श्रीणिवास रामचन्द्र सिरास अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में मराठी के प्राध्यापक, और आधुनिक भारतीय भाषा विभाग के अध्यक्ष थे। “अलीगढ़” (हिंदी, २६ फरवरी २०१६ को प्रदर्शित) फिल्म की कहानी ८ फरवरी २०१० की ठंडी और धूमिल रात से शुरू होती है, जब वे हाथ-रिक्शा में घर लौट रहे होते हैं। रिक्शावाले के साथ अपने छोटे-से फ्लैट में वे निःशब्द प्रवेश करते हैं। दो अनजान आदमी घर में घुसकर उन दोनों का बिस्तर में निर्वस्त्र वीडियो लेते हैं। यूनिवर्सिटी के चार अधिकारी वहाँ अचानक पहुँच जाते हैं और दोनों, खासकर रिक्शा वाले की मारपीट करते हैं। प्रोफेसर को अपने घर, पद और नौकरी से निकाला जाता है। कुछ मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के प्रोत्साहन पर वे अलाहबाद उच्च न्यायालय में अपनी बरतरफी के खिलाफ मुक़दमा लड़ते हैं। १ अप्रैल २०१० को केस जीतने के एक सप्ताह बाद ही, उनके अपार्टमेंट में उनकी संदेहजनक मौत होती है। इस २ महीनों के कालखण्ड को लेखक अपूर्व असरानी ने २ जुलाई २००९ और ११ दिसंबर २०१३ के समलैंगिकता के निरपराधिकरण और पुनरपराधिकरण के भारतीय दंड संहिता की धारा पर हुए कानूनी फैसलों की पार्श्वभूमि दी है। पुलिस को उनके शव परीक्षण में खून में ज़हर के अंश मिले, पर यह आत्महत्या थी या खून, इसका खुलासा अधिकृत रूप से आज तक नहीं हुआ है।
फिल्म कई महत्त्वपूर्ण मुद्दे खड़े करती है। फहाशी की व्याख्या क्या है? वीडियो लेनेवाले दो आदमियों को अधिकारियों ने न सिर्फ जाने दिया, बल्कि उनके वीडियो को पब्लिक बनाकर उसी तथाकथित फहाशी को फैलाया, जिसका बहाना बनाकर वे सिरास के करियर का खात्मा करना चाहते थे। अतः कभी-कभार सामाजिक नैतिकता एक बहाना होती है, अधिकार और ताक़त का उपयोग करने और निजी स्वार्थ पाने के लिए। जिन लोगों का दावा है, कि ३७७ का प्रत्यक्ष रूप से नकारात्मक परिणाम नहीं होता, उन्हें खासकर यह फिल्म देखकर समझना होगा, कि समाज के एक सम्पूर्ण भाग को अपराधी घोषित करने के बाद, उसके शोषण करने के सारे दरवाज़े किस प्रकार खुल जाते हैं।
दीपू सेबस्टियन नामक पत्रकार के किरदार में राजकुमार राव ने पूरी जान डाल दी है। गे नहीं होने के बावजूद, सिरास की खिन्नता उन्हें छू जाती है और वे उनकी भेद्यता को माफ़ कर उनकी छोटी-सी दुनिया में शरीक होते हैं। अपने पिता के एक लाख रुपयों के क़र्ज़ से परेशान दीपू को सिरास में एक पिता-समान आदर्श मिला था। और दिलचस्प बात यह है कि अपनी त्रुटियों की वजह से ही दीपू के लिए वे सराहनीय होते हैं। अलबत्ता, दीपू सिरास की केस से इतना प्रभावित क्यों होते हैं, यह थोड़ा अस्पष्ट है। “फिलडेल्फिया” (१९९३) में स्ट्रेट वकील डेन्ज़िल वाशिंगटन तब समलैंगिक एच.आई.वी बाधित टॉम हैंक्स को न्याय दिलाने में अपने आप को झोंक देते हैं, जब वे टॉम की समलैंगिकता को अपनी मर्दानगी को खतरा समझने के बजाय उनकी निस्सीम इंसानियत से रूबरू होते है। दीपू का भावनात्मक ग्राफ शुरुआत से सकारात्मक है, और सिरास को इन्साफ देने के काम का ज़िम्मा वे नि:संकोच, बिना कोई सवाल खड़ा किए उठाते हैं। सिरास की मौत की खबर मिलने के बाद के दीपू के अबोल आक्रोश को उन्होंने बढ़िया प्ले किया है।
मगर यह फिल्म सबसे ज़्यादा किसी एक वजह से यादगार होगी, तो वह है मनोज बाजपई की टाइटल रोल में अविस्मरणीय अदाकारी। गंगा और जमुना के बीच के उपजाऊ दोआब पर स्थित अलीगढ़ शहर के इस विश्वविद्यालय ने आधुनिक भारतीय मुस्लिम सोच और स्वतंत्रता संग्राम के बीज बोए। कॉलेज और घर इन दो शांत प्रवाहों के बीच व्हिस्की के दोआब पर आसीन सिरास अपने मन की उपजाऊ भूमि में लता के गीतों, कविताओं और अपरिभाषित जज़बातों में खोए रहते। एक बार नाव में बैठ पुल के क़रीब दीपू सिरास के क़रीब आकर सेल्फ़ी लेते हैं, और फोटो देखकर उन्हें कहते हैं कि वे हैंडसम हैं। तब सिरास की लज्जालू मगर प्रसन्न मुँहचोरी को बाजपाई ने कमाल की सहजता से दर्शाया है। हर गे लड़का इस अनुभव से गुज़रा है: किसी बांके, सजीले स्ट्रेट लड़के से तारीफ़ पाकर मन ही मन में पानी-पानी हो जाना, मन में लड्डू फूटना लेकिन ज़ाहिर नहीं होने देना। इस द्वंद्व को बाजपई ने विलक्षणता से अंडरप्ले किया है।
और उसी क्षण में यह फिल्म सिद्ध करती है, कि समलैंगिकता के विषय को उजागर करने का दावा करनेवाली “दोस्ताना” जैसी फिल्मों से यह फिल्म किस प्रकार मीलों आगे है। हक़ीक़त में “अलीगढ़” “दोस्ताना” का विलोम (एंटी-थीसिस) है। जहां एक फिल्म अपने मुद्दे तक पहुँचने के लिए समलैंगिकता की भौंडी नक़ल और हर घिसी-पिटी धारणा का सहारा लेती है, वहाँ दूसरी फिल्म एक समलैंगिक के मूक क्रंदन की सूक्ष्म, विषादजनक गवाही देते हुए, दयाशून्य समाज, दोमुंहा नैतिकता और शैक्षणिक संस्थाओं के नैतिक दिवालियापन पर शदीद टिप्पणि करती है। एक फिल्म समलैंगिकता को मग़रिबी व्यक्तिवाद, अवसरवाद, सुखवाद (हेडोनिज़म) तथा अमीर शहरवासियों की नजरिया-ए-ज़रूरत के दायरे में प्रस्थापित करती है। समलैंगिक प्रेम और गे राइट्स ऊपर-ऊपर से समर्थन करके, वह समलैंगिकता को महज़ एक आचरण होने का दर्जा देती है। जबकि दूसरी फिल्म अपनी प्रामाणिकता से ही यह सिद्ध करती है, कि समलैंगिक प्रेम कोई खेल या मस्ती नहीं है। फिल्म के विज्ञापनों में इस्तेमाल हैशटैग – “#कम_आउट” मर्म तक सीधे-सीधे पहुँचता है।
तहज़ीब को अगर एक नदी की उपमा दी जाए, तो उसे प्रदूषित करने की संकल्पना भी वाज़े लगती है। संस्कृति के स्वयंनियुक्त रखवाले आम जनता के इसी प्रदूषण के भय का दुरुपयोग करते हैं, सिरास को कुचलने में। बार-बार घर बदलने पर भी सिरास की बदनामी उनका पीछा नहीं छोड़ती। उन्हें अचानक कई बार फ्लैट से निकाला जाता है। परन्तु निकालते समय मकान मालिक सिर्फ इतना कहते हैं कि ‘आप बैचलर हैं, और यह सोसायटी सिर्फ शादी-शुदा लोगों के लिए हैं’। भिन्नलैंगिक परिवार का वर्चस्व सर्वसम्मत और निर्विवाद है। जल-बिन मछली की तरह सिरास तड़पते हैं, डिपाजिट, भाड़े और एग्रीमेंट के मुद्दों पर व्यर्थ बहस करते हैं। शांत स्वभावी प्रोफ़ेसर बेबसी में तिलमिला जाते हैं। अपने प्यार को कोई नाम नहीं देनेवाले सिरास को उसी समलैंगिकता की व्यापक गुमनामी और अदृश्यता का दुष्परिणाम भी सहना पड़ता है। हैशटैग में उल्लेखित ‘बाहर निकलना’ – समलैंगिकों का समाज में प्रकटीकरण – इसीलिए ज़रूरी है।
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में मराठी, ब्राह्मण, हिन्दू और समलैंगिक होने का सिरास को पूरा एहसास था। इन शनाख्तों में उन्हें कौनसी शनाख्त ज़्यादा ‘गैर’, ज़्यादा पराया बनाती थी, यह सिरास के लिए भी कुतूहल का विषय था। अपूर्व, हंसल और मनोज के काम की सबसे बड़ी खूबी यह है, कि उन्होंने विद्रोह की व्याख्या को ही पलट दिया है। उसके खिलाफ भेदभाव करनेवाली व्यवस्था को उथल-पुथल करने का सिरास का कतई मक़सद नहीं था। उस डाह-भारी समाज व्यवस्था को बिना धक्का दिए, एक कोने में अपने लिए थोड़ी सी जगह बनाकर ज़िन्दगी बसर करने के लिए सिरास तैयार थे। पर उस व्यवस्था ने उन्हें उस कोने से भी उखाड़ फेंकने की ठान ली। उस समाज के सड़े हुए, गंज खाए नियमों का पालन करने के बावजूद उस समाज ने सिरास को गुनहगार ठहराया। अतः
“स्वाभिमान के लिए संघर्ष करने के अलावा क्या तुम्हारे पास और कोई चारा है?”, यह सवाल आज के समलैंगिक के सामने खड़ा होता है। और आखिर इसी सवाल के खड़े होने में सिरास की सबसे बड़ी जीत थी। प्लेनेट रोमियो और ग्राइंडर जैसी गे डेटिंग ऐप्स से कोसों दूर, एक बीते युग में रहनेवाले प्रोफेसर सिरास ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि वे ५ साल बाद ‘गे राइट्स आइकॉन’ बनेंगे।
बांद्रा, मुंबई के सबर्बिया सिनेमाघर में ३८ लोगों के साथ फर्स्ट डे के ५:३० बजे के शो में प्रवेश करते हुए, इस फिल्म से दो पहलुओं के समाधान की मैंने तीव्रता से प्रत्याशा की। एक पहलु था रिक्शावाले लड़के ‘इर्फ़ान’ के वजूद का। कौन था वह? भले ही सिरास के पास ज़्यादा पैसे नहीं थे; यद्यपि वे १२ लाख की आबादी के ऐतिहासिक मगर मटमैले शहर में नौकरी कर रहे थे; इस घटना की खबर मिलने पर सारा मीडिया, और तद्पश्चात सारा देश उनके समर्थन में उठ खड़ा हुआ। लेकिन इर्फ़ान की शनाख्त, मात्र उसके शरीर के हुए उपभोग से जोड़ी गई। उपभोग यूनिवर्सिटी के अधिकारों के अनुसार सिरास ने, और सिरास के समर्थकों के अनुसार वीडियो लेने वालों, और फिर उसे देखनेवाली दृश्यरतिक पब्लिक ने किया।
फिल्म में जब दीपू इर्फ़ान को ढूँढने जाते हैं, तो पडोस के मर्दों द्वारा पिटकर आते हैं। उस सीन ने अप्रत्यक्ष रूप से इर्फ़ान की दिल दहलानेवाली वस्तुस्थिति उजागर की है। रूढ़िवाद, धर्म, वर्ग और शिक्षा की अपेक्षा से असमर्थ उस रिक्शाचालक को हमारे समाज में कोई पहचान प्राप्य नहीं है – समलैंगिक जैसी कलंकित आइडेंटिटी भी नहीं। घर छोड़कर गुमनाम होने में शायद उसकी दशा सिरास से भी बदतर हो। हमारे लिए उसका छरहरा तन, उसके घुंगराले बाल, सिरास द्वारा चूमे जाने पर उसकी मुस्कान, और पकडे जाने पर चेहरे पर दिख रहा भय, इतने ही निशाँ-नवीस मौजूद हैं। हैरत की बात यह है कि २०१६ में भी आज, जब उसकी कहानी सर्वपरिचित हो रही है, इर्फ़ान कहीं गुमनामी में अपने दिन काट रहा है। क्या वह समलैंगिक है? या फिर उसने सिरास को फसाया? या फिर दोनों? या इनमें से कोई भी नहीं? काश हम इन सवालों के जवाब पा सकते। दूसरा राज़ था सिरास के आखरी क्षणों में उनकी भावनाओं और मानसिकता का।
सिरास और इर्फ़ान के सैक्स को ज़ाहिर रूप से फिल्म की शुरुआत में दिखाया नहीं गया, बल्कि अलग-अलग व्यक्तियों के बयानों के दौरान धीरे-धीरे से उनके शारीरिक संबंधों को स्पष्ट किया गया। जैसे-जैसे कैमरा सतर्क शिकारी की तरह आगे बढ़ता है, प्राइवेसी का शिकार उसके चंगुल में फंसने के और क़रीब आता है। यह खेल इस बात की भी अलामत है की हमारी आर्थिक प्रगति के बावजूद हम अपनी वहशत को पीछे छोड़ने में काफी हद तक नाकाम हुए हैं। समाज तो जंगल है जी।
जब राजकुमार और उनकी सहकर्मचारी के लव-मेकिंग के मज़े प्रेक्षक ले चुका था, तब फिल्म के केंद्रबिंदु , सिरास और इरफ़ान के प्रेम-सम्पादन को आखिर पूर्णता से दर्शाया गया। पटकथा की इस संरचनात्मक चतुराई द्वारा अपूर्व इसरानी और हंसल मेहता ने टेढ़े तीर से अपना निशाना ख़ूब साधा: बतौर प्रेक्षक, हम दो अविवाहित भिन्नलैंगिकों की ऑफिस के टैरेस पर दारू पीने के पश्चात चुम्मा-चाटी से आँखें सेंक सकते हैं, मगर दो पुरुषों की आपसी सम्मति से उनके निजी बेडरूम में बुनी घनिष्ठता हमें बेचैन करती है। इस सीन में आखिर सिरास और इरफ़ान नंगे नहीं होते – हमारी अन्तर्निहित, पूर्वधारणाओं से लैस पक्षपाती मानसिकता और हमारा नैतिकता का विस्थापित, दुष्क्रियाशील दायरा अंततः नग्न होता है।
सड़क की पीली बत्तियों के ज़र्द प्रकाश में, ज़िल्लत और नाइंसाफी से निराश, पैर घसीटती, हांफती हुई सिरास की ज़िन्दगी की उदासीन गति को निर्देशक हंसल मेहता ने बखूबी पकड़ा है। मंद रौशनी में उनकी आँखों के क्षीण, मूक क्रंदन को छायाकार सत्य राय नागपाल ने कुशलता से क़ैद किया है। सिरास की रूखी पर्सनालिटी में, उनके मामूली हाव-भावों में हम छुपा अर्थ ढूंढना चाहते हैं। लेकिन नागपाल का कैमरा हमारे लिए सिरास के रोज़ाना जीवन की स्वादहीनता से भागने का कोई रास्ता नहीं छोड़ता।
अलीगढ शहर का इतिहास नामी है। १ सितम्बर १८०३ को, द्वितीय अँगरेज़-मराठा युद्ध के दौरान अलीगढ़ के किल्ले पर अंग्रेज़ों की ७६वी पल्टन ने जनरल जेरार्ड लेक के नेतृत्व में फ्रांसीसी अफसर पेहों को हराकर अंग्रेज़ी शासन क़ायम किया। उसके ५७ साल बाद अंग्रेज़ों ने भारत में १८६० में धारा ३७७ लागू की, जिससे समलैंगिकता अपराध बनी। इसके ठीक १५० वर्ष बाद, उसी अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में, जहां भारत की अंग्रेज़ी हुकूमत से आज़ादी के नारे लगे थे, एक प्राध्यापक को उन्हीं अंग्रेज़ों के ऐसे कानून के तहत गुनहगार ठहराया गया, जिसे अंग्रेज़ों ने ही ५० वर्ष पहले निकाल दिया था।
सिरास की मृत्यु के ४ साल बाद, यूनिवर्सिटी ने लड़कियों को मौलाना आज़ाद लाइब्रेरी को इस्तेमाल करने से मना किया। सिरास को अपने हक़ देने वाले उसी अलाहबाद हाई कोर्ट ने, उन लड़कियों के पक्ष में निर्णय देकर ए.एम.यू. को उन्हें पुस्तकालय में प्रवेश देने पर मजबूर किया। रूढ़िवाद के कारण सिरास की बलि चढ़ी, अब वही रूढ़िवाद बेटियों के रास्ते में भी आ खड़ा हुआ। सिरास को अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी जैसी प्रतिष्ठित संस्था का हिस्सा होने पर बहुत गर्व था। उसमें एकमेव मराठी प्रोफ़ेसर होना भी उनके लिए सम्मान का विषय था। अतः जिन्सी और लैंगिकता के तौर पर इस विश्वविद्यालय में सबको समान अधिकार प्राप्त हों, यही श्रीणिवास रामचन्द्र सिरास के प्रति सबसे बड़ी श्रद्धांजलि होगी।
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