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50 साल से चलती आ रही प्राइड का महत्त्व

LGBTQIA + समुदाय के सदस्यों के साथ दुर्व्यवहार के खिलाफ आवाज़ उठाने के लिए स्टोनवॉल में 50 साल पहले जो नींव रखी गयी, उसपर आइए नज़र डालते हैं कि हम समावेशिता, प्रतिच्छेदन और स्वीकृति के संदर्भ में कहां आए हैं।

हर साल आयोजित होने वाले अभिमान मार्च हमें यह दिखाते हैं कि हमें खुद को सुने जाने के लिए हिंसा या ईंटों की ज़रूरत नहीं है। हालाँकि, यह ध्यान रखना दिलचस्प है कि प्राइड केवल बेंगलुरु, कोलकाता, चेन्नई, गुजरात या लखनऊ जैसे महानगरीय शहरों में ही नहीं आयोजित की जाती है। छोटे शहरों में भी ये प्राइड आयोजित की जाती है मग़र भारत के सुदूर गाँवों और छोटे शहरों में इसका प्रभाव नगन्य है। क्या इसका मतलब यह है की समलैंगिकता या लैंगिक गैर-द्विआधारी पहचान केवल बड़े शहरों की तेज़ी से बदलती हुई संस्कृति है– नहीं,
बिल्कुल नहीं। ये सिर्फ एक होमोफोबिक स्पष्टीकरण के लिए मूर्खतापूर्ण बहाने हैं कि लोग क्यों
आदर्श से भटक रहे हैं। तो ग्रामीण या गैर-शहर स्थानों में कोई प्राइड मार्च क्यों नहीं है? ऐसा नहीं है क्योंकि उनके पास भाषा की कमी है जो हमें यौन अभिविन्यास के बारे में विस्तार से बताती है। समलैंगिकता ग्रामीण स्थानों में प्रचलित है लेकिन स्वीकार करना मृत्यु है। ऐसा क्यूँ?

क्योंकि समाज जैसा कि हम जानते हैं, विषमलैंगिक-पितृसत्तात्मक प्रभुत्व से बनी हुई है जो कि टूटकर बिखर जाएगी अगर लोग समलैंगिक बदलाव को मान्यता देंगें। लोग बदलाव से डरते हैं। लोग प्यार से डरते हैं। वे इसे अपवाद से दूर रखने के लिए एक स्पष्टीकरण के रूप में उपयोग करते हैं, अक्सर यह उद्धृत करते हुए कि यह स्वाभाविक नहीं है; अक्सर धर्म का हवाला दिया जाता है। लेकिन धर्म लड़खड़ाता है। क्योंकि यह भी इंसान द्वारा निर्मित है। अगर देखा जाए तो मर्दों के द्वारा और सिर्फ मर्दों के लिए। और अगर किसी को हमें हमारे समलैंगिक अपराधों के लिए सज़ा देनी हो तो वो पितृसत्ता के रथ पर सवार जनता होनी चाहिए या फिर खुद वो खुदा जो आप में और हम में बसता है?

समलैंगिकता ग्रामीण स्थानों में प्रचलित है लेकिन स्वीकार करना मृत्यु है। ऐसा क्यूँ?

वह ईंट जिसने यह सब उगल दिया।

26 जून, 1969 को, वारंट से लैस गुस्साए पुलिसकर्मियों ने रिश्वत माँगने, पहचान की जाँच करने और ड्रैग परफॉर्मर्स को परेशान करने के लिए एक लोकप्रिय गे बार पर छापा मारा- यह एक नियमित दिनचर्या का हिस्सा था। उत्पीड़न और छेड़छाड़ से गुस्साए लोगों ने पुलिस पर चिल्लाना और बोतलें और ईंटें फेंकना शुरू कर दिया। अधिकांश लोगों की तरह, भीड़ को भड़काने के लिए न्याय की तलाश करने वाले लोगों को अपना गुस्सा निकालने में देर नहीं लगी। हालाँकि इस घटना ने अकेले अमेरिका में समलैंगिक अधिकारों के आंदोलन को शुरू नहीं किया, लेकिन इसने लोगों को एकल कार्यक्रमों में भाग लेने की तुलना में विरोध के दिनों के लिए खुद को व्यवस्थित करने के लिए मंच दिया। ये वो घटना थी जिसने हमें एकत्रित होने का मौका दिया।

LGBTQIA + के समुदाय के इतिहास में स्टोनवाल एक ऐतिहासिक मील का पत्थर बन गया, जो केवल सहिष्णुता की तुलना में स्वीकृति के लिए प्रयास करता है।

तो अब क्या?

अधिकांश देशों ने समलैंगिकता को अपराध ना मानते हुए इसे जायज़ क़रार कर दिया है। सबसे हालिया बोत्सवाना था। इनमें से अधिकांश देशों का उपनिवेश हो गया था और अभी भी इस परंपरा को आगे बढ़ाया गया। हालाँकि, समलैंगिक या समलैंगिक जोड़ों के साथ रहने या ट्रांस लोगों को सेक्स वर्क या भीख माँगने के अलावा नौकरी देना अभी भी सभी के लिए भारी झटका लगता है। और उन्नति के पथ पे अग्रसर LGBTQAI+ समाज को अभी मीलों का सफर तय करना है

अधिकांश मदद करना चाहते हैं मग़र वे चुप रहना चुनते हैं। बहुमत को लगता हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में राजनीति नही है लेकिन ऐसा है क्या?

भारत में, वर्षों के विरोध के बावजूद प्राइड मार्च यह दर्शाता है कि हमारा देश सभी वर्गों के लोगों के लिए एक सुरक्षित स्थान है। समलैंगिकता को जब कानूनी तौर पर एके अपराध की श्रेणी से हटाया गया तो खुशी और रंगों के बड़े उत्सव सा माहौल था। लेकिन आज जब लोग प्राइड के लिए आते तो हैं बड़े उत्साह से, मग़र जैसे ही वो अपने पुराने जीवन या घरों में प्रवेश करते हैं उनका सहयोग खत्म हो जाता है क्योंकि समाज अभी भी सकारात्मक सोच के साथ हमें अपनाता नही है। वर्षों से चली आ रही परंपरा और विचार पर विश्वास करना बहस करने या किसी को सहयोगी के रूप में बदलने की तुलना में आसान है। यह ठीक इसलिए नही है कि क्योंकि अधिकांश मदद करना चाहते हैं मग़र वे चुप रहना चुनते हैं। बहुमत को लगता हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में राजनीति नही है लेकिन ऐसा है क्या? यह वह उदासीन मानसिकता है जो तब मदद नहीं करती है जब अल्पसंख्यक आवाज़ मदद या न्याय के लिए रो रही होती है।

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