, एक हथकड़ी लगने लगती है, जिससे कोई छुटकारा संभव नहीं।
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८.
लेकिन ऐसे क्यों होता है? क्यों हमारे परिवार जन हमें अपने प्यार को उसकी मंजिल तक नहीं ले जाने देते? इसकी वजह यह है कि जिन परम्पराओं को वे देखते आ रहे होते हैं, उन्हीं को बरक़रार रखने में वे हमारा हित देखते हैं।
जीवन के पहले क्षण से एक माँ अपने बच्चे को प्रेम करती है।
उसके छोटे से दिल की तेज़ धडकनें, उसकी नींद में माँ की ऊंगली को थाम रही उंगलियाँ एक अटूट बंधन निर्माण करती हैं।
भले ही बच्चा बड़ा हो जाए, माँ-बाप के लिए वह एक दृष्टि से शिशु ही बना रहता है।
अतः जब वह समलैंगिक या ट्रांस होने की घोषणा करती है, माता-पिता को लगता है कि बच्चा भटक गया है, उसे सही रस्ते पर लाना हमारा कर्त्तव्य है।
तस्वीर:अविनाश सिंह
वे भी क्या कर सकते हैं? उनके अडोस-पड़ोस में ऐसे कोई लोग नहीं होते हैं, जो खुले-आम अपनी यौनिकता का ऐलान करते हैं।
समाज में कोई यशस्वी समलैंगिक प्रेरणास्रोत नहीं, जिसे देखकर वे अपने ‘अलग’ बच्चे की सफलता कि सम्भावना में विशवास करें।
अपनी सहेलियों और मित्रों के बच्चों की शादियाँ होते देख, वे भी अपनी बेटी के लिए यही चाहते हैं।
काफी बार, समलैंगिक के प्रगटीकरण करने के बाद माँ-बाप की पहली प्रतिक्रया यह होती है: “हम तुम्हें खोना नहीं चाहते”।
काश वे देख पाते कि इमानदारी और सच्चाई से अपना जीवन जीना, एक औलाद की उनके प्रति सबसे बड़ी कर्तव्यपूर्ति है।
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९.
‘बंधन’ सिर्फ मनुष्यों में नहीं, मनुष्य और जानवर के बीच भी होता है।
‘बंधन’ को परिभाषित करने वाली भावनाएं जैसे आपसी विशवास, सूझ-बूझ, मिलकर रहने की अभिलाषा और सुख-दुख बांटने की चाह, प्राणियों में कभी-कभी मनुष्यों से ज्यादा पाई जाती हैं।
सारी दुनिया से लड़-झगड़कर जब कोई अपने घर आता है, और उसका मित्र, उसका कुत्ता उससे आ लिपटता है, तो बाहरी दुनिया कि कठोरता और बेअदबी गायब होती है।
तस्वीर:भूपेश कौरा
यह पशु तुम्हें तुम्हारे साथी के साथ देखकर अपना मुंह नहीं फेर लेता।
उसके लिए यह बात महत्त्व रखती है, कि तुम उसे समय पर खिलाते हो या नहीं? उसके साथ समय बिताते, खेलते, उसकी सांगत का आनंद उठाते हो या नहीं? न कि तुम्हारे साथी के जननेंद्रिय!
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१०.
‘बॉन्डिंग’ किसके साथ होगी, किसके साथ नहीं, यह कहना मुश्किल है।
कईयों का मानना है कि यह विषय अंतर-प्रज्ञा (इनट्युइशन) के दायरे में आता है।
प्रत्यक्षता और परोक्षता से हम दूसरों को अपनी तरफ खींचते हैं, और खुद दूसरों की तरफ आकर्षित होते हैं।
यह बंधन कब, कैसे, और क्यों होता है, यह हमें पता भी नहीं चलता।
समझ में तब आता है जब हम किसी के बिना अधूरा महसूस करते हैं, उनसे मिलने की हमें चाह होती है।
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११.
शायद हमें ‘जियो और जीने दो’ की सीख इन अबोल प्राणियों से ही सीखनी चाहिए।
रंग, जाति, धर्म, लैंगिकता, जिन्सियत के बल-बूते पर हम एक दुसरे के साथ कितना अन्याय करते हैं!
तस्वीर:राज पाण्डेय
कितना कुछ पाया है हमने इस धरती पर, कितने आगे जा चुके हैं।
क्यों हम स्वयं इस भेदभाव के ज़हर को पी-पिलाकर हम अपना ही विध्वंस करने पर तुले हैं?
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१२.
अतः चलो इस बंधन को हम हमारी कमजोरी नहीं, हमारी शक्ति बनाएं।
मित्रता में आगे बढ़ते हुए दुनिया को जाने, जीवन कू पूरी तरह से जिएं. परस्पर सहारा बनें।
तस्वीर: ओमेश मासंड
कभी शरारत, कभी हंसी-ख़ुशी और कभी संजीदगी के साथ इस अल्पकालीन यात्रा के दौरान हमसफ़र बनें।
एक दुसरे को तरक्की करने में मदद करें, ईर्ष्या का शिकार होकर किसी को नीचे नहीं खींचे।
और सबसे बड़ी बात, हमारे तत्वज्ञान और विचारधारा की मगरूरी में इतने भी कठोर न बनें, कि हम अपने आप पर हंसना और एक दूसरे से गले मिलना ही भूल जाएं।
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१३.
तो यह थे बंधन इस विषय पर कुछ विचार, तस्वीरों और शब्दों द्वारा व्यक्त. हमें यकीन है कि बंधन इस संकल्पना के बारे में आपके भी कई विचार होंगे. आपसे अनुरोध है कि आप अपने विचार टिपण्णी अनुभाग (कोमेंट्स सेक्शन) में व्यक्त करें. और अपने पत्र, विचार, कविताएँ, तस्वीरें और कहानियां editor.hindi@gaylaxymag.com पर भेजें. हमें आपकी प्रतिक्रया का बेसबरी से इंतज़ार होगा.
तस्वीर: सुधीर नारायण
अगले तस्वीर-निबंध तक आज्ञा दें, और यूं ही स्नेह और परस्पर भरोसे के बंधनों में बंधते रहे!
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