‘अजीब वह’ – एक कहानी

'अजीब वो' - एक कथा। तस्वीर: सचिन जैन।

‘अजीब वो’ – एक कथा। तस्वीर: सचिन जैन।

वह अजीब था। हमेशा अपने आप को समेटता रहता था, फिर भी बिखरा-सा था। हज़ारो हज़ार बातें थी, पर वह ख़ामोश था; अधूरा था वह पर उसे और कुछ मंजूर भी नहीं था, सिवाए इस अधूरेपन के। वह अजीब था।
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“इट’स…….नॉट ….हेल्थी …..। मुझे तुम्हारी आदत पड़ रही है।” एक आधा गंजा, आधा बूढ़ा जो अब तक एक नंगी लाश की तरह पड़ा था, उस अँधेरे कमरे में बडबडाया।
“मैं क्या कोकीन हु ?” वह गर्दन नीचे किये सिमटकर बैठा था। अब बिस्तर की सिलवटों पर उँगलियों से कुछ बनाने लगा।

“और सनी जर्मनी कब जा रहा है?” जब भी उसे उस बूढ़े को नाराज करना हो वह उसकी फैमिली के बारे में पूछता है ।

“अगले हफ्ते पर। सनी कहाँ से आया बीच में?” बूढ़ा चिढ़ कर बोलता जाता है। “सुनो। मैं सोच रहा था कि ये तुम्हारे लिए भी अच्छा नहीं है, कि तुम अपनी फीलिंग्स और इमोशंस मुझमे इन्वेस्ट करो। तुम्हे अपनी उम्र का …”

“तुम्हारी बीवी का घुटनों का ऑपरेशन होने वाला था ? हुआ ?”

उसने अब भी सिर नीचे किया हुआ था। उस बूढ़े ने उस तरह सिर हिलाया जैसा लोग तब हिलाते हैं जब उन्हें कहना हो कि तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता।

“तुम्हारी बेटी प्रेग्डेंट थी ना? क्या हुआ?”

बूढ़ा और सुन न सका, धीरे से उठा और तेज़ी से बाहर निकल गया। पर वह अब भी उसी तरह बैठा रहा। उसने बेड के बगल से एक ट्रैन-जैसा छोटा-सा खिलौना निकाला और बेड पर चलाने लगा। उसे याद है बातों ही बातों में बूढ़े ने पूछा था कि उसे बनना क्या है? ये उन कुछ रातो में से एक थी जो उन्होंने बस बातें करते हुए ग़ुज़ारी थीं। वह बूढ़े के सीने पर सिर रखकर अपनी हथेलियों से उसकी बाहें नाप रहा था। जब वे पहली बार मिले थे और बस अजनबी भर थे तब से वह हर रात उसकी बाहो के बारे में सोचता था; और तकिये से लिपट कर सो जाता था। अखिर जब वह दिन आया तो उसे महसूस हुआ कि ये वो बाहें नहीं हैं; बिना किसी माँसपेशियों के, माँस के लोथड़े-सी।

“बता ना, तुझे तेरी ये नौकरी नहीं करनी, इस शहर में नहीं रहना, वापस नहीं जाना, अपना फैमिली बिज़नेस भी नहीं करना, आगे नहीं पढ़ना… तू करना क्या चाहता है?”

उसने अपना सर उठाया जो अब तक बूढ़े के सीने पर यूँ ही पड़ा था। अधमुंदी आँखों से देखा और बोला।

“जब मैं घर जाता था तो एक स्टेशन पड़ता था रास्ते में। एम.पी. की बॉर्डर पर; छोटा-सा स्टेशन। दिन उगने होता था और मैं आँखें मलकर उस स्टेशन को देखता था, एक खूबसूरत सपने की तरह। हर बार कुछ नया दिखता था। कोहरे में आग तापते हुआ वह सफ़ेद बालों वाला कुली और उसका कुत्ता; बरसातों में भीगता वो पुराना-सा जंग लगा अकेला लैम्पपोस्ट; भागती हुई, सिर पर टोकरी लिए वो औरतें; झुलसा देने वाली गर्मी में चिवड़ा खाते हुए गाँव छोड़ कर आया वह लड़का; ऐसा लगता था कि उन्हें मेरी कहानी में होना चाहिए। पर वह नहीं है। ट्रैन रूकती भर है और चल पड़ती है हर बार; पर मेरा कुछ पीछे छूट जाता है हर बार।”

वह चुप हो गया।

“तो ….?? “

“मुझे उस स्टेशन का स्टेशन मास्टर बनना है।”

वो दोनों कुछ देर ख़ामोश रहें , फिर बूढ़ा हँसने लगा। वह उस रात और उन बातों को भूल भी जाता, अगर बूढ़ा उसके लिए ट्रैन जैसा छोटा-सा खिलौना न उठा लाता।

“क्यों, क्यों, क्यों? उसकी आँखें चमक रहीं थीं।
“खिलौना दुकान पर दिखा। तो अचानक स्टेशन मास्टर की याद आ गयी?”
“पर गए क्यों थे खिलोने की दुकान पर?”

…और घुटन-सी घुल गयी थी माहौल में । पता नहीं उस दिन, उसे बार-बार क्यों लग रहा था कि वह बूढ़े के रोते हुए पोते के हाथो से खिलौना खींचे जा रहा है, और इस दौरान बूढ़ा उसकी घमौरियों से भरी पीठ चूमे जा रहा है। ऐसा लग रहा था कि मुँह में एक लपलपाता-सा कीड़ा है जो उससे उगलते नहीं बन रहा।

वह कभी माने या न माने उसे बूढ़े से प्यार है। पर उसे इस बात के लिए अपने आप से उतनी ही नफरत है। कई बार वह मिटा देना चाहता है हर चीज़, अपना नाम भी; दूर हो जाना चाहता है। जो कुछ हो रहा है; जो कुछ महसूस हो रहा है वह उसे नहीं, किसी अनजान अनाम अजीब-से इंसान को हो रहा है, किसी “वह” को हो रहा है। घिन्न सी आती है उसे अपने आप से जब वह… जब वह… जब मैं।

बूढ़ा कब का जा चूका था पर वह… पर मैं अब भी उस बिस्तर के कोने पर सिमट कर बैठा था। और हल्की सी मुस्कराहट आई मूछों की रगड़ से लाल हो चुके मेरे चेहरे पर; बड़े दिनों बाद।

कपिल कुमार (Kapil Kumar)
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