पहनो जो तुम पहनना चाहते हो
करो जो तुम्हारा दिल कहे
ज़माने की बंदिशों को परवरदिगार न समझ
अनासिर बुत न समझ मुझे
मैं भी उतना ही खुदा हूँ जितना है तू
घुंगरू तो मुझसे पूछते नहीं, “आखिर तेरी ज़ात क्या है?”
न जाने किसने देख ली क्रूरता में मर्दानगी
क्या कभी देखा हमें रोते हुए?
न जाने कौन कहता है कि लड़के सजते नहीं, सँवरते नहीं?
न जाने कौन कहता है ‘जब तक वो कमाएं ना
तब तक वो कुल का चिराग होते नहीं?’
न जाने कितनी आरज़ुएँ निस्तेनाबूत ना हुई
न जाने कितने सितारे आसमान तलक टूटे नहीं
कौन कहता है औरत तो महज़ काँच की गुड़िया है?
वह नगरवधू भी उतनी ही दुर्गा है जितनी है काली तू
कोख़ में ना मारो उन्हें
कम से कम हयात की उड़ान तो भरने दो
अर्धनारीश्वर की छवी को साँस तो लेने दो
मेरे ख़याल ही हैं कुछ यूँ
क्या इसलिए उसने मुझे नहीं स्वीकारा?
या फिर इसलिए ना स्वीकारा
क्योंकि मैं विचित्र हूँ
खुदा की ये परछाई तो देखो
वो कोरा कागज़
और मैं, सतरंगी-सा चित्र
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