रविवार १५ दिसंबर २०१३ को जागतिक कोप दिवस (‘ग्लोबल डे ऑफ़ रेज’) मनाया गया। भारत और दुनिया के दीगर शहरों में उच्चतम न्यायलय के ११ दिसंबर के भारतीय दंड संहिता के धारा ३७७ को बहाल करने के निर्णय के प्रति नामंजूरी दिखने के लिए प्रदर्शन हुए। भोपाल में ‘मध्य प्रदेश महिला मंच’, ‘राजकीय दमन और लैंगिक हिंसा के खिलाफ महिलाएँ’, ‘एकतारा कलेक्टिव’, ‘मुस्कान’, ‘विकास संवाद’, ‘भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग’, ‘भोपाल ग्रुप फॉर इनफार्मेशन एंड एक्शन’, ‘आल इंडिया रेवोलुशनरी स्टूडेंट आर्गेनाइजेशन’ इन संस्थाओं ने इसमें हिस्सा लिया। दोपहर २ से ४ बजे तक बोर्ड़ ऑफिस चौराहा, एम. पी. नगर, भोपाल पर यह प्रदर्शन हुआ। इस अवसर पर खींची गयी तस्वीरों के साथ उन्होंने अपने रिलीज़ किये बयान का यह विडियो बनाया।
http://www.youtube.com/watch?v=yNdSxIwojKY
इस बयान की खासियत यह है कि वह अन्य संवैधानिक अधिकारों का हनन करनेवाले कानूनों के खिलाफ की लड़ाइयों के प्रति सहिष्णुता व्यक्त करती है। पेश है एक मुलाक़ात, ‘मध्य प्रदेश महिला मंच’ की माहीन मिर्ज़ा और रिनचिन के साथ, और बयान का टैक्स्ट।
यौनिक अल्पसंख्यकों और अन्य संघर्षों में क्या समानताएं और फ़र्क़ हैं? इनसे एकजुट होने की क्या आवश्यकता है?
इस प्रदर्शन में भाग लेने वाले लगभग सभी व्यक्ति विभिन्न मुद्दों पर चल रहे संघर्षों में भी किसी न किसी रूप में जुड़े हुए हैं- हम बराबरी की लड़ाई को अकेले एक घटक की लड़ाई के रूप में नहीं देख सकते। सभी तरह के भेदभावों को चुनौती देना या चैलेंज करते रहना पड़ेगा। उदाहरण के लिए – पुलिस प्रताड़ना के खिलाफ लड़ाई। झुग्गी-बस्ती में रहने वाले लोगों को पुलिस लगातार परेशान करती है। नियमों का उल्लंघन करके उन्हें थाने में गैर-कानूनी तरीके से बिठाये रखती है। हिजड़ा, एल जी बी टी और अन्य अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को भी इसी तरह की प्रताड़नाओं का शिकार होना पड़ता है। ऐसे में पुलिस प्रताड़ना का विरोध सभी समुदाय के संवैधानिक अधिकारों का सवाल बन जाता है।
सामाजिक दरकिनार पर फेंके जाने का मुद्दा, जो जाती, जेंडर और धर्म की इश्यूज पर भी होता है वह तीव्र है। हालिया सिस्टम में घिसे-पिटे पूर्वाग्रहों के सन्दर्भ में इसे देखना चाहिए। नारीवादी या स्थलांतरण से जुड़े संघर्षों में भी वर्ग जाती, जींस और लैंगिकता की लड़ाइयों की लिए जगह बनाई जाए। अगर ऐक्टिविस्ट समुदाय में यह विशेषाधिकार मौजूद हैं तो उन्हें भी इसकी दखल-अंदाज़ी करनी चाहिए। सही समझने जानी वाली जिनसियत, परिवार, धर्म, जाती, वर्ग ये सब छान-बीन करने योग्य हैं और सिफ ‘पॉलिटिकली करेक्ट’ होने से सफलता नहीं मिलेगी।
देखने-सुननेवालों की क्या प्रतिक्रियाएँ थीं?
वहाँ आये हुए लोगों की बारे में माहीन बताती हैं, “इस विरोध प्रदर्शन में करीब 50-60 लोग शामिल हुए थे। इनमें काफी नए लोग थे जिन्हें हमने ऐसे प्रदर्शनों में पहले नहीं देखा था। प्रदर्शन की ख़ास बात यह थी कि इसमें इतना ज़ोर नहीं था कि शामिल लोगों में समलैंगिक लोग हैं या नहीं। शिरकत करने वाले साथियों के साथ इस पूरे मुद्दे पर चर्चा की गयी। युवाओं ने अपने-अपने कॉलेजों में भी ऐसी चर्चाओं को कराये जाने की इच्छा ज़ाहिर की।”
आपके अनुसार विभिन्न शहरों में ग्लोबल डे ऑफ़ रेज के आयोजन से क्या हासिल हुआ?
आम लोगों का एक साथ खड़े होकर इस फैसले को गलत बताना। समलैंगिकता के अधिकारों को स्वीकारते हुए उसके लिए खड़े होने का जज्बा। इस आयोजन ने लोगों को अधिकारों के लिए खड़े होने और पक्ष लेने के लिए प्रेरित किया। और इस मुद्दे को व्यक्तिगत चुनाव या जीवनशैली के चुनाव की बजाय इसे नागरिक अधिकारों के रूप में पहचानना। इसमें ज़मीनी स्तर काम कर रहे संगठन, बस्तियों के लोग और कई एक्टिविस्ट भी थे। इस तरह ये विविध लोगों का समूह था जो कई अलग-अलग मुद्दों पर संघर्ष कर रहे हैं। देखा जाए तो ये “ख़ास तरह” का मुद्दा न रहकर आम लोगों का मुद्दा बन गया.
यहाँ तक कि हमारे बीच भी ये विभिन्न मुद्दों पर बातचीत करने का समय था, जैसे कि भोपाल के बड़े हिजड़ा समुदाय से हमारे साथ कोई नहीं था। हमने चर्चा की कि हममें से कुछ को उनसे मिलने जाना चाहिए, संपर्क बनाना चाहिए। उनके संघर्षों को अपनी लड़ाई का हिस्सा बनाते हुए उनके लिए जगह बनाना ताकि वो भी हमारी लड़ाई का हिस्सा बन सकें।
पेश है बयान का टैक्सट:
“हम धारा ३७७ को बनाये रखने के सुप्रीम कोर्ट के इस फासीवादी फैसले का विरोध करते हैं। हम पुरज़ोर तरीक़े से कहते हैं, कि धारा ३७७, संविधान की धारा २१, १४ व १५, और भारत के सभी नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों का उल्लंघन करती है। धारा ३७७, ‘आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट’, ‘अनलॉफुल एक्टिविटीज प्रिवेंशन एक्ट’, ‘प्रिवेंशन ऑफ़ टेररिस्ट एक्टिविटीज एक्ट’ जैसे दुसरे कड़े कानूनों कि श्रेणि में आती है, जो कि नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों का हनन करतीं हैं।
ये वाकई निराशाजनक है कि जब सरकार और न्यायपालिका को सभी नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करने की दिशा में काम करना चाहिए, चाहे वह कॉर्पोरेट लूट और ज़मीन अधिग्रहण के खिलाफ हो, या धर्म, जाति और जेंडर आधारित हिंसा के खिलाफ हो, या फिर नैतिक ब्रिगेड की कट्टरता के कारण हो, वहीँ, इसकी बजाय वह ऐसे क़दम उठा रही है जिससे उसके नागरिकों के लिए फासीवादी एवं नव-उदारवादी ताक़तों का जोखिम बढ़ता जा रहा है। धारा ३७७ को बनाए रखना उसी दिशा में आगे बढ़ना है।
सरकार और न्यायपालिका संविधान से बँधी हुई हैं और किसी भी व्यक्ति या समूह के जीवन और खुद को व्यक्त करने के हक़ को सीमित नहीं कर सकती हैं, जबतक कि वह दूसरे के किसी अधिकारों को नुकसान न पहुँचाए। वयस्कों की सहमति से बने यौन सम्बन्ध किसी भी तरह से दूसरे के संवैधानिक अधिकारों का हनन नहीं करते। कई नागरिक जीवन और आजीविका के अधिकार के लिए देश में संघर्ष कर रहे हैं। मज़दूर अब भी न्यूनतम मज़दूरी के लिए लड़ रहे हैं।
महिलाएँ और विभिन्न जेंडर के लोग सड़कों में, परिवारों के अंदर, जेलों में, तलाशी अभियानों में और काम की जगहो पर यौन उत्पीड़न का सामना करते हैं। कई गरीब विस्थापित हो रहें हैं और रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में पुलिस के उत्पीड़न का सामना कर रहे हैं। लेस्बियन, गे, बाइसेक्शुअल, ट्रांसजेंडर, क्वीयर, हिजड़ा समुदाय, अपने शारीर, अपनी लैंगिक पहचान, अपनी यौनिकता के अधिकारों के लिए लड़ने के साथ-साथ इन सभी समूहों के साथ अपनी एकजुटता प्रदर्शित कर रहे हैं। और इसी एकजुटता के साथ, एक न्यायिक समाज के लिए हम लगातार संघर्ष करेंगे।
आज धारा ३७७ के रद्दीकरण की माँग करना केवल व्यक्तिगत पसंद-नापसंद के लिए आवाज़ उठाना ही नहीं, बल्कि एक राजनैतिक और सामाजिक न्याय का मुद्दा भी है। देश के सभी प्रगतिशील ताक़तों का संघर्ष एक ऐसे न्यायपूर्ण समाज की और ले जाने के लिए है जहाँ जाति, वर्ग, जेंडर और लैंगिक रुझान के आधार पर लोगों का उत्पीड़न या भेदभाव नहीं हो।”