‘अलविदा’ का पहला भाग यहाँ पढ़ें। प्रस्तुत है कपिल कुमार की २ किश्तों में पेश शृंखलाबद्ध कहानी ‘अलविदा’ का दूसरा और आखरी भाग:
उसकी शादी से पहले भी मैं लौटा था। उसकी छत पर हमेशा चादरें सूखती रहती थीं। जो हवा के साथ बहुत आवाज़ करती थीं। सट सट। मैं और रमणा घण्टों बैठे थे छत पर।
“तुम्हे पता है मैं हमेशा डरती थी तुम दोनों की दोस्ती से। लगता था कि मैं अकेली छोड़ दी जाऊँगी,” उसने गहरी साँस छोड़ते हुए कहा।
“और अब तो कोई डर नहीं है , अब तो हम तीनों अकेले हैं।” मैं हँसा पर वह नहीं।
वह मेरे उलझे हुए बालो में हाथ फेरते हुए कहने लगी: “तुम बहुत बदल गए हो।”
“सब बदलते हैं।”
“पर मैं तुम्हारी बात कर रही हूँ। तुम बदल गए हो।” वह इस तरह बोली कि मैं सबसे इतर वह टापू हूँ जिस तक इस दुनिया की कोई लहर नहीं पहुँचती; जिस पर इस दुनिया का कोई नियम लागू नहीं होता। वह दोहराती रही।
मैं उसे कैसे समझाऊँ कि मैं भी बदलना नहीं चाहता; वहीं रहना चाहता हूँ; उसका ही बने रहना चाहता हूँ। वह भी तो बदल रही है, अब वह पहले की तरह मुझ पर धौस नहीं जमाती, मोहल्ले में भागती नहीं फिरती, आहिस्ता से चलती है, अब वह मुझसे कंचे या होमवर्क नहीं, कुछ और भी चाहती है, और इसी से मैं घबरा रहा हूँ। वह मुझे वहीं छोड़ कर उठ खड़ी हुई। चादरें समेटने लगी। फिर उसने पीछे मुड़कर देखा।
“तुम्हें कुछ दिखाना है।” उसने छत के कोने पर बनी अधूरी कोठरी का दरवाज़ा खोला। एक पुराना-सा बक्सा था।
“बताओ क्या है।” बिना मेरे जवाब का इंतज़ार किए खुद ही बोल पड़ी।
“अपने बचपन के खिलोने।”
“थोड़े से मेरे , और बहुत सारे तुम्हारे जो तुम हमारे घर छोड़ …..।”
“थैंक यू ” मैंने कहा।
“क्यों ?”
“मेरा बचपन संभाले रखने के लिए।”
“अब आगे कौन संभालेगा ?” उसने सिर नीचे किये पूछा।
“अब सँभलने की उम्र भी कहाँ रही। ठोकरे ही खानी है। रमणा… तू चली जाएगी।” वह लिपट गयी और इसी का मुझे डर था।
बहुत खिड़कियाँ थीं उस कमरे में। हम बिना कुछ बोले खिड़कियों पर चादर लगा रहे थे। मुझे पता था कैसे चादर अटकानी है। उन खिड़कियों से शाम की गुलाबी रौशनी छन कर आ रही थी। उसके बालो में रोशनी रंग भर रही थी। रौशनी में उसका रोया-रोया नहा रहा था। मुझ पर कुछ पुराना-सा नशा चढ़ रहा था। नीचे उसकी माँ को चिल्लाते हुए सुन रहा था: “कहाँ गई वह? बता कर भी नहीं जाती। निम्मीईईई! रमणा का कुछ पता है ?”
मैं चुप था पर वह रह-रह कर हंस देती थी। वह काँप रही थी, उसके पेट पर कंपकपाहट दिख रही थी हलकी सी। मेरा भी दिल तेज़ी से धड़क रहा था और ये बात मुझे तब पता चली जब उसने अपना हाथ मेरे सीने पर रख दिया। फिर अचानक वह पल आया कि सबकुछ शांत हो गया, उसकी माँ की आवाज़, मेरी तेज़ धड़कन, उसकी कंपकपाहट। न उसने कहा ‘रुक जाओ’, न उसने कहा ‘मुझे रोक लो’; वह जानती थी इन सब का कोई मतलब नहीं है। बस यह पल है इसके बाद शायद कुछ भी नहीं।
शाम ढल गयी, अँधेरा घिरने लगा; वह अपने आप को समेट कर नीचे लौट गयी। उसने पूछा था, “कल मिलकर जाओगे न?” मैंने हाँ में सिर हिला दिया। वह अँधेरे में घुल गयी। शायद वारुण उसकी छत पर बैठा था। अँधेरे में मैं उसे देख तो नहीं, पर महसूस कर सकता था। कितना अजीब है न? रमणा और मेरी कहानी भी इसी कोठरी पर खत्म हुई और वारुण और मेरी भी।
लोग सोचते है वारुण और हमारे बीच में नफरत है, जलन है, गलतफहमी है। पर अगर हमें कोई बोलने से कोई रोक रहा है वह है शर्म। शर्म उन शामों के लिए। वारुण और मेरी वह अजीब शामें जब हम स्कूल के बाद इसी कोठरी में मिलते थे… गुलाबी शामें: जब उसके बालों में रौशनी रंग भरती थी, उसका रोया रोया रौशनी से नहाया होता था। वह रह-रह के हस रहा होता था। हम बेहिसाब चादरों से खिड़कियाँ ढँक रहे होते थे। वे अजीब शामें। जो मेरी छोटी सी जिंदगी का एकमात्र सम्पूर्ण अनुभव है। जिस पर वह शर्मिंदा है और जिसे मैं भूलना नहीं चाहता।
अगले दिन जाने से पहले मैं रमणा से मिलने नहीं गया। सूरज की लम्बी हो चुकी किरणे उस गली में गिर रही थी ; मैं सामान कंधे पर लिए निकल रहा था। वारुण उसकी छत पर बैठा था पर दूसरी और देख रहा था। मैं दीवार के पार तो नहीं देख सकता पर महसूस कर सकता था की उन हिलते हुए पर्दो की ओट में रमणा थी। मुझे कभी अलविदा कहना नहीं आया , मैं पैर घसीटते हुए निकल पड़ा।
रमणा शादी करके चली गयी। रमणा के साथ मेरा भी वह शहर छूट गया। कभी सुनता था कि रमणा को लड़की हुई है। वारुण ने पिछले साल शादी कर ली। न मैं रसगुल्ले थामे उसके सामने खड़ा रहा न वह रोया। साल गुजरते रहे, यह नया शहर मुझसे अनजान ही रहा और मेरे शहर ने भी मुझे अजनबी कर दिया। मैं भारी क़दमों से इन अनजान गलियों से गुजरता हूँ तो लगता है, पीछे छूटे मोड़ पर कोई छन्न से हंस रहा है।
जिंदगी की इस साँझ में चाहता हूँ वह मिले कभी; उन फिल्मो की तरह, जिनमे दो प्यार करनेवाले जुदाई के सालो बाद मिलते हैं। लेट हो चुकी ट्रैन के इंतज़ार में तेज़ बारिश से घिरे हुए, अकेले; उस छोटे-से स्टेशन के छोटे-से वेटिंग रूम में। उसकी नयी ज़िंदगी में खुशियाँ हों; और मैं परेशानी से घिरा दिखूँ। हलकी-सी सफेदी मेरे बालों में आ चुकी हो पर वह अब भी खूबसूरत हो। घिरती हुई रात में वह कुछ कहे और मैं कुछ बताऊँ। और आखिर में लम्हों के कही किसी बिंदु पर मैं उसे बता ही दूँ कि स्कूल के आखरी दिनों में क्या बदला जिससे मैं बदल कर रह गया। पर मेरी या उसकी ज़िंदगी में वह बारिश से घिरा छोटे-से स्टेशन का वह छोटा-सा वेटिंग रूम कभी नहीं आया।
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