१८ जनवरी २०१४ को आई.आई.टी. खड़गपुर के नेताजी सभागृह में अंतर-हॉल हिंदी नाट्यस्पर्धा २०१३-२०१४ के अंतर्गत ‘आख़िर क्यों’, नामक नाट्याविष्कार प्रस्तुत किया गया। इंजीनियरिंग की हर स्ट्रीम के द्वितीय वर्ष से लेकर पंचम वर्ष तक के छात्रों ने एच.जे.बी. हॉल ऑफ़ रेसिडेंस का प्रतिनिधित्व किया। लगभग सौ-डेढ़ सौ दर्शकों में प्रायः छात्र और १-२ प्राध्यापक थे। भले ही इस नाटक को पुरस्कृत नहीं किया गया, उसका समलैंगिकों की स्वीकृति करने का सन्देश (“वे आपसे अलग अवश्य हैं, पर वे ग़लत नहीं हैं”) प्रभाव छोड़ गया।
कहानी कुछ इस प्रकार है: मध्यमवर्गीय शर्माजी के समधीजी उनकी बेटी के साथ पक्का हो रहा रिश्ता तोड़ देते हैं। उधर मकान मालिक घर से निकालने की धमकी देता है। वजह? उनका बेटा मृदुल समलैंगिक है और सारा शहर इस राज़ को जान गया है। शर्माजी मृदुल को थप्पड़ मारकर घर से निकाल देते हैं। मृदुल और उसका प्रियकर अजय होटल में अपने प्यार की घोषणा करते हैं तो उन्हें मार-पीटकर बाहर निकाला जाता है। इलाज करने वाले डॉक्टर सच्चाई जानने पर उनका समर्थन करते हैं। ग्राम पंचायत की सभा में कुछ गाँव वाले समलैंगिकता के विरुद्ध मत प्रदर्शित करते हैं तो डॉक्टर और एक कार्यकर्ता उसका समर्थन करते हैं (विकृति बनाम प्रकृति; मानसिक बीमारी – होमोसेक्सुएलिटी या होमोफोबिया?; पाश्चात्यकरण से प्रभावित ग़लत जीवनशैली बनाम भारतीय संस्कृति में समलैंगिकता का महत्त्वपूर्ण स्थान; मर्दानगी बनाम पितृसत्ता के नाम पर हो रहा शोषण, शादी विवाह की पवित्रता या सम्भोग का लाइसेंस, सैक्स की जीवन में भूमिका – बच्चे पैदा करना या मनोरंजन, एड्स फैलने का डर – सच या भ्रम, सामाजिक मर्यादाएँ या मानव अधिकार, समाज का अधः-पतन विरुद्ध इतिहास में नामी समलैंगिक और उभयलैंगिक, ३७७ विरुद्ध ‘विभिन्नता में एकता’, इत्यादि तर्क-वितर्क को पेश किया है)। सरपंच हिंसा की निंदा करते हैं।
अजय और मृदुल के रिश्ते को चार साल पूरे होने पर वे शादी करने, बच्चा गोद लेने और घर बसाने के सपने देखते हैं। अचानक पुलिस आकर उन्हें छेड़ती है और जेल में बंद कराती है। उन्हें कहती हैं कि या तो वे मर जाएँ, या तो सबकुछ छुपकर करें। डॉक्टर उनकी ज़मानत देकर उन्हें रिहा करते हैं। क्या मृदुल और अजय के सपने सच होते हैं? देखिये नाटक में…
कथाकार, संवाद लेखक और निर्देशक सुशील राठी की प्रेरणा थी लोगों को समलैंगिक समुदाय की व्यथा का वास्तव दिखाना। सुशील कहते हैं, “उच्चातम न्यायलय का धरा ३७७ वाला निर्णय राजनैतिक स्तर पर ही नहीं, घर-घर में चर्चा का विषय बन गया है। इस नाटक में क़ानूनी पहलु से ज़यादा सामाजिक स्वीकृति के आभाव पर बल दिया गया है। आई.आई.टी. कानपुर ने १० साल पहले इसी विषय पर एक ‘नुक्कड़’ का आयोजन किया था। उस संकल्पना को हमने विकसित किया है और इसे नाट्यरूप में पेश करने का सपना साकार किया है।
क्या ऐसे सामान्यतः वर्जित विषय को मंच पर उतारना मुश्किल था? निर्देशक द्वय सुशील राठी और संचयन राय चौधरी बताते हैं, “आई आई टी के छात्र बाकी समाज से ज़यादा उदार और समझदार हैं। इसलिए हमें यक़ीन था के इस नाज़ुक विषय का स्वागत होगा। लेकिन हम विद्यार्थी हैं, पेशेवर अभिनेता नहीं। यह निहायती ज़रूरी था की कहानी अकलमंदी और सहिष्णुता के साथ पेश की जाये और एल.जी.बी.टी. समुदाय का मज़ाक न उड़े। गे पात्र, उनके सपने, विषमलैंगिकों जैसे ही दिखाए जाए; कोई अंतर नहीं है। इसके अलावा, सैक्स, कंडोम जैसे शब्द मंच पर कमसे कम आई.आई.टी. खड़गपुर में तो नहीं इस्तेमाल होते। हमने वह जुर्रत इसलिए की, उनको सेंसर करने से पूरा नाटक ही निरर्थक हो जाता।”
समलैंगिक युगल के किरदार निभाने वाले रचित वशिष्ठ (अजय) प्रायः हिचकिचा रहे थे. कहते हैं, “मैंने सोचा, कल अगर मेरा मज़ाक उड़ाया जाये? या फिर मैं किरदार ठीक से निभा नहीं पाऊँ तो? लेकिन रिहर्सल शुरू होने के दो दिन बाद ही डर चला गया क्योंकि रोल समझदारी से लिखा गया था, कोई भद्दापन नहीं था और पात्र के जसबात मेरे दिल को छू गए। निर्देशक सुशील ने अभिनेताओं को समलैंगिकता के बारे में बताने से बहुत फायदा हुआ।” मृदुल का रोल निभाने वाले आयुष बरनवाल कहते हैं, “मुझे कोई अड़चन महसूस नहीं हुई।” दोनों का कहना था, “अभिनेता को कोई भी पात्र कुशलता से निभाना चाहिए। अगर समलैंगिक विषमलैंगिकों के रोल में अभिनय कर सकते हैं, तो इसके विपरीत की स्थिति क्यों नहीं?”
बहुसंख्यक दर्शक भिन्नलैंगिक थे। एक छात्र अशोक कुमार कहते हैं, “उन दो लड़कों की अवस्था देखकर आखिर में मेरे आँखों से आंसूं छलके।” एक और छात्र अर्णव के अनुसार, “सबने दिल से काम किया, ऐसे लगा जैसे वास्तव में हम इस प्रश्न का सामना कर रहे हैं।” मानस मोदी: “भारत में समलैंगिकों के जीवन की असलियत और कठिनाइयों का जाएज़ा हुआ। मुनेश: “सबसे अच्छी बात यह थी की जिन प्रश्नों का समलैंगिक समुदाय सामना करता है, उनका तर्क-शुद्ध जवाब दिया गया और भारतीय संस्कृति के “प्रकृति एवं विकृति” जैसे तत्वों का उल्लेख किया गया।”
“हर व्यक्ति को अपनी इच्छानुसार प्रेम करने का अधिकार है” निर्देशक राठी समझते हैं। “जिस देश में गंगा और प्रेम को पवित्र मानते हैं, वहाँ किसी से प्रेम करना ग़ैर-कानूनी कैसे हो सकता है? समलैंगिक हमेशा से इस समाज का हिस्सा थे। फ़र्क़ इतना है की अब वे खुलकर सामने आ रहे हैं, तो समाज उनके साथ कैसा बर्ताव करता है, ये देखनेवाली बात होगी। समलैंगिकता से जुड़े साधारण प्रश्नों और गलतफहमियों की सूचि बनाई हमने। फिर एक-एक करके उनका खंडन किया।”
लेखक लैंगिकता अल्पसंख्यकों के लिए सन्देश का सारांश बताते हैं, “आपको अपने लिए खड़ा होना पड़ेगा। आप समाज और परिवार के आगे झुक नहीं सकते, अगर आप बागडोर हाथ नहीं लेते, कोई आपकी मदद नहीं कर सकता। परिवार की खातिर समझौता करके होनेवाले पति/पत्नी की ज़िन्दगी कड़वी बना रहे हो। इसलिए सच बताओ। मुश्किल तो है, लेकिन यही बदलाव की शुरुआत है।”
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